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सोमवार, 17 दिसंबर 2018

ईश्वर गवाह है इस बार ....

मुझे बचाने थे पेड़ और तुम्हें पत्तियां 
मुझे बचाने थे दिन और तुम्हें रातें 
यूँ बचाने के सिलसिले चले 
कि बचाते बचाते अपने अपने हिस्से से ही 
हम महरूम हो गए 

हो तो यूँ भी सकता था 
तुम बचाते पृथ्वी और मैं उसका हरापन 
सदियों के शाप से मुक्ति तो मिल जाती 

अब बोध की चौखट पर फिसले पाँव में 
कितने ही घुंघरू बांधो 
नर्तकी भुला चुकी है आदिम नृत्य 

ईश्वर गवाह है इस बार ....

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

मुझे ऊपर उठना था

मुझे ऊपर उठना था
अपनी मानवीय कमजोरियों से
आदान प्रदान के साँप सीढ़ी वाले खेल से

मैंने खुद को साधना शुरू किया
रोज खुद से संवाद किया
अपनी ईर्ष्या
अपनी कटुता
अपनी द्वेषमयी प्रवृत्ति से
पाने को निजात
जरूरी था
अपने शत्रुओं से दूरी बनाना
उनका भला चाहना
उनका भला सोचना

ये चाहना और सोचना संभव न था
सिर्फ मेरे लिए ही नहीं , किसी के लिए भी
मगर मेरी जिद ने
मुझमें रोंपे कुछ सुर्ख गुलाब संवेदना के
कि शहर से विस्थापित होने के लिए
करना ही होगा एक हवन
अपनी प्रवृत्तियों से मुक्त होने का
और शुरू हो गयी जिरह

मैं ही जज
मैं ही वकील
मैं ही मुजरिम
बहस के पायदान पर
जितनी बार आत्ममुग्धता की सीढ़ी चढ़ी
उतनी बार द्वेष के साँप से डंसा गया
जितनी बार सिर्फ अपने 'मैं' को पोषित किया
उतनी बाद आंतरिक विद्रोह से आहत हुआ
'खुद का खुद से संवाद कहीं ढकोसला तो नहीं' का जब आक्षेप लगा
व्याकुल चेतना फडफडा कर जमीन पर गिर पड़ी

फैसला एकपक्षीय मोहर के इंतज़ार में
आज भी
वटवृक्ष की छाँह में कर रहा है परिक्रमा

विषवमन ही अंतिम विकल्प नहीं किसी भी युद्ध का ...




रविवार, 9 दिसंबर 2018

उम्र के तीसरे पहर में मिलने वाले

ओ उम्र के तीसरे पहर में मिलने वाले
ठहर, रुक जरा, बैठ , साँस ले
कि अब चौमासा नहीं
जो बरसता ही रहे और तू भीगता ही रहे
यहाँ मौन सुरों की सरगम पर
की जाती है अराधना
नव निर्माण के मौसमों से
नहीं की जाती गुफ्तगू
स्पर्श हो जाए जहाँ अस्पर्श्य
बंद आँखों में न पलता हो
जहाँ कोई सपना
बस साथ चलने भर से तय हो जाता हो सफ़र
वहाँ जरूरी नहीं
उपासना के लिए गुठने के बल बैठना
और सजदा करना
गुनगुना उम्र की हर शाख को
हर पत्ते को
हर बेल बूटे को
कि महज यहीं रमण करती हैं
सुकून की परियाँ
और शब्द खो जाएँ सारे
किसी अनंत में उड़ जाएँ पंछी बन
सोचना जरा अब
मिलने का अर्थ
जीवन का अर्थ
तब
रूह और प्रकृति का नर्तन ही गूंजेगा दशों दिशाओं में
और मुकम्मल हो जायेगा सफ़र
एक अंतहीन मुस्कराहट के साथ
अंतिम यात्रा के श्लोक हैं ये .... याद कर लेना और गुनगुनाना
फिर हसरतों के पाँयचों में लटके घुँघरूओं की झंकार
हो जायेगी सुरीली इस बार ....




