पृष्ठ

रविवार, 31 मार्च 2013

क्या सुनी तुमने भी ?

लिखा उसने अपने पंखों पर अनहद नाद
और उड चली फ़डफ़डाते पंखों को
गिरने से पहले
कटने से पहले 
मिटने से पहले
कर दिया उसने अपना जीवन सम्पूर्ण 
देकर इक संदेश 
"प्रेम बिना जीना नाहीं "
और कटते रहे उसके पंख
बिखरता रहा संगीत 
हवाओं में , फ़िज़ाओं में
धरती में , आकाश में
बस गूँज रही है तभी से ये धुन अनहद नाद सी दशों दिशाओं में………क्या सुनी तुमने भी ?

बुधवार, 27 मार्च 2013

प्यार का रंग



प्यार का रंग
कभी तोते सा हरा
तो कभी उसकी 
लाल चोंच सा तीखा
मन को लुभाता है
सच में प्यार 
हर रंग में ढल जाता है
किसी को बैंगनी रंग में भी
आसमाँ दिख जाता है
तो किसी को स्याह रंग में
अपना श्याम नज़र आता है
किसी की चाहतों में 
नीले गुलाब मुस्काते हैं
तो किसी की स्वप्निल आँखों में
गुलाबी रंग मंडराता है
तो किसी को हर रंग में 
सिर्फ़ प्यार का इंद्रधनुष ही 
नज़र आता है
कोई अधरों पर पीली सरसों 
उगाता है
तो कोई धरा के धानी रंग में
अपने प्रेम की पींग बढाता है
सच तो ये है 
उन पर तो बस प्यार का रंग ही चढ जाता है
जो किसी भी तेल या साबुन से ना छुट पाता है
प्यार करने वालों को तो प्यार में हर रंग प्यार का ही नज़र आता है……………

सोमवार, 25 मार्च 2013

उजले चाँद की बेचैनी कितना बेचैन कर गयी





उजले चाँद की बेचैनी कितना बेचैन कर गयी कि कविता संग्रह बन गयी । विजय कुमार सपत्ति का पहला काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित इस बार के दिल्ली पुस्तक मेले में शामिल हुआ । पहला संग्रह मगर परिपक्वता से भरपूर प्रेम का ऐसा ग्रंथ है जहाँ प्रेयसी जैसे कवि की साँसों में , कवि के जीवन में, उसकी धडकन में , उसके रोम - रोम में बसी हो । कहीं प्रेम का अधूरापन कवि की बेचैनी बढाता है तो कहीं प्रेयसी से मिलन उसकी बेचैनी के फ़फ़ोलों पर एक फ़ाया सा रख देता है मानो चाँद के घटते - बढते स्वरूप का ही अक्स है उजले चाँद की बेचैनी जो हर पंक्ति , हर कविता में बयाँ हो रही हैं । पाठक को एक स्वनीले संसार में ले जाकर छोड देती है जिससे बाहर आने का मन ही नहीं होता।




मैं चादरें तो धो लेती हूँ 
पर मन को कैसे धो लूं 
कई जन्म जी लेती हूँ तुम्हें भुलाने में 
सलवटें खोलने से नहीं खुलतीं 
धोने से नहीं धुलती 

"सलवटों की सिहरन" शीर्षक ही रूह पर दस्तक देता प्रतीत होता है और जब आप उसे पढ़ते हैं तो जैसे आप , आप नहीं रहते सिर्फ एक रूह किसी ख्वाब की ताबीर सी अपने दर्द को जी रही मिलती है .



माँ गुजर गयी 
मुझे लगा मेरा पूरा गाँव खाली  हो गया 
मेरा हर कोई मर गया 
मैं ही मर गया 
इनती बड़ी दुनिया में , मैं जिलावतन हो गया 

गाँव से परदेस या शहर  में जाकर रहने की पीड़ा का मर्मान्तक चित्रण है "माँ" . कैसे जीवन जीने की एक भरपूर उड़ान भरने की आकांक्षा इंसान को उसके अस्तित्व को खोखला कर देती है और भूल जाता है कुछ समय के लिए अपने जीवन की अनमोल धरोहर कहे जाने वाले रिश्तों को मगर एक वक्त के बाद या उनके दूर जाने के बाद तब अहसास के कीड़े बिलबिलाते हैं तो दर्द से कचोटता मन खुद को भी हार जाता है .


"नई भाषा" कविता में कवि ने मोहब्बत की भाषा को जीया  है सिर्फ लिखना ही औचित्य भर नहीं रहा बल्कि मोहब्बत के पंछियों का अपना आसमान होता है जिसके सिर्फ वो ही बादशाह होते हैं ये बताया है तभी तो दर्द की इन्तहा है आखिरी पंक्तियों में 

बड़ी देर हुयी जानां 
तेरी आवाज़ में उस भाषा को सुने 
एक बार वापस आ जाओ तो बोल लूं तुमसे 

इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रेमिका का नाम ही प्रेमी के जीवन की सांस बन गया है मैं तेरा नाम लेता हूँ और अपनी तनहा रूह को चंद सांसें उधार देता हूँ 


मैं हर रात / तुम्हारे कमरे में / आने से पहले सिहरती रही 

"तुम्हारे कमरे में" कितना अपरिचित कर दिया सिर्फ इन तीन शब्दों ने एक स्त्री के अस्तित्व को जिसके लिए वो कभी अपना न बन सका , हमारा न बन सका , कितनी गहरी खायी होगी जिसे न जाने कितनी सदियाँ बीत  जाएँ पर पार नहीं कर सकेंगी इस बात का बोध करा दिया . यूं तो युग युगान्तरों  से स्त्री :एक अपरिचिता  ही रही है और पुरुष के लिए शोध का विषय और हमेशा रहेगी जब तक न उसकी दृष्टि अर्जुन सी होगी और नहीं भेदेगी पाँव के नीचे दबे उस पत्ते रुपी मन को स्त्री का अपरिचित का स्वरुप  ही उसके जीवन में पहेली बन कर सालता रहेगा .


