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शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

कोई नया विरह ग्रन्थ बन जायेगा ...............

एक अरसा हुआ
हमें बिछड़े 
ना जाने 
कौन से 
वो पल थे
कौन सा 
वो लम्हा था
जब हम 
जुदा हुए 
कुछ 
तुम्हारी
 बेलगाम 
चाहतें थीं 
कुछ मेरी 
मजबूरियां थीं
शायद तभी 
रिश्ते में 
दूरियां थीं
जरूरत से
ज्यादा 
दूजे को 
चाहना
भी 
कभी कभी
दुश्वारियां 
बढ़ा देता है
इच्छाओं को
पंख लगा 
देता है
और वो 
गुनाह हो 
जाता है
जो 
खुद भी
ना सह 
पाता है
अब सोचती हूँ
मुद्दत से
तुमसे बात 
नहीं की
तुम्हारे 
लिए कभी
कोई दर्द
नहीं उठा
तुम्हें देखे
तो ज़माने 
गुजर गए
शायद वक्त
की दीमक
सब चाट गयी 
फिर भी
अगर कभी
किसी मोड़ पर
तुम मुझे
मिल गए तो?
क्या वो 
अहसास फिर
जाग पाएंगे?
क्या तुम 
मुझसे 
नज़र 
मिला पाओगे?
क्या लम्हों
को कुछ 
पल के लिए
रोक पाओगे?
क्या अपनी 
कभी कुछ
कह पाओगे?
या फिर 
एक बार 
अपने गुनाह
के नीचे 
दबे प्यार को
उसका मुकाम
दे पाओगे ?
या मैं
तुम्हें
कभी माफ़
कर पाउंगी ?
नहीं जानती 
मगर इतना 
जानती हूँ
शायद 
वो पल जरूर
वहाँ ठहर 
जायेगा 
खामोशियों 
को भी 
मुखर 
कर जायेगा  
और कोई
नया 
विरह ग्रन्थ
बन जायेगा 



आज की ये रचना राजीव सिंह जी की फरमाइश पर लिखी है उनका कहना था पिछली पोस्ट पर कि यदि कभी मिल गए तो क्या होगा उस पर भी लिखिए.

45 टिप्‍पणियां:

उस्ताद जी ने कहा…

2/10

भावनाओं का पिटारा लिए साधारण पोस्ट
कम लिखें बेहतर/उत्कृष्ट लिखें
लेखन को लत न बनाएं

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

fir se milna ..aur pal ka thahar jaana ...maun mukhrit ho jana ...fir bichhad ek naya virah granth likha jana ..bahut peedadayak hai

kshama ने कहा…

...Koyi naya virah granth ban jayega....insaan virah me kitna hatbal ho jata hai....bahut sundar rachana!

रचना दीक्षित ने कहा…

आपने लिखा है तो लाजवाब तो होना ही है.

राजभाषा हिंदी ने कहा…

संवेदनशील रचना! भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
पक्षियों का प्रवास-१

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

virah granth to sach me ban gaya.....:)

ek aur shandaar rachna!!

अनिल कान्त ने कहा…

अच्छा लेखन है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अरे वाह अब तो फरमाइश पर भी रचनाएँ लिखी जाने लगी हैं!
--
भगवान आपको फिल्मी गीतकार बनाएँ!
--
सुन्दर विवेचना है! सभी कुछ स्पष्ट ही बयान कर रही है यह रचना!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अरे वाह अब तो फरमाइश पर भी रचनाएँ लिखी जाने लगी हैं!
--
भगवान आपको फिल्मी गीतकार बनाएँ!
--
सुन्दर विवेचना है! सभी कुछ स्पष्ट ही बयान कर रही है यह रचना!

रंजना ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण रचना....
बहुत बहुत सुन्दर !!!!

Aashu ने कहा…

Bahut sundar prastuti!

jara yaha bhi najar daliye!

http://draashu.blogspot.com/2010/10/blog-post_22.html

Dr Xitija Singh ने कहा…

aapka har prashn jayaz hai ... aur ye to utheinge hi utheinge ... magar kitnon ke jawaab mil paeinge ye kehna mushkil hai ... bahut achhi post vandana ji

कडुवासच ने कहा…

... bahut khoob ... behatreen rachanaa !!!

M VERMA ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति है..

संजय भास्‍कर ने कहा…

बेह‍तर रचना। अच्‍छे शब्‍द संयोजन के साथ सशक्‍त अभिव्‍यक्ति।

सुज्ञ ने कहा…

विरह की पाती ?

अतिसुंदर

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

मन के भाव को नदी की तरह बहने दिया है.. और जैसे नदी सागर से मिलने के लिए आतुर रहती है.. आपकी कविता में भी आकुलता है .. आतुरता है.. सुंदर कविता...
कुछ पंक्तिया बेहद सुन्दर बन गईं हैं.. जैसे...
"जरूरत से
ज्यादा
दूजे को
चाहना
भी
कभी कभी
दुश्वारियां
बढ़ा देता है
इच्छाओं को
पंख लगा
देता है" सच कह रही हैं आप.. प्रेम कई बार उदात्त बना देता है.. सीमाओं को लांघ देता है.. भावों का सुंदर पिटारा है आपकी कविता..

Saleem Khan ने कहा…

tere bina zindagi se koi shiqwa to nahin.....


jaisee kaifiyat ho jaati hai kabhi kabhi!!!!

ati-sundar .... padhte padhte sihran uth jaati hai...waqaee !!!