गुरुवार, 22 नवंबर 2018

कुछ_ख्याल_कुछ_ख्वाब

1
मेरे इर्द गिर्द टहलता है
कोई नगमे सा
मैं गुनगुनाऊं तो कहता है
रुक जरा 
इस कमसिनी पर कुर्बान हो तो जाऊँ
जो वो एक बार मिले तो सही
खुदा की नेमत सा
2
दिल अब न दरिया है न समंदर ...
तुम चीरो तो सही
शोख नज़रों के खंजर से
रक्स करती मिलेगी रूह की रक्कासा
उदासियों के उपवन में
3
आओ आमीन कहें
और मोहब्बत के ख्वाबों को एक बोसा दे दें
कि
रुख हवाओं का बदलना लाज़िमी है
4
न रास्ते हैं न ख्वाब न मंजिलें
कहो, कहाँ चलें
कि उम्र फ़ना हो जाए और मोहब्बत सुर्खरू
5
बिना किसी तालीम के हमने तो जी ली
कि
जो कायदों में बंधे
वो भला कैसी मोहब्बत

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

राम तुम आओगे

राम क्या तुम आ रहे हो 
क्या सच में आ रहे हो 
राम तुम जरूर आओगे 
राम तुम्हें जरूर आना ही होगा 
आह्वान है ये इस भारतभूमि का 

हे मर्यादापुरुषोत्तम 
मर्यादा का हनन नित यहाँ होता है 
करने वाला ही सबसे बड़ा बिगुल बजाता है 
तुम्हारे नाम का डंका बजवाता है 
ये आज का सच है राम 
कहो, कैसे करोगे स्थापित फिर से 
मर्यादा का कलश?
जब तुम्हारे नाम पर यहाँ 
रोज लूटे जाते हैं जन के मन 

हे राम 
आज हर मन एक अयोध्या है 
हर घर एक अयोध्या है 
कहो, कैसे हर मन औ घर में 
करोगे विचरण 
साधोगे लगाम 
जब हर मन और हर घर में 
रावण रक्तबीज से उगा है 

राम तुम आओगे 
तुम जरूर आओगे 
तुम्हें आना ही होगा 
हम कह रहे हैं सदियों से 
और कहते रहेंगे 
आगे भी सदियों तक 
यहाँ अब पाला पड़ा है संवेदनाओं पर 
निज स्वार्थ से वशीभूत है हर राग 
ऐसे में कैसे होगा तुम्हारा पदार्पण 
जब कंटकाकीर्ण है पथ 
इस बार घायल फिर तुम्हें ही होना होगा 

राम ये त्रेता नहीं है 
कलयुग है 
क्या सच में तुमने हर मन और घर में विराजित 
रावण का अंत कर दिया है ?
क्या सच में तुम दीपोत्सव के हकदार हो?
प्रश्न तो उछाले ही जायेंगे 
क्या सह पाओगे 
या दे पाओगे उत्तर ?

शायद नहीं दे पाओ कोई उत्तर 
देख , इस युग की दीन हीन दशा 
कलयुग में राम नहीं आते 
सिर्फ राम के आने की आस उपजाई जाती है 
और उसी आस पर रक्तपात कर हित साधे जाते हैं 
क्योंकि 
हर बार तुम आ जाते हो एक पुकार पर 
और फिर चले जाते हो हित सधने पर 
समीकरण दुरुस्त रहता है उनका 

राम तुम्हारे नाम का 'पुआ' दिखा 
जीत लिए जाते हैं देश 
ऐसे में तय करो 
किस तरफ होगा तुम्हारा पदार्पण 
क्योंकि 
आना तुम्हारी नियति है 
और तुम आओगे 
फिर छद्म रूप में ही सही 

क्या देख पाओगे उनका बनाया अपना छद्म रूप ?

देखो राम 
तुम्हारे आने पर सम्पूर्ण अयोध्या है जगमग 
हाँ, तो आ रहे हो न ?

तो क्या हुआ जो छद्मता है आज तुम्हारा पर्याय ...

सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

बुरा वक्त कहता है

बुरा वक्त कहता है
चुप रहो
सहो
कि
अच्छे दिन जरूर आयेंगे

सब मिटा दूँ, हटा दूँ
कि
आस की नाव पर नहीं गुजरती ज़िन्दगी

छोड़ दूँ सब कुछ
हो जाऊँ गायब
समय के परिदृश्य से
अपने दर्द की लाठी पकड़

फिर
वक्त खोजे मुझे और कहे
आओ न
मैंने संजोये हैं तुम्हारे लिए अच्छे दिन
तुम्हारे मनचाहे दिन
करो जो तुम करना चाहती हो
जियो जैसे जीना चाहती हो
हँसो जैसे हँसना चाहती हो
उडो जैसे उड़ना चाहती हो
और एक पूरी ज़िन्दगी जी जाऊँ मैं जीभर के
अपनी तमन्नाओं हसरतों और चाहतों का कोलाज बनाकर
सपना अच्छा है न ...
लड़की जो सिर्फ स्वप्न देखना ही जानती है बस

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

जिसकी लाठी उसकी भैंस की तरह

हुआ करते थे कभी
चौराहों पर झगडे
तो कभी सुलह सफाई
वक्त की आँधी सब ले उड़ी

आज बदल चुका है दृश्य
आपातकाल के मुहाने पर खड़ा देश
नहीं सुलझा पा रहा मुद्दे
चौराहों पर सुलग रही है चिंगारी
नफरत की
अजनबियत की
आतंक की
जाति की
धर्म की
फासीवाद की

गवाह सबूत और वायरल विडियो
हथियार हैं आज के समय में
घटनाओं को पक्ष या विपक्ष में करने के
फिर झगडे पैदा करना कौन सा मुश्किल काम है

अब तयशुदा एजेंडों पर होता है काम
मानक तय कर दिए जाते हैं
देखकर मौसम का रुख
सत्ता और कुर्सी के खेल में
चौराहे शरणस्थली हैं
जमा भीड़ स्वयम कर देती है हिसाब किताब

सुलह सफाई बदल चुकी है
जोर जबरदस्ती में
जिसकी लाठी उसकी भैंस की तरह

ये बदलते वक्त के साथ बदलते देश का नया मानचित्र है ...



मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

चौराहे हमारी आरामस्थली हैं

आजकल हम उस चौराहे पर खड़े हैं
जिससे किसी भी ओर
कोई भी रास्ता नहीं जाता

एक दिशाहीन जंगल में
भटकने के सिवा
जैसे कुछ हाथ नहीं लगता
वैसे ही
अब न कोई पथ प्रदर्शक मिलता
यदि होता भी तो
हम नहीं रहे सभ्य
जो उसकी दिखाई दिशा में बढ़ लें आगे

लम्पटता में प्रथम स्थान पाने वाले हम
आजकल ईश्वर को भी
कटघरे में खड़ा कर देते हैं
तो कभी
उसके मंदिर के लिए लड़ लेते हैं
ऐसे सयानों के मध्य
कहाँ है सम्भावना किसी पथ प्रदर्शक की

पथ आजकल हम बनाते हैं
और हम ही जानते हैं
कितने घर चलेगा इस बार घोड़ा अपने कदम
बदल चुकी है चाल
आज घोड़े के ढाई घर की
फिर किस रीत पर रीझ
कोई बनेगा पथ प्रदर्शक

आज प्रासंगिक हो या नहीं
तुम स्वयं ही तय कर लेना
तुम और तुम्हारे विचारों से किसी को क्या लेना देना
हाँ, नोटों पर चमकती तुम्हारी तस्वीर
तोडती है आज प्रासंगिकता के हर कायदे को
जिसके दम पर
पैदा कर लिए जाते हैं आज
चवन्नी चवन्नी में बिकने वाले पथ प्रदर्शक

और हम
न इस ओर होते हैं न उस ओर
हम एक मोहरे से खड़े हैं
राजनीति के चौराहे पर
जिन्हें दशा का ज्ञान है न दिशा का
फिर चलना या जाना
जैसी क्रियायों से कैसे हो सकते हैं अवगत

चौराहे हमारी आरामस्थली हैं



हम कौन हैं -----तुमसे बेहतर कौन जानता होगा बापू !!!

©वन्दना गुप्ता vandana gupta 

बुधवार, 26 सितंबर 2018

मुद्दा ये है, कि हम प्यार में हैं

न जाने किसके अख्तियार में हैं
मुद्दा ये है, कि हम प्यार में हैं

वो कह दें इक बार जो हमको अपना
हम समझेंगे उनके दिल-ओ-जान में हैं

अब पराई अमानत है न परायेपन का भरम
कमाई है दिल की दौलत बस इस गुमान में हैं

नज़र तुम्हारी उठे या हमारी गिरे
मुद्दा अब अंखियों के ईमान में है

नज़र भर देखने की मोहलत किसे
बंदगी तो अब रुख के हर आयाम में है