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मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

गुफ्तगू

सुरमई शाम ने झाँका बाहर
निशा दामन फैला रही थी
मिलन को आतुर दोनों सखियाँ
अपने पंख फैला रही थी
शाम का धुंधलका छाने लगा था
निशा का आँचल भी लहराने लगा था
पक्षियों का कलरव भी सो गया था
प्रकृति का दामन भी भिगो गया था
मिलन के इंतज़ार में
कदम आगे बढ़ रहे थे
खामोशी के साये
चहुँ ओर बढ़ रहे थे
कदम-ब-कदम ,धीरे-धीरे
निशा ने शाम का हाथ पकड़ा
सखियों के नैना मिले
कुछ गुफ्तगू हुई
आँखों ही आँखों में
और फिर
निशा ने शाम के हर पल पर
अपना साया फैला दिया
उसका हर हाल जान लिया
और अपने आगोश में
उसके हर दर्द को समेट लिया
इक नई सुबह होने तक............

20 टिप्‍पणियां:

  1. आजकल दो सखियों का मिलन धारा 377 के अन्‍तर्गत आ जाता है। हा हा हा हा। अच्‍छी रचना है, बधाई।

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  2. बहुत सुन्दर, दोनो वक्त के मिलन के प्राक्रितिक द्रिश्यो को प्रदर्शित करती आपकी कविता सचमुच बेहतरीन सन्देश को स्वयम मे समेटी मित्रता के एक नये पथ का मार्ग प्रशस्त करती प्रतीत होती है, काश लौकिक जीवन मे भी मानव इन प्राक्रितिक द्रिश्यो से कुछ सीख पाये , मेरे विचार से यही उद्देश्य इस कविता के पीछे कवियित्री का भी प्रतीत होता है.

    अपने आगोश में
    उसके हर दर्द को समेट लिया
    इक नई सुबह होने तक............

    बहुत सुन्दर
    बधाई

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  3. प्रकृति से साक्षात्कार दिलचस्प है जिसका जरिया दो सखियों की गुफ्तगू के रूप में हाजिर है। अच्‍छी रचना है, बधाई।

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  4. वाह सुन्दर अभिव्यक्ति!शानदार शब्द चयन!

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  5. शब्‍दों का सुन्‍दर प्रवाह।

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  6. सुरमई शाम ने झाँका बाहर
    निशा दामन फैला रही थी
    मिलन को आतुर दोनों सखियाँ
    अपने पंख फैला रही थी


    sundar , aabhaar aapkaa

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  7. Suramayee shaam aur anewalee nisha kee ke madhosh tasveer-see tair gayee aankhon ke aage..do dost /sakhiyan miltee hain to kitna kuchh hota hai kahne sunne ke liye..sang,sang ek adheerata bhee..

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  8. और फिर
    निशा ने शाम के हर पल पर
    अपना साया फैला दिया
    उसका हर हाल जान लिया
    और अपने आगोश में
    उसके हर दर्द को समेट लिया
    इक नई सुबह होने तक............

    बढ़िया लगी ये गुफ्तगू!
    हम तो समझे थे कि ये कोई गद्य होगा।
    मगर ये तो सुन्दर शुद्ध काव्य निकला।
    बधाई!

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  9. सुरमई शाम ने झाँका बाहर
    निशा दामन फैला रही थी
    मिलन को आतुर दोनों सखियाँ
    बहुत खूबसूरत मानवीकरण
    लाजवाब रचना

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  10. इक नई सुबह के लिये शुभकामनायें ।

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  11. निशा ने शाम के हर पल पर
    अपना साया फैला दिया
    उसका हर हाल जान लिया
    और अपने आगोश में
    उसके हर दर्द को समेट लिया.....

    समय भी कभी कभी निशा बन कर अपना दामन फैला लेता है और शाम के दुःख सिमट लेता है ........... लाजवाब भाव हैं इस रचना में ........... अच्छा लिखा है .....

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  12. सुरमई शाम ने झाँका बाहर
    निशा दामन फैला रही थी
    मिलन को आतुर दोनों सखियाँ
    अपने पंख फैला रही थी
    ba
    बहुत सुन्दर मगर वन्दना अजीत गुप्ता जी क्या कह रही हैं सुन लेना हा हा हा

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  13. सुरमई शाम ने झाँका बाहर
    निशा दामन फैला रही थी
    मिलन को आतुर दोनों सखियाँ
    अपने पंख फैला रही थी

    दिलचस्प....!!

    आजकल दो सखियों का मिलन धारा 377 के अन्‍तर्गत आ जाता है..... हा हा हा हा....!!

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