मुझे ऊपर उठना था
अपनी मानवीय कमजोरियों से
आदान प्रदान के साँप सीढ़ी वाले खेल से
मैंने खुद को साधना शुरू किया
रोज खुद से संवाद किया
अपनी ईर्ष्या
अपनी कटुता
अपनी द्वेषमयी प्रवृत्ति से
पाने को निजात
जरूरी था
अपने शत्रुओं से दूरी बनाना
उनका भला चाहना
उनका भला सोचना
ये चाहना और सोचना संभव न था
सिर्फ मेरे लिए ही नहीं , किसी के लिए भी
मगर मेरी जिद ने
मुझमें रोंपे कुछ सुर्ख गुलाब संवेदना के
कि शहर से विस्थापित होने के लिए
करना ही होगा एक हवन
अपनी प्रवृत्तियों से मुक्त होने का
और शुरू हो गयी जिरह
मैं ही जज
मैं ही वकील
मैं ही मुजरिम
बहस के पायदान पर
जितनी बार आत्ममुग्धता की सीढ़ी चढ़ी
उतनी बार द्वेष के साँप से डंसा गया
जितनी बार सिर्फ अपने 'मैं' को पोषित किया
उतनी बाद आंतरिक विद्रोह से आहत हुआ
'खुद का खुद से संवाद कहीं ढकोसला तो नहीं' का जब आक्षेप लगा
व्याकुल चेतना फडफडा कर जमीन पर गिर पड़ी
फैसला एकपक्षीय मोहर के इंतज़ार में
आज भी
वटवृक्ष की छाँह में कर रहा है परिक्रमा
विषवमन ही अंतिम विकल्प नहीं किसी भी युद्ध का ...
सुंदर रचना
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