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रविवार, 30 दिसंबर 2012

क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????


मेरी आत्मा
लाइलाज बीमारी से जकडी 
विवश खडी है इंसानियत के मुहाने पर
मुझे भी कुछ पल सुकून के जीने दो
लगा गुहार रही है इस नपुंसक सिस्टम से

मेरी सडी गली कोशिकाओं को काट फ़ेंको
ये बढता मवाद कहीं सारे शरी्र को ही 
ना नेस्तनाबूद कर दे 
उससे पहले 
उस कैंसरग्रस्त अंग को काट फ़ेंकना ही समझदारी होगी

क्या आत्मा मुक्त हो सकेगी बीमारी से 
इस प्रश्न के चक्रव्यूह मे घिरी 
निरीह आँखों से देख रही है 
लोकतंत्र की ओर
जनतंत्र की ओर
मानसतंत्र की ओर

क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

क्योंकि ………सब ठीक है

चलो क्रिसमस मनायें
नया साल मनायें
क्योंकि ………सब ठीक है
क्या हुआ जो किसी की दुनिया मिट गयी ………मगर मैं बच गया
क्या हुआ जो किसी का बलात्कार हुआ …………मगर मैं बच गया
क्या हुआ जो आन्दोलन बेअसर हुआ……………मेरा घर तो बच गया
क्या हुआ जो मै उनके साथ ना लडा ……………क्योंकि ये मेरी लडाई नहीं
क्या हुआ जो समाज बिगड गया ………………मगर मेरा तो कुछ ना बिगडा
क्या हुआ जो समयानुकूल ना कोई कदम उठा …………मैं तो घर पहुँच गया
क्या हुआ जो दोषारोपण हुआ …………मुझ पर तो ना इल्ज़ाम लगा
क्या हुआ जो व्यवस्था दूषित हुयी …………मगर मेरी इज़्ज़त तो बच गयी
जब तक मेरी ऐसी सोच रहेगी
मैं कहता रहूँगा …………सब ठीक है
और मनाता रहूँग़ा क्रिसमस नया साल उसी उल्लास के साथ
क्योंकि …………ऐसा कुछ ना मेरे साथ घटित हुआ
जब तक ये सोच ना बदलेगी
जब तक दूजे का दर्द ना अपना लगेगा
तब तक हर खास-ओ-आम यही कहेगा
सब ठीक है …………सब ठीक है

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

और कैसे होगा लोकतंत्र का बलात्कार ?


अब देखिये इस चित्र को और बताइये ये किस बर्बरता से कम है……कल को कहीं फिर से जलियाँवाला बाग कांड भी हो जाये तो कोई हैरानगी नहीं होगी







इसे क्या कहेंगे आप ?
पुलिस की बर्बरता या सरकार का फ़रमान या अनदेखी या लोकतंत्र का बलात्कार राजशाही द्वारा …………जहाँ न्याय की माँग करने पर पैरों से रौंदा जाता है ………धिक्कार है !!!!!!!!




बर्बरता शब्द भी आज रो उठा
देखा जो हाल इंडिया गेट पर
कैसा देश कैसा लोकतंत्र
ये तो बन गया कठपुतली तंत्र
सुना है कृष्ण ने उद्धार हेतु
किया था भौमासुर का संहार
और किया था मुक्त सोलह हजार को
वो भी तो दानव था ऐसा
जो बलात कन्या अपहृत करता था
उनको कृष्ण ने  न्याय दिया
राजा का धर्म निभा दिया
आज कैसे राजा राज करते हैं
जो बलात्कारियों को ही संरक्षण देते हैं
और विरोध करने वालों पर ही
अत्याचार करते हैं
सुना है जब अधर्म की अति होती है
तभी कोई नयी क्रांति होती है
इस बार जो बीज बोये हैं
फ़सल उगने तक इन्हें सींचना होगा
हौसलों को ना पस्त होने देना होगा
मेरे देश के बच्चों …कल तुम्हारा है
बस ये याद रखना होगा
जो कदम आगे बढे
उन्हें ना पीछे हटने देना होगा
फिर देखें कैसे ना तस्वीर बदलेगी
कैसे ना पर्वत से गंगा निकलेगी
बेशक आज अन्याय की छाती चौडी है
मगर न्याय की डगर से भी ना दूरी है
बस इस बार ना कदम पीछे करना
और इस देश के नपुंसक तंत्र को उखाड देना
बस न्याय मिल जायेगा
हर दामिनी का चेहरा गर्व से दमक जायेगा 


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

क्योंकि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते ...........

