आज अंतर्जाल ने अपनी उपयोगिता हर क्षेत्र में सिद्ध की है
और आज इसी के माध्यम से कहीं ब्लॉग पर तो कहीं फेसबुक पर तो कहीं ट्विटर
पर न जाने कितने लेखक, कवि , आलोचक एक दूसरे से जुड़ गए हैं। आज जो
अन्जान रहते थे वो कहाँ कौन सी साहित्यिक गतिविधि हो रही है उसके बारे में
एक पल में जान लेते हैं फिर चाहे देश हो या विदेश। क्या छोटा क्या बड़ा ,
क्या लेखक क्या कवि , क्या स्त्री क्या पुरुष सभी को इस माध्यम ने इस तरह
जोड़ लिया है कि एक छोटा सा परिवार बन गया है .
अंतर्जाल ने जहाँ ये सुविधा मुहैया करायी है उसी के साथ कुछ प्रश्न भी उठ
खड़े हुए हैं। जैसा कि कहा जाता है आज तो हर दूसरा इन्सान खुद को कवि
बताने लगा है बस शब्दों का जोड़ तोड़ किया और बन गए कवि । ऐसी आज विचारधारा
बनने लगी है। मगर इसी के साथ धीरे धीरे उन्ही के लेखन में परिपक्वता आने
लगी जब कुछ दोस्तों का टिपण्णी के रूप में प्रोत्साहन मिलने लगा . उनका
लेखन जिन्हें कभी नौसिखिया कहते थे वो सराहा जाने लगा और वो ही लेखन अपनी
पहचान बनाने लगा यहाँ तक कि इसी अंतर्जाल से आज उन्ही की रचनायें बिना
उन्हें बताये पत्रिकाओं, अखबारों आदि में छपने लगीं। जिससे ये तो सिद्ध
होता है कि प्रतिभाओ की कमी नहीं बस पारखी नज़र की ही जरूरत है। मगर
प्रश्न यही से उठता है कि पारखी नज़र कौन सी है? उसका उद्देश्य क्या है ?
क्योंकि देखा जाये तो आज जिस तेजी से कवि , लेखक आदि का जन्म हुआ है उसी तेजी से किताबों , पत्रिकाओ आदि के छपने का धंधा भी फलने फूलने लगा है।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसी पत्रिकाओं की प्रासंगिकता क्या है क्योंकि आज
ज्यादातर पत्रिकाओं में लिखा होता है कि साहित्य सृजन के उद्देश्य से
कार्य हो रहा है जिसमे कोई पद वैतनिक नहीं है . प्रश्न यहीं आकर अड़ता है
कि आज जब बड़े से बड़े प्रकाशन बिना अपना फायदा देखे किसी अंजान का लेखन
चाहे कितना ही सशक्त क्यों न हो उसे छापने का जोखिम नहीं उठाते ऐसे में
कैसे ये पत्रिकाएँ बिना किसी लाभ के लगातार छाप रही हैं , कैसे संपादक, उप
संपादक आदि के पद अवैतनिक होते हैं? आखिर कोई कब तक बिना किसी आर्थिक लाभ
के निष्काम रूप से इतनी रचनाओं , कहानियों, आलेखों से माथापच्ची करके
उन्हें एक सुन्दर सुगठित रूप दे सकता है क्योंकि ये कोई दो चार घंटे या एक
दिन का काम तो है नहीं पूरा समय और परिश्रम चाहिए तभी संपादन सफल हो पाता
है क्योंकि छोटी छोटी वर्तनी की त्रुटियाँ भी पत्रिका की उपयोगिता पर
प्रश्नचिंह खड़ा कर देती हैं दूसरी बात बिना पैसे के कोई क्यूँ कार्य करेगा
क्या उसका घर परिवार नहीं है वो इतना वक्त इसमें बर्बाद क्यों करेगा जब तक
उसे कोई आर्थिक लाभ नहीं दिखेगा।
अब आता है दूसरा प्रश्न कि ये पत्रिकाएँ आज ज्यादातर तो दूसरों का लिखा
मंगाकर छापती हैं ही मगर कितनी ही बार ऐसा होता है कि लेखक को बिना बताये
उसकी कृति छाप देते हैं . चलो छापा तो छापा
मगर क्या इनका इतना भी नैतिक दायित्व नहीं बनता कि पत्रिका की एक -एक
प्रति उन सभी लेखको को भेजें जिनके लेखन को इन्होने इसमें सम्मिलित किया
है। कुछ पत्रिकाएँ तो फिर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए वो बिना कहे
ही भेज देते हैं मगर कुछ प्रकाशन आदि तो ऐसे होते हैं जो लेखक से ही कहते
हैं कि वो उसका सदस्य बन जाये फिर उसे पत्रिका भेज दी जाएगी आखिर ये कहाँ
तक उचित है कि तुम खुद तो लाभ उठाओ और लेखक को पारिश्रमिक देना तो दूर की बात उसकी एक प्रति भी ना उपलब्ध करवाओ बल्कि उसे ही खरीदने के लिए फ़ोर्स करो .
