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मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

जरूरी तो नहीं देव उठाने की रस्म हमेशा मैं ही निभाऊँ ………

ना जाने किस नींद में सोयी थी
युग बीत चुके ……टूटी ही नहीं
ये कल्पनाओं के तकियों पर
ख्वाहिशों के बिस्तर पर
बेहोशी की नींद आना तो लाज़िमी था
मगर उस दिन हकीकत ने जो
ख्वाबों को आँखों से खीचा
सिर से पल्लू को हटाया
धडधडाती हुयी धरती पर गिर पडी
जब तुमने कहा …………
नहीं है ये तुम्हारा घर, बच्चे और संसार
नहीं है तुम्हारा कोई अधिकार
सिर्फ़ गृहिणी हो

ना स्वच्छंद बनो
बस नून, तेल और रोटी का ही 
हिसाब रखा करो
यही तुम्हारी नियति है
जीती रहो जैसे सब जीया करती हैं
क्या तुम्हारे लिये ही बंधन है
क्या तुम्हारे लिये ही जीवन दुष्कर है
क्या करोगी बाहर निकलकर
क्या करोगी इतिहास रचकर

कौन जानेगा तुम्हें
कौन पहचानेगा तुम्हें
ये सिर्फ़ सब्ज़बाग हैं
मन को बहलाने के ख्यालात हैं 
वापसी यहीं करनी होगी
क्योंकि
किस्मत में तुम्हारी तो फिर भी
सिर्फ़ चूल्हा , चौका और बर्तन हैं
नहीं जानती थी
समर्पण सिर्फ़ किताबी लफ़्ज़ हुआ करता है
प्रेम सिर्फ़ किताबों में ही मिला करता है

और गृहिणी का जीवन तो सिर्फ़
चूल्हे की राख सा हुआ करता है 
कितनी उडान भर ले
कितना खुद को सिद्ध कर ले 
मगर कुछ नज़रों में 
उनकी  उपलब्धियों का 
ना कोई मोल होता है
उनके लिये तो जीवन 
एक आखेट होता है
जहाँ वो ही शिकार होती हैं
तब बहुत विश्लेषण किया
बहुत सोचा तो पाया
यूँ ही थोडे बेसूझ साया हमारे जीवन में लहराया था
हाँ ………देव उठनी एकादशी
मै तो इसी ख्वाब संग जीती रही
मेरे देवता तो कभी सोयेंगे ही नहीं
क्योंकि
इसी दिन तो तुमने मुझे ब्याहा था
पता नहीं
मैं नींद में थी या तुम्हारे मोहपाश में बँधी मैं
देख नही पायी
तुम तो हमेशा अधसोये ही रहे
अपनी चाहतों के लिये जागते
मेरी ख्वाहिशों के लिये सोते
अर्धनिद्रित अवस्था को धारण किये
हमेशा एक मुखौटा लगाये रहे
और मैं
अपनी अल्हड ख्वाहिशों में
तुम्हारी बेरुखी का पैबन्द लगा
जीने का उपक्रम करती
भूल गयी थी एक सच
"सोये देवता भी एक दिन उठा करते हैं …………"




सुनो 

सोचती हूँ 
इस बार मैं सो जाती हूँ ………गहरी नींद में
अपनी चाहतों को परवाज़ देने के लिये 
और जब उठूँ तो 
क्या मिलोगे तुम मुझे इसी मोड पर ठहरे हुये
अपना हाथ मेरी ओर बढाते हुये
और शायद उस वक्त 
मेरा मूड ना हो हाथ पकडने का 
जागने का …………गहन निद्रा से


क्या तब भी देवता उठाने की रस्म परांत के नीचे 
प्रेम का दीया जलाकर 
प्रेम राग गाकर 
मुझे पुकार कर 
कर सकोगे …………सोचना ज़रा इस बार तुम भी 


क्योंकि 
मैने देवता उठाने की रस्म बंद कर दी है
और 
जरूरी तो नहीं देव उठाने की रस्म हमेशा मैं ही निभाऊँ ………

19 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर कविता...सच्ची भावनाएं जिससे कई आशना हैं.

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (05-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
    सूचनार्थ |

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  3. सुन्दर कविता...सच्ची भावनाएं

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  4. शायद हर तीसरी स्‍त्री की यही त्रासदी है कि‍ वो जीना चाहती है...उड़ना चाहती है पर मगर उसके पर बांध दि‍ए जाते हैं....बहुत सुंदर कवि‍ता

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  5. मनोभावों का अनुपम चित्रण किया है आपने ... आभार इस उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति के लिये

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  6. वाह वंदना....
    झकझोर देती हैं आपकी कवितायें....

    बहुत सुन्दर.
    सस्नेह
    अनु

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  7. भाव उभर आते हैं मन के
    मगर युग बदल रहा है
    बदल भी गया है
    यदि गाड़ी के दोनो पहियों
    ने समझ लिया होता है
    अपना अपना महत्व
    चलते हैं जग मे 'तन' के……
    "देवोत्थनी एकादशी" परब के माध्यम से
    हक़ीक़त का सुंदर चित्रण ……।

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  8. कल्पनाओं के तकिये पर
    ख्वाइशों के बिस्तर पर
    बेहोशी की नींद तो आना लाज़मी है—
    भावों को सुंदर शब्द-संयोजन में पिरोया है.

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  9. बहुत गंभीर विषय... बड़ी ही सरलता से नारी मन की व्यथा को शब्द दे देती हैं आप गहन भाव ...

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  10. दिल से लिखी गयी है ..और दिल तक पहुची भी

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आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं …………………अपने विचारों से हमें अवगत कराएं ………शुक्रिया