अब सिर्फ
लिखने के लिए
नहीं लिखना चाहती
थक चुकी हूँ
वो ही शब्दों के उलटफेर से
भावनाओं के टकराव से
मनोभावों का क्या है
रोज बदलते हैं
और एक नयी
परिभाषा गठित करते हैं
मगर लगता है
सब निरर्थक
रसहीन
उद्देश्यहीन सा
कोई कीड़ा रेंग रहा है
अंतस में चिकोटी भर रहा है
जो चाह रहा है
अपनी परिधि से बाहर आना
निकलना चाहता है
नाली के व्यास से बाहर
बनाना चाहता है
एक अलग मकां अपना
जिसमे
सिर्फ शब्दों के अलंकार ना हों
जिसमे सिर्फ
एकरसता ना हो
जिसमे हो एक नया उद्घोष
जिसमे हो एक नया सूर्योदय
अपने प्रभामंडल के साथ
अपनी आभा बिखेरता
और अपने लिए खुद
अपनी धरती चुनता हुआ
जिस पर रख सकूँ मैं अपने पैर
नहीं हो जिसकी जमीन पर कोई फिसलन
हो तो बस एक
आकाश से भी विस्तृत
मेरा अपना आकाश
जिसके हर सफे पर लिखी इबारत मील का पत्थर बन जाये
और मेरी धरा का रंग गुलाबी हो जाये

कोई तो कारण होगा
खामोश मर्तबान में मची इस उथल पुथल का
जरूरी तो नहीं अचार खट्टा ही बने
शायद
अब वक्त आ गया है देग बदलने का ................
यूँ तो धमनियों में लहू बहता ही रहेगा
और जीवन भी चलता रहेगा
मगर
अन्दर बैठी सत्ता ने बगावत कर दी है
क्योंकि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते ...........

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

पपडाए अधरों की बोझिल प्यास

सुनो
कहाँ हो ............?
मेरी सोच के जंगलों में
देखो तो सही
कितने खरपतवार उग आये हैं

कभी तुमने ही तो

इश्क के घंटे बजाये थे
पहाड़ों के दालानों में
सुनो ज़रा
गूंजती है आज भी टंकार
प्रतिध्वनित होकर

श्वांस  की साँय -साँय करती ध्वनि

सौ मील प्रतिघंटा की रफ़्तार से
चलने वाली वेगवती हवाओं को भी
प्रतिस्पर्धा दे रही है ..........

दिशाओं ने भी छोड़ दिया है

चतुष्कोण या अष्ट कोण बनाना
मन की दसों दिशाओं से उठती
हुआं - हुआं  की आवाजें
सियारों की चीखों को भी
शर्मसार कर रही हैं ........

क्या अब तक नहीं पहुंची

मेरी रूह के टूटते तारे की आवाज़ .........तुम तक ?

उफ़ ............सिर्फ एक बार आवाज़ दो

सांस थमने से पहले
जान निकलने से पहले 

धडकनों के रुकने से पहले
(पपडाए अधरों की बोझिल प्यास फ़ना होने से पहले )

ये इश्क के चबूतरों पर बाजरे के दाने हमेशा बिखरते क्यों हैं ............प्रेमियों के चुगने से पहले .........जानां !!

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

ओ राँझेया ............देख वे तेरी हीर दीवानी होयी !!!