Saleem Khan ने कहा…

uff khadaya !

"जरूरत से
ज्यादा
दूजे को
चाहना
भी
कभी कभी
दुश्वारियां
बढ़ा देता है
इच्छाओं को
पंख लगा
देता है"

डॉ टी एस दराल ने कहा…

वक्त हर ज़ख्म को भर देता है । और भुला भी देता है । फिर कोई लम्हा वैसा नहीं रहता ।

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…

भावनाओं का सुंदर चित्रण। बस जरूरत है "विरह" के बजाय पुरानी बातों को भूल "मिलन" मे परिवर्तित करने की। फिर अनिश्चितता कायम नही रहेगी।

ZEAL ने कहा…

Quite inspiring !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भावनाओं का सरल निरूपण।

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
बेनामी ने कहा…
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बेनामी ने कहा…
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बेनामी ने कहा…
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बेनामी ने कहा…
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बेनामी ने कहा…
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महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

भावनाओं का शब्दों में रूपांतरण अच्छा है।

मनोज कुमार ने कहा…

भीगा-भीगा एहसास को उकेरती कविता। मन में ख़्याल आया
दबा के चल दिए सब क़ब्र में, ना दुआ ना सलाम
ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को

बेनामी ने कहा…

कविता पढकर 'कोरा कागज' सिनेमा का आखिरी दृश्य याद आ गया.पति और पत्नी, जुदा होने के कुछ सालों बाद एक दूसरे से रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में मिलते हैं.दोनों ही इन्तेज़ार में है कि पहले कौन बोले.दोनों के अंदर पश्चाताप है लेकिन कोई बोल नहीं रहा.आखिर में पति बोलता है और दोनों फिर से एक हो जाते हैं.वहां दोनों के प्रेम महाकाव्य का आख़िरी पन्ना लिखा जाता है.

आपकी कविता में पुरुष पात्र तो कदम कदम पर गुनाहगार है लेकिन स्त्री पात्र हर परिस्थिति में स्वयं के निर्णय को सही ठहराने वाली अभिमान से ग्रस्त है. वहाँ प्रेम पर अहं भाव हावी है. इसलिए जब प्रेमी किसी मोड़ पड़ प्रेमिका को देखेगा तो न वो आँख मिला पायेगा, न ही कुछ कह पायेगा क्योंकि वह तो अपनी ही गुनाहों के बोझ तले दबा रहेगा.
उस परिस्थिति में शायद वही होगा जो आपने अपनी कविता में लिखा है. दोनों की खामोशी इतनी मुखर होगी कि दोनों फिर से बिछडेंगे.
अब रही, विरह ग्रन्थ बनने की बात. बरसों पहले मिट चुकी कहानी का अगला खंड शायद दोनों के लिए इतना लंबा न हो कि ग्रन्थ लिखा जाय,हाँ, चंद पन्ने जरुर दोनों जोड़ लेंगे अपने अपने भावनाओं को संतुष्ट करने वाली शब्दावली में, क्योंकि वक्त का दीमक तो सच में, हर स्मृति औए दुःख को चाट जाता है, जैसा कि आपने लिखा है.

राज भाटिय़ा ने कहा…

अगर कभी
किसी मोड़ पर
तुम मुझे
मिल गए तो?
क्या वो
अहसास फिर
जाग पाएंगे?
आप की कविता के लिये तारीफ़ के शव्द भी कम पडते हे, बहुत सुंदर, धन्यवाद

गौरव शर्मा "भारतीय" ने कहा…

hamesha ki tarah behad shandar post hai.......

Anupriya ने कहा…

nice...so beautyful...

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) ने कहा…

fir se koi virah granth!!!!! bahut sachchi magar man ki baat kahi aapne.

बेनामी ने कहा…

राजीव सिंह said...
वंदना जी, यह पोस्ट सिर्फ आपकी एक कविता के बारे में है. मैं जानता हूँ कि आप पुरुष की भावनाओं को भी उतनी ही गहनता से लिखती हैं.इस बात का स्पष्टीकरण मैंने अपने ब्लॉग पर लगा दिया है. कोई बात दिल को लगे, तो क्षमा कीजियेगा.

Ashok Vyas ने कहा…

किसी फिल्म का ये गीत याद आया
"वो अफसाना जिसे अंजाम तक
लाना न हो मुमकिन,
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर
छोड़ना अच्छा'

भावनात्मक कसक की बुझती चिंगारियों
को समझ के साथ सुलगाने की चाहत का स्पर्श करती सहज अभिव्यक्ति
बधाई

निर्मला कपिला ने कहा…

मुझे लगता है जितना आपने विरह पर लिखा है उसमे एक ग्रंथ जरूर बन जायेगा। अच्छी लगी रचना। बधाई।

अनुपमा पाठक ने कहा…

virah granth !!!
peeda mein jhalakti ek ashrupoorna sambhavna!
regards,

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

Vandna ji..us pal ko khoob byaan kiya..bahut khoob..

deepti sharma ने कहा…

achhi rachna

Harshkant tripathi"Pawan" ने कहा…

कविता अच्छी लगी.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

भावपूर्ण ... संवेदनशील रचना ....

Aruna Kapoor ने कहा…

सुंदर रचना, सुंदर प्रस्तुति...धन्यवाद! ...दिपावली की शुभ-कामनाएं!