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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

स्वीकार करूँ मैं भी तुमको

अंगीकार किया जब तुमने
क्यूँ नही चाहा तब
स्वीकार करूँ मैं भी तुमको
जब बांधा इस बंधन को
गठजोड़ लगा था हृदयों का
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अंगीकार करूँ मैं भी तुमको
दान लिया था जब तुमने
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
वस्तु बना कर
कोई तुम्हें भी दान करे
सिन्दूर भरा था जब माँग में
वादे किए थे जब जन्मों के
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
मेरी उम्र भी दराज़ हो
तुम भी बंधो उसी बंधन में
जिसका सिला चाहा मुझसे
अर्धांगिनी बनाया जब मुझको
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
तुम भी अर्धनारीश्वर बनो
अपूर्णता को अपनी
सम्पूर्णता में पूर्ण करो
इक तरफा स्वीकारोक्ति तुम्हारी
क्यूँ तुम्हें आंदोलित नही कर पाती है
मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अपना वजूद पाना मुझमें
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको
स्वीकार करूँ मैं .......................

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

मोहब्बत ये तूने क्या किया

किसी ने ख्वाब भी बनाया
पलकों में भी बसाया
किसी के दिल की धड़कन भी बनी
ज़िन्दगी की आरजू भी बनी
उसे भी अपने दिल की धड़कन बनाया
उसके ख्वाबों को भी
अपनी आंखों में सजाया
उसकी हर चाहत को अपना बनाया
बस उसकी इक हसरत को
जो न अपनाया
उस इक कसूर की
सज़ा ये मिली
उसने भी
पलकों से गिरा दिया
धडकनों को भी
क़ैद कर दिया
बे-मुरव्वत मोहब्बत का
पाक गला भी घोंट दिया
इश्क के न जाने
कौन से मुकाम पर ले जाकर
शाख से टूटे पत्ते की मानिन्द
दर -दर भटकता छोड़ दिया
आह ! मोहब्बत ये तूने क्या किया

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

भावों के टुकड़े

कभी कभी
कुछ भावों को ठांव नही मिलती
जैसे चिरागों को राह नही मिलती

सर्द अहसासों से दग्ध भाव
जैसे अलाव दिल का जल रहा हो

कुछ भाव टूटकर यूँ बिखर गए
जैसे रेगिस्तान में पानी की बूँद जल गई हो

कुछ भावों के पैमाने यूँ छलक रहे हैं
जैसे टूटती साँसे ज़िन्दगी को मचल रही हों



गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

सिर्फ़ तू ही तू

कल शाम
जब पर्वतों के
साये में
बादलों के
दामन में
ख्यालों की
फसल पक रही थी
तेरी याद ने
दस्तक दी
अन्दर आने की
इजाज़त मांगी
मगर इजाज़त
देता कौन
कुछ ख्याल
तो मेरे
तेरे ख्यालों में
गुम थे
कुछ ख्याल मेरे
तेरे आगोश में
खो गए थे
ना मैं था वहां
ना मेरे ख्याल
सिर्फ़ तेरा ही
तो वजूद था
फिर ख़ुद से
कैसे इजाज़त
मांग रही हो

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

गुफ्तगू

सुरमई शाम ने झाँका बाहर
निशा दामन फैला रही थी
मिलन को आतुर दोनों सखियाँ
अपने पंख फैला रही थी
शाम का धुंधलका छाने लगा था
निशा का आँचल भी लहराने लगा था
पक्षियों का कलरव भी सो गया था
प्रकृति का दामन भी भिगो गया था
मिलन के इंतज़ार में
कदम आगे बढ़ रहे थे
खामोशी के साये
चहुँ ओर बढ़ रहे थे
कदम-ब-कदम ,धीरे-धीरे
निशा ने शाम का हाथ पकड़ा
सखियों के नैना मिले
कुछ गुफ्तगू हुई
आँखों ही आँखों में
और फिर
निशा ने शाम के हर पल पर
अपना साया फैला दिया
उसका हर हाल जान लिया
और अपने आगोश में
उसके हर दर्द को समेट लिया
इक नई सुबह होने तक............