अब सोचने वाली बात ये है कि आखिर एक लेखक कितनी पत्रिकाओं का सदस्य बने ?
कहाँ कहाँ पैसे भेजे क्योंकि अगर उसका लेखन पसंद आ रहा है तो सभी चाहेंगे
कि वो मेरी भी पत्रिका में सहयोग दे तो ऐसे में वो कितना पैसा इसी में
खर्चा करता रहे और हर महीने घर में रद्दी का ढेर लगाता रहे चाहे उसमे उसकी
रचना छपी हो या नहीं मगर पत्रिका तो हर महीने आएगी ही एक बार सदस्य बनने
के बाद और दूसरी बात यदि मना करता है किसी को सदस्य बनने
से तो उसे कंजूस समझा जाता है या उसे छापना ही बंद कर दिया जाता है या कहा
जाता है उसे कि वो कुछ विज्ञापन आदि उपलब्ध करवा दे ,पत्रिका संकट में
है और यदि वो नहीं करवा पाता तो उसके लेखन आदि में ही दोष निकालना शुरू
करके उसे किनारे कर दिया जाता है मगर एक लेखक की मुश्किलों को कोई नहीं
समझना चाहता . कुछ जगहों पर तो तीन से पांच साल की सदस्यता के लिए काफी
मोटी रकम मांगी जाती है और तभी उन्हें विशिष्ट स्थान दिया जायेगा और
उन्हें विशिष्ट परिशिष्ट में छपा जाएगा की अनिवार्य शर्त सी होती है . तो
ये कहाँ तक उचित है? ये कैसा लेखक का सम्मान है जो उसे खुद ही खरीदना पड़े?
जिस तरह से दायरा बढ़ा है उसी तरह से प्रकाशन का भी दायरा बढ़ा
है जो लेखक के लेखन को सिर्फ बाजारवाद की वस्तु बनाने पर तुला है। अब
प्रश्न उठता है कि जब आप कोई कार्य शुरू करते हो तो बिना उसका फायदा देखे
तो नहीं करोगे न . हर इन्सान अपना आर्थिक फायदा चाहता है फिर चाहे प्रकाशक
हो या लेखक। मगर आज प्रकाशक सबसे पहले यही कहते हैं कि कोई फायदा नहीं हो
रहा, प्रतियाँ बिक ही नहीं रहीं तो प्रश्न उठता है कि जब बिक नहीं रहीं
तो छप कैसे रही है? दूसरी बात बिक नहीं रहीं तो आपके पास तो रद्दी का ढेर
इकठ्ठा हो जाना चाहिए तो ऐसे में क्यों नहीं कुछ प्रतियाँ रचनाकारों को
भेजी जायें निशुल्क ताकि वो अपने जानकारों को पढने को दें और उससे पढने
वालों का दायरा बढे औरजो सच्चे साहित्य प्रेमी होंगे और उन्हें लिखा पसंद
आएगा तो वो खुद संपर्क करके पत्रिका मंगवाना चाहेंगे तो इससे प्रचार -
प्रसार तो होगा ही साथ ही बिक्री भी बढ़ेगी और शायद कहीं कहीं ऐसा होता भी
हो मगर ज्यादातर प्रकाशन आदि का एक ही रोना होता है कि बिकती नहीं है,
नुकसान हो रहा है तो प्रश्न उठता है कि यदि नुकसान हो रहा है तो आप उसे
छाप ही क्यों रहे हैं? आखिर कोई कब तक नुक्सान उठा कर छापता रहेगा? ऐसा
साहित्य का साधक तो आज के अर्थमय संसार में मिलना बेहद मुश्किल है और होगा
तो कोई विरला ही हर कोई नहीं फिर क्यों नहीं पूरी ईमानदारी से स्वीकारते
कि लाभ होता है मगर हम भावनाओं से खेलना जानते हैं या फिर यही हमारे काम का तरीका है जो सभी को दिग्भ्रमित करता है .