भीगते मौसम की कराहटें
जैसे जिस्म की खाल में
कोई रेशमी बूंटे टाँग रहा हो
तेज़ाब में सुईयाँ डुबा डुबाकर …
देख ना कितनी खूबसूरत
कशीदाकारी हुई है
रोम- रोम पर पड़े फफोलों पर
तेरा नाम ही उभर कर आया है
अब कौन चीरे उन फोड़ों को
जिन पर महबूब का नाम उभरा हो
जीने का मज़ा तो अब आएगा
जब टीस में भी तेरा अक्स नज़र आएगा
मैंने मांग ली है दुआ रब से
ओ खुदा अब ना करना मुझे मेरे यार से जुदा
मोहब्बत में मिलन कैसे भी हुआ करे
बस यार का दीदार हुआ करे
देख ना मेरी मोहब्बत की इन्तेहाँ
सोचती हूँ ..............उन फफोलों पर
तेरे साथ अपना भी नाम अंकित कर दूं
एक बार फिर तेज़ाब में सुइयां डुबाकर
क्या हुआ जो एक बार फिर से
दर्द की बारादरियों से गुजरना पड़ेगा
तेरे नाम के साथ मेरा नाम तो जुड़ जाएगा
और दुनिया कहेगी
तेरे नाम पे शुरू तेरे नाम पे ख़त्म जिसकी कहानी हुयी
ओ राँझेया ............देख वे तेरी हीर दीवानी होयी !!!

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

जब इश्क ही मेरा मज़हब बना ………

आह! आज ना जाने क्या हुआ
धडकनों ने आज इक राग गाया है
बस इश्क इश्क इश्क ही फ़रमाया है
जो जुनून बन मेरे दिलो दिमाग पर छाया है
ये कोई असबाब या साया नहीं
बस इश्क का खुमार चढ आया है
इश्क को ही मैने अपना
मज़हब चुना है
तभी तो देखो
बंजारन बन कैसे अलख जगाती हूँ
और इश्क इश्क इश्क ही चिल्लाती हूँ
इश्क अन्दर जब उतरता है
सीसे सा पिघलता है
ना दर्द होता है
ना कोई अहसास होता है
बस मीठा मीठा सा सुरूर होता है
जिसमें तू और मैं हों जरूरी नहीं
क्योंकि
आज इश्क को खुदा बना लिया मैने
देख खुद को सूली पर चढा लिया मैने
जो दर्द उठा हुस्न के सीने में
अश्क इश्क की आँख से बह गये
मुकम्मल मोहब्बत में सराबोर
दो जिस्म इक जान हो गये………
अब बता और क्या तज़वीज़ करूँ
इश्क की और कौन सी माला जपूँ
जहाँ कुछ बचा ही नहीं
सिर्फ़ इश्क ने इश्क को आवाज़ दी
इश्क ही इश्क की दुल्हन बना
इश्क ने ही इश्क का घूँघट पल्टा
और इश्क ही इश्क में डूब गया
अब कौन कहाँ बचा
जिसका कोई सज़दा करे
ओ यारा मेरे……तभी तो
इश्क ही मेरी दीद बना
इश्क ही मेरी प्रीत बना
इश्क का ही मैने घूँट भरा
इश्क ही मेरा खुदा बना
अब और कौन सा नया मज़हब ढूँढूं
जब इश्क ही मेरा मज़हब बना
जब इश्क ही मेरा मज़हब बना ………

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

जानते हो ! प्रेम में कुछ शेष नहीं रहता …………

तुमने स्वीकारा अपना प्रेम
और छोड दिया एक प्रश्न
मेरी तरफ़ …मेरी स्वीकार्यता
मेरे जवाब का इंतज़ार
तुम्हारे लिये शेष रहा …………मगर
 
शेष रहा …………क्या?
प्रेम ? उसकी स्वीकार्यता
क्या तभी तक है प्रेम का अस्तित्व
जब तक ना हो जाये स्वीकार्य
सुनो …मैने तो सुना है
स्पन्दनों के तारों पर स्वंय प्रवाहित होता है प्रेम
बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये ………
जानते हो ! प्रेम में कुछ शेष नहीं रहता …………
ना तू्……… ना मैं
बस प्रेम मे तो बस प्रेम ही बचता है मिश्री की डली के स्वाद सा
जिसका कोई आकार नहीं , प्रकार नहीं मगर भासित होता है ………बस यही है मेरे लिये प्रेम

