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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

लम्हों की कहानी सदियों की जुबानी हो जाये ..............200 वी पोस्ट

कल तेरे शहर की हवा ने
दस्तक दी मेरे दरवाज़े पर
ना जाने किसने राह दिखाई
कैसे खबर हुई ,किसने पता बताया

गुमनाम पता कौन ढूँढ  लाया
क्या तुम जानते थे मैं कहाँ हूँ ?

मुद्दत बाद देखा है तुम्हें
इक अरसा हुआ देखे हुए
लगा जैसे सदियाँ बह गयी हों
सिर्फ एक लम्हे में
कहो ना ............
कैसे जाना मैं कहाँ हूँ ?

क्या करोगी जानकर
ये दिल के सौदे होते हैं
तुम्हारे लिए मैं सिर्फ
एक ख्याल रहा
हवाओं में तैरता हुआ
फिर कैसे जानोगी
दिल के उफनते लावे को
क्या क्या  बह रहा है
तुम्हारे साथ तुम्हारे बिन
मैं पता किससे पूछता
तुमने कब बताया था
ये तो हवाओं ने ही
मुझे  तुमसे मिलवाया है
और पाँव खुद-ब-खुद
तुम्हारे शहर में ले आये हैं
आखिर दिल के मोड़ों पर
तुम्हारा ही तो नाम लिखा है

आज कह लो सब
सुन रही हूँ
वो दरिया जो सिकुड़ गया था
तुम्हारी उदासियों में
और वो जो दिल की मिटटी पर
ख्यालों का लेप तुमने लगाया था 
जब मैंने अपनी कसम में तुम्हें
और तुम्हारे अरमानों को जिंदा लिटाया था
उन सभी तुम्हारे अनकहे जज्बातों  को
शायद आज समझी हूँ
उम्र के उस मोड़ को
जो पीछे छोड़ आई हूँ
आज पकड़ने की ख्वाहिश जन्म ले रही है
कहो आज दिल की दास्ताँ ..............

तुम क्या जानो
प्रेम डगर की सूक्ष्मता
कैसे तुम्हारे बिना पलों ने  मुझे बींधा है
देखो 
मेरे दिल का हर तागा
कैसे ज़ख़्मी हुआ है
जैसे अर्जुन ने शर- शैया पर भीष्म को बींधा हो
और वो तब भी हँस रहा हो
आखिर ज़ख्म भी तो मोहब्बत ने दिया है
तुम्हारे बिना जीया ही कब था 
ये तो एक लाश ने वक्त को
कफ़न में लपेटा हुआ था
शायद कभी कफ़न चेहरे से हट जाये
शायद कभी दीदार तेरा हो जाये
शायद कभी जिसे तुमने नेस्तनाबूद किया
वो बीज एक बार फिर उग जाए
प्रेम का तुम्हें भी कभी कोई लम्हा चुभ जाये
तुम भी शायद कभी मुझे आवाज़ दो
वैसे ही तड़पो
जैसे कोई चकवी चकोर को तरस रही हो
मगर तुमने ना आवाज़ दी
न तड्पी मेरे लिए
तुम तो वो जोगिन बन गयीं 
जिसे श्याम सिर्फ सपनो में मिलता है
प्रेम की अनंत ऋचाएं
और तुम उसकी परिणति
सिर्फ अँधेरे कोनो में ही
समेट लेना चाहती थीं
पता है तुम्हें
जब भी तुम सिसकती थीं
वो आह जब मुझ तक पहुँचती  थी
देखना चाहती हो क्या होता था
देखो ...
देख रही हो ना
ये जलता हुआ निशान 
ये उसी सिसकी की निशानी है मेरे सीने पर
देखो कितने निशाँ हैं तुम्हारी चाहत के
क्या गिन पाओगी इन्हें ...
देखो तो
अब तक हरे हैं ...

उफ़ !
ज़िन्दगी ना मैं जी पायी हूँ
ना तुमने कभी करवट ली
जानती हूँ
मगर देर हो गयी न
तुम और तुम्हारी दुनिया
मैं और मेरी दुनिया
अपना अपना संसार
दो ध्रुव ज़िन्दगी के
कभी देखा है ध्रुवों को
एकाकार होते हुए

अरे क्या कह रही हो
कब और कैसे ध्रुवीकरण कर दिया तुमने
मैं तो आज भी तुम्हें खुद में समाहित पाता हूँ
जब खुद से भटक जाता हूँ
तुममे खुद को पाता हूँ
जब भी तुम्हारी
याद की ओढनी ओढ़कर
चाहत चली आई
तारों की मखमली चादर मैंने बिछायी
उस पर तुम्हारी याद की सेज सजाई
कहो फिर कैसे कहती हो
जुदा हैं हम
क्या नहीं जानतीं
चाहतों का सुहाग अमर होता है


चलो आओ आज फिर
एक नयी शुरुआत करें
जो छूट गया था
कुछ तुममे और कुछ मुझमे
कुछ तुम्हारा और कुछ मेरा
वो सामान तलाश करें

जो चाहत परवान ना चढ़ी

जो दुनिया के अरमानो पर जिंदा दफ़न हुयी
चलो आओं आज उसी चाहत को
अपने दिल के आँगन में एक साथ उगायें
आखिर बरसों की जुदाई के
तप में कुछ तो तपिश होगी
कुछ तो अंकुर होंगे
जो अभी बचे होंगे
जिन्हें अभी नेह के मेह की तलाश होगी 
कुछ फूल तो जरूर खिलेंगे...है ना 


वक्त की दहलीज पर
तेरा मेरा मिलना
ज्यूँ संगम किसी क्षितिज का होना
तुम और मैं
आज मोहब्बत को नया आयाम दें
तुम्हारे लरजते अधर
आमंत्रण देते नयन बाण
ये उठती गिरती पलकें
दिल की धडकनों का
पटरी पर दौड़ती रेल की
आवाज़ सा स्पंदन
हया की लालिमा
सांझ की लालिमा को भी शर्मसार करती हुई
मुझे बेकाबू कर रही है
मैं भीग रहा हूँ
तुम्हारे नेह की धारा में
अब होश कैसे रखूँ
देखो ना ...
मेरी आँखों में तैरते गुलाबी डोरों को
क्या इनमे तुम्हें
एक तूफ़ान नज़र नहीं आता
बताओ तो
कहाँ जाऊँ अब?
कैसे सागर की प्यास बुझाऊँ ?
अधरामृत की मदिरा में कैसे रसपान करूँ ?
कुछ तो कहो ना ..
तुम तो यूँ
सकुचाई शरमाई
इक अलसाई सी अंगडाई लग रही हो
क्या तुम्हें मेरे प्रेम  की तपिश
नेह निमंत्रण नहीं दे रही
कैसे इतना सहती हो ?
मैं झुलस रहा हूँ
तुम्हारा मौन और झुलसा रहा है