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल होना जरूरी है क्योंकि आज अर्थवादी संसार
में लेखन, लेखक सब बिकते हैं सभी जानते हैं मगर फिर भी एक हद तक ही, सब
नहीं खासकर वो जो स्थापित हैं मगर जिन्होंने अभी अभी जन्म लिया है वहां के
लिए तो कम से कम कोई आचार संहिता तो होनी ही चाहिए लेखक और प्रकाशक के
बीच ताकि दोहन की सम्भावना ख़त्म हो जाये . दोनों में से कोई भी पक्ष खुद
को ठगा हुआ न महसूस करे बल्कि लेखक को भी लगे कि उसकी प्रतिभा का सही आकलन
हुआ है साथ ही प्रकाशक भी संतुष्ट हो कि उसने न्याय किया है .
प्रकाशक को ज्यादा नहीं तो कम से कम लेखक से पूछकर उसकी रचनायें छापनी
चाहिए और अगर अर्थरूप में ना दे सके तो कम से कम उसकी प्रति तो जरूर उसे
भेजनी चाहिए ताकि आपसी तालमेल बना रहे क्योंकि कोई भी प्रकाशक न लाभ न
हानि के सिद्धांत पर ना तो कार्य करता है और न ही ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकता ये सर्वमान्य सत्य है .
हो सकता है ये सिर्फ मेरी सोच हो मगर जो आज तक देखा ,जाना और पाया उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि खुद को स्थापित करने के लिए दूसरे का शोषण करने की
बजाय पूरी ईमानदारी से कार्य किया जाए बिना किसी पर दबाव बनाये तो वो ही
कार्य कल मील का पत्थर साबित होगा और अपनी उपादेयता सिद्ध करेगा। हो सकता
है कुछ प्रकाशक या पत्रिकाएँ मुझसे नाराज हो जायें मगर ये प्रश्न मेरे
ख्याल से हर उभरते लेखक के मन में जरूर उठते होंगे जिनका यथोचित उत्तर
उन्हें मिलना ही चाहिए और यथोचित उत्तर सिर्फ पारदर्शिता से ही मिल सकता है
. देखते हैं कितने प्रकाशक इसका सही उत्तर दे पाते हैं ?
मुझ अल्प बुद्धि ने जैसा देखा जाना और पाया उसे आपके समक्ष रख दिया अब प्रश्नों के उत्तर के इंतज़ार में हूँ ..............
अच्छा आलेख!
जवाब देंहटाएंसोचने को विवश करता हुआ!
मगर प्रश्न अनुत्तरित हैं...!
प्रकाशन एक मकड़जाल है. इस जाल में केवल मकड़ी ही घुस सकती है इसलिए इसमें घुसने के लिए पहले, बाकी कीड़े मकौड़ो को मकड़ी बनना पड़ता है वरना मकडजाल की झंडाबरदार मकड़ी ही उन्हें खा जाती है
जवाब देंहटाएं@काजल कुमार Kajal Kumar जी निसंदेह मकडजाल है मगर वो ही तो जानना है कि आखिर ऐसा क्यों किया जाता है?
जवाब देंहटाएंऐसा तो हमारे साथ भी हो चुका है। एक समाचार पत्र ने हमारी अनुमति से लेख छापा और प्रतियाँ देने का वादा किया। लेकिन आज तक प्राप्त नहीं हुई।
जवाब देंहटाएंप्रकाशन में कुछ तो गड़बड़ घोटाला है।
लेकिन हमारा कम तो बस लिखना है, यही सोच कर लिखते हैं। शोषण की तो सोचते ही नहीं।
@डॉ टी एस दराल जी शायद यहीं हम लोग गलती करते हैं कि सोचते नही ……बेशक लिखना हमारा कर्म है लेकिन शोषित भी नही होना चाहिये यूँ तो आये दिन हम सभी की रचनायें हमसे पूछे बगैर ना जाने कितनी जगह छप रही है और कोई हमे बताने वाला भी नही उसी के लिये ये बात कही है कि कम से कम लेखक को बताना तो चाहिये प्रकाशक को और एक प्रति भेजनी चाहिये क्या ये कोई बडी बात है अरे वो तो खुद उससे आर्थिक फ़ायदा उठा रहे हैं और लेखक को उसका सम्मान भी नही दे रहे लेखक ने पैसे की माँग तो नही की ना ………कम से कम ये तो सोचना ही चाहिये।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया प्रश्न आपने प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंहमने इस मन्डली मे वर्तमान मे यही देखते
हैं कि लेख पढ़कर प्रोत्साहित करने/सलाह देने की
बात तो दूर, 'व्यक्ति विशेष' की रचना पढ़ी तक
नही जाती। और जहां तक वित्तीय लाभ का
प्रश्न है, नो कमेंट्स्…।
सुन्दर बात
जवाब देंहटाएंसंक्रांति की बेला है, निष्कर्ष रुक कर आयेंगे।
जवाब देंहटाएंसटीक प्रश्न उठाए हैं .... कम से कम पत्रिका की प्रति तो भेजनी ही चाहिए :):)
जवाब देंहटाएंयहाँ तो लोग शुरू में इजाजत तो लेते हैं पर उसके बाद कुछ अता पता नहीं.देखने तक को नहीं मिलता लेख कई बार. बेचारे पाठक ही पढकर इत्तला करते हैं.