क्या अब भी जरूरत है तुम्हें

स्वीकार्यता के भाव की
क्या अब भी जरूरत है तुम्हें
शेष कहने की…………

क्योंकि

मैने तो सुना है
जहाँ शेष रहता है वहाँ प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है
और मैं जानती हूँ
तुम्हें प्रश्नचिन्ह पसन्द नहीं …………(एक आयाम ये भी होता है प्रेम में )

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

जरूरी तो नहीं देव उठाने की रस्म हमेशा मैं ही निभाऊँ ………

ना जाने किस नींद में सोयी थी
युग बीत चुके ……टूटी ही नहीं
ये कल्पनाओं के तकियों पर
ख्वाहिशों के बिस्तर पर
बेहोशी की नींद आना तो लाज़िमी था
मगर उस दिन हकीकत ने जो
ख्वाबों को आँखों से खीचा
सिर से पल्लू को हटाया
धडधडाती हुयी धरती पर गिर पडी
जब तुमने कहा …………
नहीं है ये तुम्हारा घर, बच्चे और संसार
नहीं है तुम्हारा कोई अधिकार
सिर्फ़ गृहिणी हो

ना स्वच्छंद बनो
बस नून, तेल और रोटी का ही 
हिसाब रखा करो
यही तुम्हारी नियति है
जीती रहो जैसे सब जीया करती हैं
क्या तुम्हारे लिये ही बंधन है
क्या तुम्हारे लिये ही जीवन दुष्कर है
क्या करोगी बाहर निकलकर
क्या करोगी इतिहास रचकर

कौन जानेगा तुम्हें
कौन पहचानेगा तुम्हें
ये सिर्फ़ सब्ज़बाग हैं
मन को बहलाने के ख्यालात हैं 
वापसी यहीं करनी होगी
क्योंकि
किस्मत में तुम्हारी तो फिर भी
सिर्फ़ चूल्हा , चौका और बर्तन हैं
नहीं जानती थी
समर्पण सिर्फ़ किताबी लफ़्ज़ हुआ करता है
प्रेम सिर्फ़ किताबों में ही मिला करता है

और गृहिणी का जीवन तो सिर्फ़
चूल्हे की राख सा हुआ करता है 
कितनी उडान भर ले
कितना खुद को सिद्ध कर ले 
मगर कुछ नज़रों में 
उनकी  उपलब्धियों का 
ना कोई मोल होता है
उनके लिये तो जीवन 
एक आखेट होता है
जहाँ वो ही शिकार होती हैं
तब बहुत विश्लेषण किया
बहुत सोचा तो पाया
यूँ ही थोडे बेसूझ साया हमारे जीवन में लहराया था
हाँ ………देव उठनी एकादशी
मै तो इसी ख्वाब संग जीती रही
मेरे देवता तो कभी सोयेंगे ही नहीं
क्योंकि
इसी दिन तो तुमने मुझे ब्याहा था
पता नहीं
मैं नींद में थी या तुम्हारे मोहपाश में बँधी मैं
देख नही पायी
तुम तो हमेशा अधसोये ही रहे
अपनी चाहतों के लिये जागते
मेरी ख्वाहिशों के लिये सोते
अर्धनिद्रित अवस्था को धारण किये
हमेशा एक मुखौटा लगाये रहे
और मैं
अपनी अल्हड ख्वाहिशों में
तुम्हारी बेरुखी का पैबन्द लगा
जीने का उपक्रम करती
भूल गयी थी एक सच
"सोये देवता भी एक दिन उठा करते हैं …………"




सुनो 

सोचती हूँ 
इस बार मैं सो जाती हूँ ………गहरी नींद में
अपनी चाहतों को परवाज़ देने के लिये 
और जब उठूँ तो 
क्या मिलोगे तुम मुझे इसी मोड पर ठहरे हुये
अपना हाथ मेरी ओर बढाते हुये
और शायद उस वक्त 
मेरा मूड ना हो हाथ पकडने का 
जागने का …………गहन निद्रा से