अरे रे रे ...
ये क्या सोचने लगीं
देखो ये वासनात्मक राग नहीं है
ये तो प्रेम की उद्दात तरंगो पर बहता अनुराग है
तुम इसे कोई दूसरा अर्थ ना देना
जानती हो ना
प्रेम के पंछी तो सिर्फ तरंगों में बहते हैं
वहाँ वासना दूर कोने में खडी सुबकती है
ये प्रेमानुभूति तो सिर्फ 
रूहों के स्पंदन की नैसर्गिक क्रिया है



जानती हूँ ...
रूहें भटक रही हैं
मगर तब भी इम्तिहान अभी बाकी है
बेशक तुम्हारे संग
मैंने भी ख्वाबों की चादर लपेटी है
जहाँ तुम , तुम्हारी सांसें
तुम्हारे बाहुपाश में बंधा मेरा अक्स
जैसे कोई मुसाफिर
राह के सतरंगी सपने में
एक टूटा तारा सहेज रहा हो
जैसे कोई दरवेश
खुदा से मिल रहा हो
जैसे खुदा खुद आज
आसमां में मोतियों की झालर टांग रहा हो
है ना ....यही अहसास !
मगर फिर भी
ना तुम ना मैं
अभी अपने किनारों से अलग हुए हैं
फिर कहो कैसे बाँध तोड़ोगे ?
क्या भावनाएं बाँधों से बड़ी हो गयीं
या हमारी पाक़ मोहब्बत छोटी हो गयी
मोहब्बत ने तो कभी
रुसवा नहीं किया किरदारों को
फिर तुम कैसे झुलस गए अंगारों पर
माना ...मोहब्बत है
इम्तिहान भी तो यही है
जब तुम हो और मैं हूँ
दिल भी है धड़कन भी है
अरमान भी मचल रहे हैं
मगर यूँ 
सरे बाज़ार बेआबरू नहीं होती मोहब्बत
किसी एक चाहत की लाश पर नहीं सोती मोहब्बत


तो फिर तुम ही कहो क्या करें
कैसे अब के मिले
फिर कभी ना बिछडें
अब दूरियां नहीं सही जातीं
जानता हूँ ...
हालात इक तरफा नहीं
जो तूफ़ान यहाँ ठहरा है
उसी में तुम भी घिरी हो
अपनी मर्यादा की दहलीज पर
मगर अब तो कोई हल ढूंढना होगा
मोहब्बत को मुकाम देना होगा
जो कल ना मिला
वो सब आज हासिल करना होगा
बहुत हुआ
जी लिए बहुत ज़माने के लिए
चलो अब कुछ पल
खुद के लिए भी जी लें
 जो अरमान राख़ बन चुके थे
उन्हें ज़िन्दा कर लें


मगर कैसे?

क्या बता सकोगे ?
कैसे जहाँ से बचोगे
जो दुनिया
गोपी कृष्ण भाव को ना जान पाई
वहाँ भी जिसने तोहमत लगायी
वो क्या प्रेम की दिव्यता जान पायेगी
तुम्हारे और मेरे
प्रेम को कसौटी की
चिता पर ना सुलायेगी
जहाँ जिस्म नहीं आत्माएं सुलगेंगी
वहाँ प्रेम की सुगंध नहीं बिखरेगी
दुनिया की नृशंसता नर्तन करेगी
वो तो इसे जिस्मानी प्रेम ही समझेगी
ऐसे मे
क्या दुनिया को समझा सकोगे?
मोहब्बत की पाक़ तस्वीर दिखा सकोगे?
क्या दुनिया समझ सकेगी?
क्या फिर से मोहब्बत दीवारों में ना चिनेगी ?


तो बताओ तुम ही क्या करूँ मैं
अब नहीं जी सकता
एक बार खो चुका हूँ
अब फिर से नहीं खो सकता

वो तो अब मैं भी
इतनी आगे आ चुकी हूँ
वापस जा नहीं सकती
तुमसे खुद को जुदा कर नहीं सकती
तुम्हारे बिन इक पल अब
फिर से जी नहीं सकती


तो फिर आओ

आज निर्णय करना होगा
क्या मेरा साथ दोगी उसमे
आज मोहब्बत तेरा इम्तिहान लेगी
क्या दे सकोगी ?

तुम कहो तो सही
यहाँ ज़िन्दा रहकर मिल नहीं सकते
और काँटों की सेज पर
फिर से सो नहीं सकते
तो क्यूँ ना ऐसा करें
.......................
हाँ हाँ कहो ना
......................
तुम जानते हो
क्या कहना चाहती हूँ
ये तो जिस्मों की बंदिशें हैं
रूहें तो आज़ाद हैं


हाँ सही कह रही हो
मेरा तो हर कदम
तेरी रहनुमाई के सदके देता है
तेरे साथ जी ना सके
गम नहीं
रूह की आवाज़ पर भी थिरकता है


तो फिर आओ
चलें .............
उस जहाँ की ओर
जहाँ मोहब्बत
चिरायु हो जाए
लम्हों की कहानी
सदियों की जुबानी हो जाये ..............

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

'कहीं तुम वही तो नहीं हो जाना '

वो जोगी
अलख जगाता रहा
पूजन अर्चन वंदन
करता रहा
तप की अग्नि में
खुद की आहुति 
देता रहा
देवी दर्शन की
चाह में
लहू से अपने
तिलक लगाता रहा
चौखट पर देवी की
'स्व' को भस्मीभूत
करता रहा 
कठोर व्रत नियम 
करता रहा
और इक दिन
हो गयी
प्रसन्न देवी
दिए दर्शन
कहा ------
"माँग वरदान "
जोगी को 
नव जीवन मिला
वर्षों के तप का
फल मिला 
देवी को देख
स्व को भूल गया
जोगी के हर्ष का
ना पारावार रहा 
हर्षातिरेक में 
भिक्षा ऐसी 
माँग बैठा 
जीवन ही अपना
गँवा बैठा
भिक्षा में देवी से
'मोहब्बत'
मांग बैठा
और जन्मों की 
तपस्या को 
पल में 
जन्मों के लिए
गँवा बैठा
'तथास्तु' कह 
देवी अंतर्धान 
हो गयी
और अब 
ढूँढता फिरता है
मोहब्बत को
अर्धविक्षिप्त सा 
'कहीं तुम वही तो नहीं हो जाना '