जवाब देंहटाएंइसी समस्या के रहते तो ब्लाग जगत का जन्म हुआ। इस दीवाली पर मैंने 1700 रु की रद्दी बेची है। रद्दी से ही कमा रहे हैं, हा हा हा हा।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे, होना तो यह चाहिए के इजाज़त ले कर छपे और मेहनताना दें.... अगर ऐसा भी नहीं कर पाते हैं तो कम से कम जानकारी तो देनी ही चाहिए, इससे नीचे तो नहीं चलना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसब फ्री का ढूढ़ रहे है !
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सोचने पर विवश करता आलेख हर क्षेत्र में हर कोई सिर्फ अपनी जगह बनाने की सोचता है दूसरों की भावनाओं को समझने की बात तो बहुत दूर है आपके इस विशेष आलेख को कल के चर्चा मंच में शामिल कर रही हूँ
जवाब देंहटाएंएक सुझाव है यदि हो सके तो ये पहल हम सब को मिलकर करनी चाहिए | एक ऐसा मंच तैयार होना चाहिए जो इसके खिलाफ आवाज उठा सके |
जवाब देंहटाएं@Vaneet Nagpal जी किसी भी बात को कहने का तभी औचित्य है जिसका सब पर असर पडे और यदि आपको ऐसा लगता है तो एक पहल तो की ही जानी चाहिये मगर प्रश्न है बिल्ली के गले में घंटी बाँधेगा कौन? यहाँ तो ऐसा है कि यदि आप नहीं तो दूसरा सही क्योंकि महासागर मे मछलियों की कमी नही है ये तो प्रकाशक और लेखक दोनो को ही मिलकर हल निकालना होगा तभीकुछ संभव हो सकता है। अगर आप कोई पहल करते हैं तो हम सब आपके साथ हैं ।
जवाब देंहटाएंशब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन,पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंवंदना एकदम सटीक बात उठाई है, ऐसा तो होता ही रहता है , कई बार अनुमति तो ले लेते हैं लेकिन कब छपा और कहाँ गया कुछ भी पता नहीं चल पता है . अपने पास भी इतना समय नहीं रहता है कि उनसे बार बार पूछें । बल्कि मेल के डिलीट होने के साथ ही सब भूल जाते हैं। पत्रिका भेजने का प्रावधान तो प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी है। आर्थिक लाभ न भी लें लेकिन प्रकाशित रचना का स्वरूप तो मिलाना ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंमेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है ,पत्रिका वालों ने पहले मुझसे सदस्यता शुल्क लिया और कहा कि अब आप की रचनाएँ छापी जाएँगी ,एक प्रति भेजने के बाद पत्रिका भेजनी बंद करदी ,पूछने पर पत्रिका का वार्षिक ..,द्विवार्षिक ..यानी जब तक पत्रिका चाहूँ तब तक का शुल्क माँगा गया यानि सदस्यता शुल्क अलग पत्रिका का शुल्क अलग। रचना छपे तो भी मुझे वो खास अंक खरीदना ही पड़ेगा .. में आपकी बातो से पूर्णत:
जवाब देंहटाएंहूँ
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है ,पत्रिका वालों ने पहले मुझसे सदस्यता शुल्क लिया और कहा कि अब आप की रचनाएँ छापी जाएँगी ,एक प्रति भेजने के बाद पत्रिका भेजनी बंद करदी ,पूछने पर पत्रिका का वार्षिक ..,द्विवार्षिक ..यानी जब तक पत्रिका चाहूँ तब तक का शुल्क माँगा गया यानि सदस्यता शुल्क अलग पत्रिका का शुल्क अलग। रचना छपे तो भी मुझे वो खास अंक खरीदना ही पड़ेगा .. में आपकी बातो से पूर्णत:
जवाब देंहटाएंहूँ