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

बस एक बार ..................

तुम पुकार लो
एक बार
आवाज़ तो दो
मैं वक्त नही
जो वापस आ ना सकूं
मैं ख्वाब नही
जो फिर
देखा जा ना सकूं
तेरी इक आवाज़ पर
रस्मों के बंधन छोड़कर
रिवाजों की जंजीर तोड़कर
नदिया सी
उफनती ,मचलती
अपने सागर में समाने को
दौडी चली आउंगी
तुम एक बार पुकारो तो सही
दिल की कश्ती को
दरिया में उतारो तो सही
मैं वो लहर नही
जो वापस आ न सके
मैं वो डोर नही
जिसे तू सुलझा न सके
तेरे इक इशारे पर
तेरे गीतों के निर्मल धारे पर
पायल छनकाती
प्रीत का गीत गाती
तेरी सरगम की पुकारों पर
प्रेम रस बरसाती
इठलाती,बलखाती
आ जाउंगी
बस तुम एक बार
पुकारो तो सही
मुझे वापस
बुलाओ तो सही

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

भीगा हूँ बहुत

भीगा हूँ बहुत
अश्कों के बहते धारों में
डूबा हूँ बहुत
तेरे दिए दर्द के सैलाबों में


भटका हूँ बहुत
तेरी जुल्फों के गलियारों में बहका हूँ बहुत
तेरे रेशमीअहसासों में


बस बहुत हुआ
अब और न इम्तिहाँ ले
मत मार मुझे
यूँ याद में तडपा-तडपा कर


सिर्फ़ एक बार आकर
सीने पर खंजर चला दे
दिल के टुकड़े- टुकड़े कर दे

कि
जीने की आरज़ू पूरी हो जाए 
दिल की हर हसरत निकल जाए 
और 
मोहब्बत की यूँ नज़र उतर जाए

रविवार, 11 अक्टूबर 2009

तुम जीत गए ,मैं हार गई

दो विपरीत ध्रुवों सा
जीवन अपना
साजन यूँ ही बीत गयातुम अपने धरातल से
बंधे रहे
मैं अपने बांधों में
सिमटी रही
तुम वक्त के प्रवाह संग
बहते रहे
मैं वक्त के साथ
न चल सकी
तुमने पाया हर
स्वरुप मुझमें
मैं तुममें कृष्ण
न पा सकी
धूप छाँव के
इस खेल में साजन
तुम जीत गए
मैं हार गई

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

सफर निशा का

स्याह रात का तन्हा सफर
ज्यों प्रियतम बिन सजनी का श्रृंगार
किस मिलन को आतुर निशा
पल -पल का अँधेरा समेट रही है
भोर के उजास से मिलन को
क्यूँ विरह के पल गिन रही है
ये क्षण -क्षण गहराता अँधियारा
तन्हाईयाँ बढाता जाता है
निशा के गहरे दामन को
और गहराता जाता है
कौन बने तन्हाई का साथी
स्याह रात के स्याह सायों के सिवा
विरह अगन में दग्ध निशा
ज्यों बेवा नूतन श्रृंगार किए हो
प्रिय मिलन की आस में जैसे
विरहन का कफ़न ओढ़ लिया हो

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

मत छूना

मत छूना
रूह से भी कभी
मेरी रूह को
इस जनम में
मैं अमानत हूँ
किसी और की
तेरा प्यार नही
गैर हूँ तेरे लिए
मेरी पाकीजा रूह
तेरे रूहानी प्रेम के
लिए नही बनी
इस जनम तो
रूह की क़ैद से
आजाद करो
फिर किसी जनम में
शायद तेरे रूहानी
प्रेम की ताकत
मेरी रूह को पुकारे
और हमारी रूहें
उस जनम में
अपने रूहानी प्रेम की
प्यास बुझायें
उस पल तक प्रतीक्षा करो
और तब तक
मत छूना
रूह से भी कभी
मेरी रूह को