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

अंकुर जरूर फ़ूटेंगे एक दिन

मै तो
कल भी
वही थी
और आज भी
तुम ही
ना जाने
किस मोड
पर मुड गये
अब खाली
मोड ही
रोज चिढाता है
मगर
आस का
दीप अभी
बुझा नही है
शायद
किसी
गोधुलि वेला मे
तुम आओगे
जीवन को
मुकाम देने
और अपने
नेह को
आयाम देने

देखो
सूखने मत देना
इस आस के
वृक्ष को
तुम्हारे इंतज़ार के
पवित्र जल से
सींच देना
अंकुर जरूर फ़ूटेंगे
एक दिन
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गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

कोई तो है

कोई तो है
जो रूह बना
लहू बन
रगो मे बहा
फिर कैसे कहूं
कोई नही है


कोई तो है
जो अहसास
जगा गया
अरमानो को
दीप दिखा गया
 
फिर कैसे कह दूं
कोई नही है

कोई तो है
जो सच कह गया
मगर दिल भी
जला गया
कुछ अपना
दुखा गया
कुछ मेरा
फिर कैसे कह दूं
कोई नही है
कोई तो है
कहीं तो है
मगर अब
ख़्वाब
आकार नहीं लेते
हसरतें जवाँ नहीं होतीं
एक टीस सी उठती है
शायद दर्द बन कर
पल रही है
फिर कैसे कहूं
कोई नहीं है

कोई तो है
जरूर है ............कोई ना कोई
शायद तुझमे मैं और मुझमे तू
कहीं तो हैं...........है ना

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

मै मौन का वो शब्द हूं

मै मौन का वो शब्द हूं
जो तुम्हारे लिये लिखा गया
जिसे पढने की समझ
सिर्फ़ तुम जानते हो
जिसकी भाषा का हर शब्द
तुम्हारी अंतरआत्मा की
अभिव्यक्ति है
मगर कहती मै हूँ
गुनते तुम हो
एक भाषा जो शब्दो की
मोहताज़ नही होती
सिर्फ़ भावनाओ मे
बिखरी होती है
सिर्फ़ पढने के लिये
तुम्हारी निगाह की
जरूरत होती है
जहाँ की भाषा को
तुम शब्द देते हो
और मौन मुखर हो
जाता है और मैं 

व्यक्त 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

ये प्रेम के कौन से मोड आ गये

ये प्रेम के कौन से मोड आ गये
जहाँ लम्हे तो गुजर गये
मगर हम बेजुबाँ हो गये
कहानी कहते थे तुम अपनी
और हम बयाँ हो गये
ये बादल मेरी बदहाली के
क्यूँ तेरी पेशानी पर छा गये
इस रूह के उठते धुयें मे
तुम कैसे समा गये
काश!
कोई नश्तर तो चुभता
कुछ लहू तो बहता
कुछ दर्द हुआ होता
तो शायद
तेरा दर्द मेरे दामन से
लिपट गया होता
फिर न यूँ रुसवाइयों
के डेरे होते और
जिस्म के दूसरे छोर पर
तुम मेरे होते
जहाँ रूहों के रोज
नये सवेरे होते

मगर ना जाने 
ये कैसे प्रेम के
मोड़ आ गए
जो सिर्फ भंवर 
में ही समा गए
अब ना तुम हो
ना मैं हूँ 
ना भंवर है 
बस प्रेम का ये 
मोड़ सूखे अलाव 
 ताप रहा है

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

अब लक्ष्य निर्धारण नहीं करती

अब लक्ष्य निर्धारण नहीं करती
निर्धारण कर लो तो 
पाने की चाह
प्रबल हो जाती है
और उस जूनून में 
काफी कुछ बह जाता है
और बचता है तो सिर्फ 
रेतीले मटमैले पैरों में
चुभते से कुछ कंकर पत्थर 
और गाद में सड़ते पाँव 
और उनके निशाँ 
पीछे मुड़ने पर देखो तो
सिर्फ निशाँ ही होते हैं 
अकेले , नितांत एकाकी
बाकी तो वक्त के दरिया 
में बह जाता है और तब
लक्ष्य को पाना 
उसकी सफलता 
खोखली बेमानी हो जाती है
जब उन पदचिन्हों के साथ
एक भी निशाँ नज़र नहीं आता
इसलिए अब दिशाहीन जी लेती हूँ
जहाँ खोने को कुछ नहीं होता
और जो मिलता है वो ही 
लक्ष्य बन जाता है
या कहो जीवन की 
उपलब्धि इसी में है 
पाने की चाहत में 
सब कुछ खो देना तो 
लक्ष्य नहीं होता ना 
इसलिए
अब लक्ष्य निर्धारण नहीं करती

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

अदृश्य रेखा

दिल की मुश्किलें 
बढ़ जाती हैं
जब तुम सामने होती हो
ना तुम्हें छू सकता हूँ
ना पा सकता हूँ
तुम्हारे वजूद को 
आकार देना चाहता हूँ
जिसे मैंने कभी 
देखा भी नहीं
मगर फिर भी 
हर पल नज़रों में 
समायी रहती हो
तुम्हारे अनन्त 
विस्तृत आकाश को
मैं अपने ह्रदयाकाश में
समेटना चाहता हूँ
हर सम्भावना को
स्वयं में समाहित 
करना चाहता हूँ
ताकि तुम 
तुम्हारा वजूद
हर पल
मेरे अस्तित्व में
एक अदृश्य रेखा सा
मौजूद रहे

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में मौसम नहीं बदला करते

ऊष्मा
कभी देह की
कभी साँसों  की
कभी बातों की
कभी नातों की
कभी भावो की
तो कभी 
शुष्क मौसमों की
बंजर भूमि में 
उगते कुछ 
सवालों की.......
झुलसा जाती है
हर नेह को
हर गेह को
हर देह को
और बचे 
रह जाते हैं 
राख़ के ढेर में 
कुछ तड़पते
सिसकते
काँटों की सी 
चुभन लिए
कुछ अल्फाज़ 
कुछ घाव
कुछ बिखरे- बिखरे
से अहसास
अपनी बेबसी पर
लाचार से 
आँसू बहाते
उम्र भर के 
तड़पने के लिए
जो इतना नहीं जानते
ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में 
मौसम नहीं बदला करते