क्या तब भी देवता उठाने की रस्म परांत के नीचे 
प्रेम का दीया जलाकर 
प्रेम राग गाकर 
मुझे पुकार कर 
कर सकोगे …………सोचना ज़रा इस बार तुम भी 


क्योंकि 
मैने देवता उठाने की रस्म बंद कर दी है
और 
जरूरी तो नहीं देव उठाने की रस्म हमेशा मैं ही निभाऊँ ………

रविवार, 2 दिसंबर 2012

अब प्रश्नों के उत्तर के इंतज़ार में हूँ ............

आज अंतर्जाल ने अपनी उपयोगिता हर क्षेत्र में सिद्ध की है और आज इसी के माध्यम से कहीं ब्लॉग पर तो कहीं फेसबुक पर तो कहीं  ट्विटर पर न जाने कितने लेखक, कवि  , आलोचक एक दूसरे  से जुड़ गए हैं। आज जो अन्जान  रहते थे वो कहाँ कौन सी साहित्यिक गतिविधि हो रही है उसके बारे में एक पल में जान लेते हैं फिर चाहे देश हो या विदेश। क्या छोटा क्या बड़ा , क्या लेखक क्या कवि , क्या स्त्री क्या पुरुष सभी को इस माध्यम ने इस तरह जोड़ लिया है कि  एक छोटा सा परिवार बन गया है .

अंतर्जाल ने जहाँ ये सुविधा मुहैया करायी है उसी के साथ कुछ प्रश्न भी उठ खड़े हुए हैं। जैसा कि  कहा जाता है आज तो हर दूसरा इन्सान खुद को कवि  बताने लगा है बस शब्दों का जोड़ तोड़ किया और बन गए कवि । ऐसी आज विचारधारा बनने  लगी है। मगर इसी के साथ धीरे धीरे उन्ही के लेखन में परिपक्वता आने लगी जब कुछ दोस्तों का टिपण्णी के रूप में प्रोत्साहन मिलने लगा . उनका लेखन जिन्हें कभी नौसिखिया कहते थे वो सराहा जाने लगा और वो ही लेखन अपनी पहचान बनाने लगा यहाँ तक कि  इसी अंतर्जाल से आज उन्ही की रचनायें बिना उन्हें बताये पत्रिकाओं, अखबारों आदि में छपने लगीं। जिससे ये तो सिद्ध होता है कि  प्रतिभाओ की कमी नहीं बस पारखी नज़र की ही जरूरत है। मगर प्रश्न  यही से उठता है कि पारखी  नज़र कौन सी है? उसका उद्देश्य क्या है ?

क्योंकि  देखा जाये तो आज जिस तेजी से कवि , लेखक आदि का जन्म हुआ है उसी तेजी से किताबों  , पत्रिकाओ  आदि के छपने का धंधा भी फलने फूलने लगा है।

अब प्रश्न उठता  है कि  ऐसी पत्रिकाओं की प्रासंगिकता क्या है क्योंकि आज ज्यादातर पत्रिकाओं में लिखा होता है कि  साहित्य सृजन के उद्देश्य से कार्य हो रहा है जिसमे कोई पद वैतनिक नहीं है . प्रश्न  यहीं आकर अड़ता है कि  आज जब बड़े से बड़े प्रकाशन बिना अपना फायदा देखे किसी अंजान  का लेखन चाहे कितना ही सशक्त क्यों न हो उसे छापने  का जोखिम नहीं उठाते ऐसे में कैसे ये पत्रिकाएँ बिना किसी लाभ के लगातार छाप रही हैं , कैसे संपादक, उप संपादक आदि के पद अवैतनिक होते हैं? आखिर कोई कब तक बिना किसी आर्थिक लाभ  के निष्काम रूप से इतनी रचनाओं , कहानियों, आलेखों से माथापच्ची करके उन्हें एक सुन्दर सुगठित रूप दे सकता है क्योंकि ये कोई दो चार घंटे या एक दिन का काम तो है नहीं पूरा समय और परिश्रम  चाहिए तभी संपादन सफल हो पाता  है क्योंकि छोटी छोटी वर्तनी की त्रुटियाँ भी  पत्रिका की उपयोगिता पर प्रश्नचिंह खड़ा कर देती हैं दूसरी बात बिना पैसे के कोई क्यूँ कार्य करेगा क्या उसका घर परिवार नहीं है वो इतना वक्त इसमें बर्बाद क्यों करेगा जब तक उसे कोई आर्थिक लाभ नहीं दिखेगा।