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

अब सदायें आसमां के पार नहीं जातीं

आज तेरी 
याद का बादल
ख्यालों से
टकरा गया 
एक बिजली सी 
गिर गयी
आशियाँ जल गया
कभी हम मिले थे
यूँ ही चलते चलते
किसी अन्जान शहर में
किसी अन्जान मोड़ पर  
 और एक रिश्ता बना 
कुछ तेरा था उसमे 
कुछ मेरा था शायद
 बह रहे थे समय 
के दरिया में दोनों 
कभी उफ़ान खाता
सागर था तो
कभी  खामोश 
रह्गुजारें थीं 
मगर तब भी 
तुम भी थे
और मैं भी थी 
ये अहसास क्या 
कम थे 
मगर आज 
ना तुम हो
ना मैं हूँ
ना हमारे
अहसास हैं
वक्त की गर्द में
दबे शायद
कुछ जज़्बात हैं
जिन्हें तेरी 
पूजा की थाली में
उंडेल रही हूँ
जिसे तू खुदा 
कहता था
उसी में आज 
सहेज रही हूँ
वो तेरा जाना
और मेरा 
तड़प जाना
मगर रोक 
ना पाना
आज भी 
तड़पाता  है 
तेरे होने का
अहसास कराता है 
 मुझे मुझसे 
चुराता है
मगर यादें परवान 
नहीं चढतीं
शायद इसीलिए
अब सदायें
आसमां के पार
नहीं जातीं
और तुझ तक
पहुँच नही पातीं

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

इंतजार के युग

पता नहीं
हम गुजर 
रहे थे
या 
वक्त हमें
गुजार रहा था 
बस जी 
रहे थे
यादों की 
रोशनाई से 
वक्त के 
लिहाफ पर 
दास्ताँ 
लिख के
कुछ तेरी 
कुछ मेरी
और कुछ
वक्त की
सलाखों 
के पीछे
छुपे सच की
कुछ तेरे
बिखरे 
अरमानो की 
तो कुछ 
मेरे दिल के
छालों पर 
गिरते तेरे
अश्कों की
कभी 
अश्कों 
में छुपे 
दर्द की 
कलम  से
कोई तहरीर 
उतर आती थी
और हम
सहम जाते थे
तो कभी
तेरे जलते 
दिल की 
आग से 
एक कोयला
जो रूह को
छू जाता था
हर छाले पर 
एक फफोला 
और पड़
जाता था
मगर वक्त 
अपनी रफ़्तार 
से गुजर 
रहा था
या कहो
वक्त की
अँधेरी खोह 
में से
दो मासूम 
दिल 
गुजर रहे थे
और वक्त 
के साथ
तड़प रहे थे
शायद 
कभी वक्त को
रहम आ जाये
और मिलन 
हमारा 
हो जाये 
इसी एक 
आस पर
इंतजार के 
युग 
गुजर रहे थे 


रविवार, 5 दिसंबर 2010

आहटों के गुलाब

कुछ आहटों के गुलाब
सजाये दिल के
गुलदस्ते में
अब एक एक करके
हर गुलाब
निकालती हूँ
जैसे यादें निकलती हों
दरीचों से
फिर सूखने के लिए
आहों की धूप में
रख देती हूँ
हर काले पड़ते
गुलाब पर
तेरे साये की
सांझ उकेरती हूँ
कहीं कोई गुलाब
फिर से ना खिल जाये
इसलिए हर गुलाब पर
अश्कों का तेज़ाब
उंडेलती हूँ
और इंतज़ार की
शाख पर
आहटों के गुलाबों
की रूह दफ़न
करती हूँ

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

कील.........ख्यालों की

एक ख्याल
दिल की कील
पर लटका पड़ा है
तो एक ख्याल
दिमाग की 
बालकोनी में
सूख रहा है
और कोई ख्याल
तो किसी ख्याल की
अलंगनी पर टंगा है
कौन से कोने से
शुरू करूँ
हर कोना
अपने ख्यालों
की तरह ही
रीता दिखाई
देता है
वहाँ जहाँ
ख्यालों ने
अपनी दुनिया
बसाई थी
हर मोड़ पर
सिर्फ एक
बेवफाई थी
कहीं ना किसी
ख्याल की
सुनवाई थी
सभी ख्यालों
ने शायद
मुझसी ही
किस्मत पाई थी
कुछ कीलें
कभी नहीं
निकलतीं
फाँस सी
ताउम्र
चुभती ही
रहती हैं

सोमवार, 29 नवंबर 2010

मेरे सपनो का शहर

अनंत यात्राओं की 
अंतहीन पगडंडियों
पर चलते चलते 
जब कभी थक जाती हूँ 
तब कुछ पल 
जीना चाहती हूँ
सिर्फ तुम्हारे साथ
तुम्हारी आशाओं 
अपेक्षाओं और 
अपनी चाहतों के साथ
जहाँ मेरी हर चाहत
परवान चढ़ सके 
और तुम्हारे वजूद का
हिस्सा बन सके 
जहाँ तुम्हारे ह्रदय के
हर गली कूचे पर
सिर्फ मेरा नाम लिखा हो 
हर मोड़ पर 
मेरा बुत खड़ा हो
जिसके हर घर में 
तुम्हारी मुस्कराहट 
तैर रही हो और 
मेरे पाँव थिरक रहे हों 
तुम्हारी प्रेममयी झंकार पर
जहाँ एक ऐसा आशियाना हो 
जिसमे सिर्फ तुम्हारा 
और मेरा वजूद
अपना वजूद पा रहा हो 
और कभी हम किसी 
भीड़ के रेले में 
चुपचाप हाथों में हाथ डाले
चल  रहे हों और
इक दूजे की धडकनें
सुन रहे हों
बस कुछ पल 
इसी सुकून के 
जीना चाहती हूँ
जिसे तुमने 
मेरा नाम दिया है
और मेरे अस्तित्व का
प्रमाण दिया है
उसी अपने घर में 
रहना चाहती हूँ
जानते हो ना 
कौन सी है वो जगह
 वो है तुम्हारा ह्रदय
मेरे सपनो का शहर

शनिवार, 27 नवंबर 2010

आँच

मद्धम- मद्धम 
सुलगती आँच 
और सीली 
लकड़ियाँ 
चटकेंगी तो
आवाज़ तो 
होगी ही
लकड़ियों का 
आँच की
तपिश से 
एकीकृत होना
और अपना 
स्वरुप खो देना
आँच की 
सार्थकता 
का प्रमाण 
बन जाना
हाँ , आँच
का होना
जीवंत बनाता 
है उसे 
सार्थकता का
अहसास 
कराता है 
आँच पर 
तपकर ही 
कुंदन खरा 
उतरता है
फिर चाहे 
ज़िन्दगी हो 
या रिश्ते 
 या अहसास
आँच का होना
उसमे तपना ही
जीवन का
सार्थक प्रमाण
होता है
लकड़ियाँ
सुलगती 
रहनी चाहिए
फिर चाहे 
ज़िन्दगी की 
हों या 
दोस्ती की 
या रिश्ते की
मद्धम आँच
का होना 
जरूरी है
पकने के लिए
सार्थकता के लिए
अस्तित्व बोध के लिए

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

बस एक बार तू कदम बढाकर तो देख .........

ख्याल  : मजाक है क्या ये 
                   मुझे भी बता दो 
             अरसा हुए हँसे हुए
             चलो , मैं भी हँस लेती हूँ 
             हा हा हा ...........

हकीकत :ऐसा क्या हो गया ?
              रोज हँसा करो 
              मगर किसी के सामने नहीं 

  ख्याल:  तो फिर कहाँ ?

हकीकत :  अकेले में 

  ख्याल :  क्यूँ ?
           अकेले में तो 
           पागल हँसते हैं 
           क्या अब यही ख़िताब 
           दिलाना बाकी है
           याद को यूँ दबाना बाकी है 
           किसी दर्द को यूँ जगाना बाकी है 
           आखिर कैसे हँसूँ ?
           किस लीक का कोना पकडूँ 
           किस वटवृक्ष की छांह पकडूँ 
           कौन -सी अब राह पकडूँ
           बिना लफ्ज़ के कैसे बात करूँ
           ख़ामोशी भी डंस रही है 
           नासूरों सी पलों में बस गयी है 
           फिर कैसे अकेले में हँसे कोई?

हकीकत : ख़ामोशी भी पिघलने लगेगी
               यादें भी सिमटने लगेंगी 
               दर्द भी बुझने लगेंगे
               बस एक बार मुझे 
               गले लगाकर तो देख
               मुझे अपना बनाकर तो देख
               लबों पर मुस्कराहट भर दूँगा 
               तेरे ग़मों को अंक में भर लूँगा 
               बस एक बार मुझे  
               अपना बनाकर तो देख 
               चाहत का लिबास पहना दूँगा 
               तुझे तुझसे चुरा लूँगा
               तेरे साये को भी 
               अपना साया बना लूँगा
               बस एक बार मुझे 
               हमसफ़र बना कर तो देख
               मेरी चाहत को अपना
               बनाकर तो देख
               रंगों को दामन में
               सजाकर तो देख
               मोहब्बत की रेखा
               लांघकर तो देख
               हर मौसम गुलों सा
               खिल जायेगा
               चाँद तेरे आगोश में 
               सिमट जायेगा
               चाँदनी सी तू भी
               खिल जाएगी
               झरने सी झर- झर
               बह जाएगी
               बस एक बार तू
               कदम बढाकर तो देख .........

शनिवार, 20 नवंबर 2010

वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ

चाहे शोषित  करे कोई 
चाहे उपेक्षित भी होती हूँ 
मगर मन के धरातल पर
डटकर खडी रहती हूँ
संस्कारों की वेणी में जकड़ी

मन से तो मैं आज भी वही
पुरातन भारतीय नारी हूँ 


चाहे मानक रोज नए बनाती हूँ
अपनी सत्ता का आभास कराती हूँ 
मगर मन की अतल गहराइयों से तो
आज भी १८वीं  सदी की नारी हूँ 


चाहे आसमां को छू आऊँ 
अन्तरिक्ष में उड़ान भर आऊँ
पर पैर जमीन पर ही रखती हूँ 
अपने मूल्यों की थाती को 
ना ताक पर रखती हूँ
चाहे विचारों में समरसता हो 
चाहे भावों में एकरसता हो
मित्रता के आयाम बनाती हूँ
पर पुरुष मन में उठे भावों की
गंध पहचानती हूँ इसीलिए 
पर पुरुष की छाया का 
ख्वाबों में भी प्रवेश वर्जित है 
मैं ऐसी संस्कारों में जकड़ी नारी हूँ


चाहे कितनी आधुनिक कहलाती हूँ 
अधिकारों के लिए दुनिया से लड़ जाती हूँ
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों 
को भी खूब समझती हूँ 
तभी तो  मन से आज भी 
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ


वक्त पड़ने पर 
दृढ संकल्प शक्ति 
की बदौलत
चाहे दुर्गा बन जाऊँ
काली सा संहार करूँ 
लक्ष्मीबाई सी लड़ जाऊँ
मगर फिर भी मुझमें  बसती 
वो ही पुरातन नारी है 

जो बीज रोपित किये थे सदियों ने 
उन्ही से पोषित होती हूँ
इसीलिए कभी भी अपनी 
संस्कारों की ज़मीन नहीं खोती हूँ 
मैं आज भी संस्कारों के 
बीज रोपती हूँ  और 
संस्कारों की फसल उगाती हूँ
क्योंकि आज भी मन से तो मैं
वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

शायद मोहब्बत का भरम टूट जाए

आज तुम
बहुत याद आये
क्युं ?
नहीं जानती 
शायद 
तुमने पुकारा मुझे
तेरी हर सदा 
पहुँच  रही है 
मन के
आँगन तक 
और मैं
भीग रही हूँ 
अपने ही खींचे 
दायरे की 
लक्ष्मण रेखा में 
जानती हूँ
तड़प उधर भी 
कम नहीं
कितना तू भी
बेचैन होगा
बादलों सा 
सावन बरस 
रहा होगा
मगर ना 
जाने क्यूँ
नहीं तोड़
पा रही
मर्यादा के 
पिंजर को 
जिसमे दो रूहें 
कैद हैं 
 तेरी खामोश 
सदायें 
जब भी 
दस्तक देती हैं
दिल के 
बंद दरवाज़े पर
अन्दर सिसकता 
दिल और तड़प
जाता है 
मगर तोड़ 
नहीं पाता
अपने बनाये 
बाँधों को 
ये क्या किया 
तूने
किस पत्थर 
से दिल 
लगा बैठा
चाहे सिसकते 
सिसकते 
दम तोड़ दें
मगर 
कुछ पत्थर 
कभी नहीं
पिघलते
मैं शायद
ऐसा ही 
पत्थर बन 
गयी हूँ
बस तू 
इतना कर
मुझे याद 
करना छोड़ दे
शायद 
मोहब्बत का 
भरम टूट जाए 
और कुछ पल
सुकून के
तू भी जी जाए 

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

ख्वाब में ही सही .................