अब आता है दूसरा प्रश्न कि  ये पत्रिकाएँ आज ज्यादातर तो दूसरों का लिखा मंगाकर छापती  हैं ही मगर कितनी ही बार ऐसा होता है कि  लेखक को बिना बताये उसकी कृति छाप देते हैं . चलो छापा  तो
छापा मगर क्या इनका इतना भी नैतिक दायित्व नहीं बनता कि  पत्रिका की एक -एक प्रति उन सभी लेखको को भेजें जिनके लेखन को इन्होने इसमें सम्मिलित किया है। कुछ पत्रिकाएँ  तो फिर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए वो बिना कहे ही भेज देते हैं मगर कुछ प्रकाशन आदि तो ऐसे होते हैं जो लेखक से ही कहते हैं कि  वो उसका सदस्य बन जाये फिर उसे पत्रिका भेज दी जाएगी आखिर ये कहाँ तक उचित है कि  तुम खुद तो लाभ उठाओ और  लेखक को पारिश्रमिक देना तो दूर की बात उसकी एक प्रति भी ना उपलब्ध करवाओ बल्कि उसे ही खरीदने के लिए फ़ोर्स करो .

अब सोचने वाली बात ये है कि  आखिर एक लेखक कितनी पत्रिकाओं  का सदस्य बने ? कहाँ कहाँ पैसे भेजे क्योंकि अगर उसका लेखन पसंद आ रहा है तो सभी चाहेंगे कि  वो मेरी भी पत्रिका में सहयोग दे तो ऐसे में वो कितना पैसा इसी में खर्चा करता रहे और हर महीने घर में रद्दी का ढेर लगाता  रहे चाहे उसमे उसकी रचना छपी हो या नहीं मगर पत्रिका तो हर महीने आएगी ही एक बार सदस्य बनने  के बाद और दूसरी बात यदि मना  करता है किसी को सदस्य
बनने से तो उसे कंजूस समझा जाता है या उसे छापना ही बंद कर दिया जाता है या कहा जाता है उसे कि  वो कुछ विज्ञापन आदि उपलब्ध करवा दे ,पत्रिका संकट में है और यदि वो नहीं करवा पाता  तो उसके लेखन आदि में ही दोष निकालना  शुरू करके उसे किनारे कर दिया जाता है मगर एक लेखक की मुश्किलों को कोई नहीं समझना चाहता . कुछ जगहों पर तो तीन से पांच साल की सदस्यता के लिए काफी मोटी  रकम मांगी जाती है और तभी उन्हें विशिष्ट स्थान दिया जायेगा और उन्हें विशिष्ट परिशिष्ट में छपा जाएगा की अनिवार्य शर्त सी होती है . तो ये कहाँ तक उचित है? ये कैसा लेखक का सम्मान है जो उसे खुद ही खरीदना पड़े?