एक ख़त
उस अनदेखे 
अनजाने
प्यार के नाम 
जो सिर्फ 
ख्वाबों में 
ही आकार
ले पाया 
हकीकत का 
ना सामना 
कभी कर पाया
वो खामोश 
प्रेम जिसके
शाने पर सिर
रख हर गम
भूल जाऊँ 
जिस की पनाह 
में इक 
ज़िन्दगी जी जाऊं
जो मौन रहकर 
भी मुखर 
हो जाये 
देहयष्टि से परे
जहाँ भावों की
उद्दात तरंगें 
जलतरंग  सी 
बजने लगें
जहाँ "मैं"
मुझको भूल जाऊँ
 प्रेम की गागर 
में डूब जाऊँ
जज़्बात बिना 
कहे ही 
अरमानों की 
बानगी बयाँ 
करने लगें
नयन प्रेम की
मूक अभिव्यक्ति
को व्यक्त 
करने लगें
अधर बिना 
हिले ही
ऊष्मा का 
आदान- प्रदान 
करने लगें
धडकनें हवा के
रथ पर सवार हो
प्रियतम की
सांसों संग 
बजने लगें
और वो मौन की
भाषा पढने लगे 
मेरे अहसास संग
जीने लगे
बिना स्पर्श किये भी
हर बेचैनी
बेकरारी को
करार दे जाये
ख्वाब में ही सही 
बस एक बार 
वो प्रेम व्यक्त 
हो जाये

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

प्रेरणाएं कब जीवंत होती हैं ?

मै तो
धूल का कण हूँ
मत बना
माथे का तिलक
मिटना मेरी
किस्मत है
मै तो एक पल हूँ
मत बना
ज़िन्दगी का सबब

आकर गुजरना
मेरी फितरत है
ये सिर्फ़
किस्से किताबों
की बातें हैं
क्यूँ फ़ेर मे पडते हो
सबकी किस्मत मे
गुलाब नही होते
 

हकीकत मे तो
सभी खार होते हैं
कुछ चुभ जाते हैं
कुछ बच जाते हैं
 
और जो बच जाते हैं
वो ही उम्र भर
तडपाते  हैं
इसलिए
मत बना
आरती का दीया
बुझना मेरी
तहजीब है
मत बना
डोर पतंग की
कटना मेरी
नियति है  
मुझे
सिर्फ वो ही
बना रहने दे
जो मैं हूँ
क्या था

मुझमे ऐसा
जो किसी को

प्रेरित करे
मत बना
अपनी प्रेरणा 
तडपना तेरी 
किस्मत है 
तड्पाना मेरी 
आदत है 
मत बना 
अपनी आदत
ज़िन्दगी तेरी
मिट जाएगी
व्यूहजाल में 
फँस जाएगी
फिर उम्र भर ना 
निकल पायेगी
जहाँ मौत भी 
दगा दे जाएगी 
प्रेरणाएं कब 
जीवंत होती हैं ?

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

मैं और मेरी पीड़ा

मैं और मेरी पीड़ा
एक दूसरे के 
पर्याय बन गए हैं
पीड़ा मेरा निजी
अनुभव है
मेरे जीवन का
अवलंबन है
बिना पीड़ा के
मुझे अस्तित्वबोध
नहीं होता
अगर किसी दिन 
पीड़ा में कमी
आ जाये तो
एक शून्यता का
आभास होता है
अगर अपने निज को
सार्वजानिक कर दूं 
तो मुझमे मेरा
क्या बचेगा?
सार्वजानिक होने 
के बाद तो
रोज मेरी 
पीड़ा का 
चीरहरण होगा 
और मैं 
चौराहे पर
खडी खुद को
अस्तित्वविहीन 
महसूस करूंगी 
पीड़ा मेरा नितांत
निजी अनुभव है
अब पीड़ा को भी
पीड़ा होती है
अगर मुझे 
पीड़ा में 
डूबा ना देखे तो
कभी कभी तो
पता ही 
नहीं चलता
पीड़ा मुझमे है 
या पीड़ा ही 
बन गयी हूँ मैं

शनिवार, 6 नवंबर 2010

अब कैसे मेरे बिन जन्म बिताओगे ?

तुम्हें
क्या फर्क 
पड़ता है 
मैं रहूँ 
ना रहूँ
तुम्हारी 
ज़िन्दगी में
मैं हंसूं 
ना हंसूं
तुम्हें
अब फर्क
नहीं पड़ता ना
बस 
तुम तो 
अपने 
मन की
अँधेरी
गुमनाम

गलियों में
 गुम हो 
क्या फर्क 
पड़ता है 
अब तुम्हें
जब खुद 
से ही हमें 
जुदा कर दिया 
 तेरी 
बुत परस्ती 
की आदत ने
हमें रुसवा किया 
स्पर्श के
अहसास में 
अंकित मेरे 
वजूद को 
अब कैसे 
खुद में
समेटोगे 
तुम्हारी
अधूरी 
चाहत की 
पूर्णता 
अब कैसे 
पाओगे 
मेरे बिना 
इतने जन्म
के बाद के 
मिलन को
एक बार फिर
तुमने 
अगले कई 
युगों का
मोहताज़ 
बना दिया 
मेरे वजूद 
में जो तुम
अपना खुदा
तलाश रहे थे
मेरी साँसों 
में अपनी 
ज़िन्दगी 
जी रहे थे
कहाँ गया 
वो आखिरी
सांस तक
साथ जीने

 का वादा
कैसे अब

हर कसम 
निभाओगे 
अब तुम
जन्म जन्म
के लिए
फिर ना
भटक जाओगे
मुझे अपनी
ज़िन्दगी 
जन्मों के 
तप का 
फल मानने 
वाले
कहो
अब कैसे 
मेरे बिन 
जन्म बिताओगे ?

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

चलो दीप एक ऐसा जलायें ..........

चलो
दीप एक ऐसा जलायें
ह्रदय के सभी तम मिट जाएँ
लौ से लौ ऐसी जगाएं 
दीप माला नयी बन जाए 

कुछ तुम्हारे कुछ मेरे 
ख्वाब साकार हो जाएँ
तेरे मेरे की छाया से
ह्रदय मुक्त हो जाएँ
नवगीत लबों पर सज जायें 
आनंद चहूँ ओर छा जाए
हर घर आँगन सँवर जाए
भेदभाव सब मिट जाएँ
आलोकित पथ हो जाएँ
हृदयों में नव सृजन हो जाए
प्रेम रस के हम दीप जलाएं 
दिल की फिर बाती बनाएं 
जीवन सभी महक जाएँ 

चलो 
दीप एक 
ऐसा जलायें ..........

बुधवार, 3 नवंबर 2010

उसका दिनकर तो हमेशा के लिए अस्त हो गया

कभी इंतज़ार 
किया करती थी
रात 
चाँद की 
थाली में 
सितारों की 
कटोरियों में
सजाकर 
दिल के 
टुकड़ों को 
इक सुबह की 
आस में 
कि वो आएगा
और ले जायेगा 
सारी रात के 
बिखरे ,बेतरतीब
अहसासों की किरचों
को समेटकर
मगर वो 
अब नहीं आता 
रात के मुहाने पर 
नहीं देता 
कोई दस्तक
नहीं टूटता 
कोई तारा 
उसके नाम का 
तनहा रात का
हर कोना 
अब इंतज़ार के
दरख़्त पर
सूख रहा है 
वक्त की धूप में 
मगर उसका
दिनकर तो 
हमेशा के लिए 
अस्त हो गया
और रात
खडी है वहीँ 
उम्रभर के 
इंतज़ार के साथ 
एकाकी ,उदासी 
किसी विरहन 
की आँख का
मोती बनकर







सोमवार, 1 नवंबर 2010

कुछ यूँ दुनिया का क़र्ज़ उतारा जाए

चलो अच्छा हुआ
बातें ख़त्म हुयीं 
अब दुनियादारी 
निभाई जाये 
तुझे चाहते 
रहने की सज़ा 
एक बार फिर
सुनाई जाये
चाहतों की सजायें
अजब होती हैं 
बेगैरत फूलों 
की तरह
चलो एक बार
फिर किसी को
चाहा जाए 
कुछ इस तरह
ज़िन्दगी को
मौत से
मिलाया जाये 
यूँ ही नहीं 
मेघ से 
उमड़ -घुमड़ रहे 
इन अलावों को
फिर से 
जलाया जाये
इन रूह की
सीली लकड़ियों को
बुझे चराग से
जलाया जाए
इस सुलगते 
धुएं के
गुबार में 
चलो एक चेहरा
नया ढूँढा जाए
ज़िन्दगी के 
तौर तरीकों को
ताक पर रखकर
एक बार फिर से
चाहतों का ज़नाज़ा 
निकाला जाए
यूँ हसरतों को
रुसवा किया जाए
मौत से पहले 
मौत को
पुकारा जाए

एक बार
फिर से

रूह के
ज़ख्मों को
उबाला जाए
रूह की
खंदकों  में
उबलते लावे को
एक बार 
फिर से 
कढाया जाए
कुछ यूँ
दुनिया का 
क़र्ज़ उतारा जाए

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

घर से ऑफिस के बीच

घर से ऑफिस 
के लिए जब 
निकलता है आदमी
जाने कितनी चीजें 
भूलता है आदमी
घर से ऑफिस 
तक के सफ़र में
दिनचर्या बना 
लेता है आदमी
कौन से 
जरूरी काम 
पहले करने हैं
कौन सी फाइल 
पहले निपटानी है
किसका लोन 
पास करना है
किसका काम 
रोक कर रखना है
सारे मानक तय 
कर लेता है
साथ ही आज 
वापसी में
कौन से सपने
लेकर जाने  हैं
बीवी बच्चों के 
कामों की 
फेहरिस्त भी 
बना लेता है
आदमी
किसकी फीस 
जमा करवानी है
किसे डॉक्टर के 
लेकर जाना है
बेटी के लिए
लड़का ढूंढना है 
बेटे का एड्मीशन
करवाना है
किसे रिश्वत 
देकर काम 
निकलवाना है
हर काम के
मापदंड तय 
कर लेता है
आदमी
मगर इसी बीच
कुछ पल वो
भविष्य के भी
संजो लेता है 
कुछ पल अपनी
कल्पनाओं की
उडान को भी 
देता है आदमी
जब देखता है
किसी गाडी में 
सवार किसी 
परिवार के 
चेहरे पर 
खिलती 
मुस्कान को
या किसी 
आलिशान
मकान को 
या शौपिंग माल 
या मूवी देखने 
जाते किसी 
परिवार को 
तब वो भी
उसी जीवन की
आस संजो 
लेता है आदमी
खुशहाली का
एक बीज
अपने अंतस में
रोप लेता है 
आदमी
दुनिया की हर 
ख़ुशी की चाह में
कुछ सपने
सींच लेता है 
आदमी
बेशक पूरे 
हों ना हों
मगर फिर भी
वो सुबह कभी
तो आएगी 
इस चाह में 
एक जीवन 
जी लेता है 
आदमी
घर परिवार को
ख़ुशी देने की
चाह में
ख्वाबों की
उड़ान भर
लेता है आदमी 
उम्मीद की 
इस किरण पर
आस का दीपक 
जला लेता है 
आदमी
घर से ऑफिस 
के बीच 
ज़िन्दगी की 
जद्दोजहद से 
कुछ पल
स्वयं के लिए
चुरा लेता है
आदमी

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

मोहब्बत की ना कोई मिसाल होती है


कौन कहता है कि मोहब्बत की किताब होती है
ये तो दिल पर लिखी दिल की जुबान होती है

मोहब्बत तूने कौन सी जुबान में कर ली यारा
मोहब्बत तो हर जुबान में बेजुबान होती है

मोहब्बत के ये कैसे खेल खेल लिए तुमने
इस खेल में तो बस हार ही हार होती है  

जब इसकी महक़ फिजाओं में फैलती है यारा
तब मोहब्बत की दुल्हन भी बेनकाब होती है 

सुना है मौसम भी बदलते हैं रंग अपना
मगर मोहब्बत तो बेमौसम बरसात होती है


रंग कितने उँडेलो  जिस्म पर इसके 
ये तो मोहब्बती रंग का गुलाल होती है

तख्त-ओ-ताज के पहरों मे ना कैद होती है
ये तो किसी खास दिल की मेहमान होती है
 

मोहब्बत की ना कोई मिसाल होती है
ये तो हर युग मे बेमिसाल होती है


मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

जब आत्मिक मिलन हो जाए.............