जिस तरह से दायरा बढ़ा  है उसी तरह से प्रकाशन का भी दायरा
बढ़ा  है जो लेखक के लेखन को सिर्फ बाजारवाद की वस्तु बनाने पर तुला है। अब प्रश्न उठता है कि  जब आप कोई कार्य शुरू करते हो तो बिना उसका फायदा देखे तो नहीं करोगे न . हर इन्सान अपना आर्थिक फायदा चाहता है फिर चाहे प्रकाशक हो या लेखक। मगर आज प्रकाशक सबसे पहले यही कहते हैं कि  कोई फायदा नहीं हो रहा, प्रतियाँ बिक ही नहीं  रहीं तो प्रश्न उठता  है कि  जब बिक नहीं रहीं तो छप कैसे रही है? दूसरी बात बिक  नहीं रहीं तो आपके पास तो रद्दी का ढेर इकठ्ठा  हो जाना चाहिए तो ऐसे में क्यों नहीं कुछ प्रतियाँ  रचनाकारों को भेजी जायें निशुल्क ताकि वो अपने जानकारों को पढने को दें और उससे पढने वालों का दायरा बढे औरजो सच्चे साहित्य प्रेमी होंगे और उन्हें लिखा पसंद आएगा तो वो खुद संपर्क करके पत्रिका मंगवाना चाहेंगे तो इससे प्रचार - प्रसार तो होगा ही साथ ही बिक्री भी बढ़ेगी और शायद कहीं कहीं ऐसा होता भी हो मगर ज्यादातर प्रकाशन आदि का एक ही रोना होता है कि  बिकती नहीं है, नुकसान हो रहा है तो प्रश्न उठता है कि  यदि नुकसान हो रहा है तो आप उसे छाप ही क्यों रहे हैं? आखिर कोई कब तक नुक्सान उठा कर छापता  रहेगा? ऐसा साहित्य का साधक तो आज के अर्थमय संसार में मिलना बेहद मुश्किल है और होगा तो कोई विरला ही हर कोई नहीं फिर क्यों नहीं पूरी ईमानदारी से स्वीकारते कि  लाभ होता है मगर हम भावनाओं से खेलना जानते हैं या फिर यही हमारे काम  का तरीका है जो सभी को दिग्भ्रमित करता है .

ये कुछ  ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल होना जरूरी है क्योंकि आज अर्थवादी संसार  में लेखन, लेखक सब बिकते हैं सभी जानते  हैं मगर फिर भी एक हद तक ही, सब नहीं खासकर वो जो स्थापित हैं मगर जिन्होंने अभी अभी जन्म लिया है  वहां के लिए तो कम से कम कोई आचार संहिता तो होनी ही चाहिए लेखक और प्रकाशक के बीच  ताकि दोहन की सम्भावना ख़त्म हो जाये . दोनों में से कोई भी पक्ष खुद को ठगा हुआ न महसूस करे बल्कि लेखक को भी लगे कि  उसकी प्रतिभा का सही आकलन हुआ है साथ ही प्रकाशक भी संतुष्ट हो कि  उसने न्याय किया है .

प्रकाशक को ज्यादा नहीं तो कम से कम लेखक से पूछकर उसकी रचनायें छापनी चाहिए और अगर अर्थरूप में ना दे सके तो कम से कम उसकी प्रति तो जरूर उसे भेजनी चाहिए ताकि आपसी तालमेल बना रहे क्योंकि कोई भी प्रकाशक न लाभ न हानि  के सिद्धांत  पर ना तो कार्य करता है और न ही ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकता ये सर्वमान्य सत्य है .

हो सकता है ये सिर्फ मेरी सोच हो मगर जो आज तक देखा ,जाना और पाया उससे तो यही निष्कर्ष निकलता  है कि खुद   को स्थापित करने के लिए दूसरे  का शोषण करने की  बजाय पूरी ईमानदारी से कार्य किया जाए बिना किसी पर दबाव बनाये तो वो ही कार्य कल मील का पत्थर साबित होगा और अपनी उपादेयता सिद्ध करेगा। हो सकता है कुछ प्रकाशक या पत्रिकाएँ मुझसे नाराज हो जायें मगर ये प्रश्न मेरे ख्याल से हर उभरते लेखक के मन में जरूर उठते होंगे जिनका यथोचित उत्तर उन्हें मिलना ही चाहिए और यथोचित उत्तर सिर्फ पारदर्शिता से ही मिल सकता है . देखते हैं कितने प्रकाशक इसका सही उत्तर दे पाते हैं ?

मुझ  अल्प बुद्धि ने जैसा देखा जाना और पाया उसे आपके समक्ष रख दिया अब प्रश्नों के उत्तर के इंतज़ार में हूँ ..............