यूँ तो 
करती हूँ 
हर साल
करवाचौथ 
का व्रत 
तुम्हारी 
लम्बी उम्र 
की दुआएँ 
करने का 
रिवाज़ मैं भी
निभाती हूँ 
हर सुहागिन 
की तरह
मगर फिर भी
कहीं एक 
कमी लगती है
एक कसक सी
रह जाती है
कोई अदृश्य 
रेखा बीच में
दिखती है
किसी अनदेखी

अनजानी
कमी की
जो डोर को
पूर्णता से
बाँध नही
पाती है
इसलिए 
चाहती हूँ
अगले 
करवाचौथ 
तक मैं
तुम्हें तुमसे
चुरा लूं
और तुम्हारे
ह्रदय 
सिंहासन पर 
अपना आसन
जमा लूं
जब तुम 
खुद को 
ढूँढो तो
कहीं ना मिलो
सिर्फ मेरा ही
वजूद  तुम्हारे
अस्तित्व का
आईना बन
चुका हो
जहाँ तुम 
मुझे और
मैं तुम्हें
सामाजिकता 
के ढांचे से 
ऊपर उठकर
व्यावहारिकता
की रस्मों से
परे होकर
एक दूजे के
हृदयस्थल 
पर अपने 
अक्स चस्पां
कर दें
तन के 
सम्बन्ध तो
ज़िन्दगी भर
निभाए हमने
चलो एक बार
मन के स्तर पर
एक नया
सम्बन्ध बनाएँ
जिस दिन
"तुम" और "मैं"
दोनों की चाह
सिर्फ इक दूजे
की चाह में
सिमट जाए
प्रेमी और 
प्रेयसी के 
भावों में
हम डूब जाएँ
राधा - कृष्ण 
सा अमर प्रेम
हम पा जाएँ
जहाँ शारीरिक
मानसिक
स्तर से 
अलग रूहानी
सम्बन्ध बन जाए
जहाँ तन के नहीं
मन के फूल
मुस्कुराएं
कुछ ऐसे 
अगली बार
अपनी 
करवाचौथ 
को अपने 
अस्तित्वों
के साथ संपूर्ण
बना जायें
और व्रत 
मेरा पूर्ण हो जाये
जब आत्मिक 

मिलन 
हो जाए
तब
सुहाग अमर 
हो जाये

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

हाँ , चैट कर लेती है

२१ वीं सदी की नारी है
 हाँ , चैट कर लेती है
तो क्या हुआ ?
बहुत खरपतवार 
मिलती है 
उखाड़ना भी
जानती है
मगर फिर
लगता है
बिना खरपतवार
के भी आनंद 
नहीं आता 
इसलिए
साथ- साथ 
अच्छी फसल के 
उसे भी झेल लेती है
२१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है

हर किसी से
हँसकर मिलती है 
तो सबको
अपनी लगती है
चाहे अन्दर से
गालियाँ देती है
मगर ऊपर से
स्वागत करती है
हर किसी को
इसका 
कोई ना कोई 
रूप भा जाता है 
कोई दोस्त 
तो कोई भाभी
तो कोई माँ 
बना जाता है
किसी को बहन की 
तलाश होती है
और सबसे ज्यादा 
बुरा हाल तो
 दिलफेंक 
प्रेमियों का
होता है
जो हर दूसरी
चैट पर 
मिलने वाली 
नारी में 
अपनी प्रेमिका 
खोजता है
कभी डियर
कभी डार्लिंग 
तो कभी 
लाइफ़लाइन
कहता है
मगर
कहते वक्त 
ज़रा नहीं सोचता 
जिसे तू
कह रहा है
वो तेरे बारे में
क्या सोचती है
तू भरम में जीता है
और वो खुश होती है
आज उसे 
ये लगता है
बरसों गुलामी 
की जिनकी
देखो आज कैसे 
दुम हिलाता है
पालतू जानवर- सा 
कैसे पीछे- पीछे 
आता है
सोच- सोचकर 
खुश होती है
और उसके 
अरमानों से खेलती है
हर बदला 
वो लेती है
जो वो सदियों से 
देता आया है
उसका दिया 
उसी को 
सूद समेत 
लौटा देती है
शायद 
इसीलिए इस 
खरपतवार को 
उखाड़ नहीं पाती है
कुछ इस तरह
आत्म संतुष्टि पाती है
ये २१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है
मगर अब
बेवक़ूफ़ नहीं बनती है

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

कोई नया विरह ग्रन्थ बन जायेगा ...............

एक अरसा हुआ
हमें बिछड़े 
ना जाने 
कौन से 
वो पल थे
कौन सा 
वो लम्हा था
जब हम 
जुदा हुए 
कुछ 
तुम्हारी
 बेलगाम 
चाहतें थीं 
कुछ मेरी 
मजबूरियां थीं
शायद तभी 
रिश्ते में 
दूरियां थीं
जरूरत से
ज्यादा 
दूजे को 
चाहना
भी 
कभी कभी
दुश्वारियां 
बढ़ा देता है
इच्छाओं को
पंख लगा 
देता है
और वो 
गुनाह हो 
जाता है
जो 
खुद भी
ना सह 
पाता है
अब सोचती हूँ
मुद्दत से
तुमसे बात 
नहीं की
तुम्हारे 
लिए कभी
कोई दर्द
नहीं उठा
तुम्हें देखे
तो ज़माने 
गुजर गए
शायद वक्त
की दीमक
सब चाट गयी 
फिर भी
अगर कभी
किसी मोड़ पर
तुम मुझे
मिल गए तो?
क्या वो 
अहसास फिर
जाग पाएंगे?
क्या तुम 
मुझसे 
नज़र 
मिला पाओगे?
क्या लम्हों
को कुछ 
पल के लिए
रोक पाओगे?
क्या अपनी 
कभी कुछ
कह पाओगे?
या फिर 
एक बार 
अपने गुनाह
के नीचे 
दबे प्यार को
उसका मुकाम
दे पाओगे ?
या मैं
तुम्हें
कभी माफ़
कर पाउंगी ?
नहीं जानती 
मगर इतना 
जानती हूँ
शायद 
वो पल जरूर
वहाँ ठहर 
जायेगा 
खामोशियों 
को भी 
मुखर 
कर जायेगा  
और कोई
नया 
विरह ग्रन्थ
बन जायेगा 



आज की ये रचना राजीव सिंह जी की फरमाइश पर लिखी है उनका कहना था पिछली पोस्ट पर कि यदि कभी मिल गए तो क्या होगा उस पर भी लिखिए.