प्रेमकथा जैसे एक सजीव चित्रण . प्रेम तो स्वयं में अपूर्ण होकर भी पूर्ण है तो प्रेमकथा में कैसे न निर्झरता बहेगी, कैसे न विरह का प्रेमगीत तान भरेगा, कैसे न व्याकुल पपीहा पीहू- पीहू करेगा। बस सिर्फ एक ज़िन्दगी नहीं , एक युग नहीं, जन्म जन्मान्तरों से भटकती प्यास को जैसे किसी ने शब्दों और भावों के फूल समर्पित किये हों और देवता के मुखकमल पर मधुर स्मित उभर आई हो और पूजा सफल हो गयी हो साक्षात दर्शन करके कुछ ऐसा ही भाव तो समेटे है प्रेमकथा .


मन की संदूकची में दफ़न यादें कैसे तडपाती हैं , कैसे गले मिलती हैं , कैसे दर्द को सहलाती हैं , कैसे ज़ख्मों की मरहम पट्टी करती हैं और फिर अपने साथ जीने को तनहा छोड़ जाती हैं . इस आलम में यदि किसी को जीना हो तो एक बार इन यादों के गलियारे से गुजर देखे , वापस आना नामुमकिन जान पड़ेगा .


जिस्म तो जैसे एक जलता अलाव हो और गलती से उसे छू लिया हो . शब्दों की बाजीगरी तो सभी करते हैं मगर कोई कविता की आत्मा में उतरा हो और जैसे खुद भोगा हो तब जाकर ऐसी कविता का जन्म हुआ कवि द्वारा ...........जो खुद से भी एक प्रश्न करता कटघरे में खड़ा करता है हर उस जीव को जो खुद को इंसान कहता है .

ज़ख्मों के घर , आंसू मौत , पनाह , पहचान  सर्द होठों का कफ़न ,कवितायेँ तो मोहब्बत की इन्तेहा है . लव गुरु के नाम से विख्यात कवि के भावुक मन की ऐसी दास्ताँ जो हम सबके दिलों के करीब से गुजरती हुयी कानों में सरगोशी करती है तो दिल में एक हलचल मचा  देती है . 

जिस्म का नाम  से क्या मतलब? एक सुलगती दियासलाई जो बता गयी मैं क्यों जली , किसे रौशन किया और फिर क्या मेरा अस्तित्व रहा ………अब चाहे कलयुग हो या त्रेता सुलगना नियति है हर किसी को राम नहीं मिला करते।

इंसान का कितना पतन हो चुका है इसका दर्शन करना है तो जानवर कविता उपयुक  उदाहरण होगी जो अपने नाम को भी सार्थक कर रही है . इंसान और जानवर के फ़र्क में कौन आज बाजी मार रहा है , क्या सच में इंसान, इंसान है? कुछ ऐसे प्रश्न जो मूक करने में सक्षम हैं।


सरहद हो या रिश्ते एक वाजिब प्रश्न उठाती कवितायेँ है 

कवि का भावुक मन प्रेम की प्यास से आकुल कैसे कैसे ख्वाब बुनता है और प्रेमिका को तो जैसे वो स्वयं जीता है तभी तो उसकी दीवानगी में उसका अक्स उसकी रूह में उतरता है . प्रेम और विरह की वेदना से सराबोर याद मोहब्बत , जब तुम  मुझसे मिलने आओगी प्रिये कवितायेँ अन्दर तक भिगो जाती हैं और कवि की कल्पना की नायिका को जैसे सामने खड़ा कर देती हैं शायद यही तो है एक सफल लेखक की पहचान की जो पढ़े ……उसी का हो ले .

सपना कहाँ लगता है सपना हकीकत का सा गुमान होता है जब कवि अपनी प्रेयसी से मिलने का खूबसूरत चित्र खींचता है जिसमें खुद की भी बेबसी और फिर खुद की भी चाहत को एक मुकाम देना चाहता है . ये एक कवि ही कर सकता है जहाँ प्रेम हो वहां सब कुछ संभव है यूँ ही थोड़ी प्रेम को जितना व्यक्त करो उतना अव्यक्त रहता है . 

दोनों इस तरह जी रहे थे अपने अपने देश में 
कि ज़िन्दगी ने भी सोचा 
अल्लाह इन पर रहम करे
क्योंकि वो रात दिन 
नकली हंसी हँसते थे और नकली जीवन जीते थे ........

ये पंक्तियाँ कहीं न कहीं हमें भी जोडती हैं कवि की उस कल्पना से । हमारी भी तो यही खोज है जिसकी चाह में जन्मों से भटकती प्यास है मगर आकार नहीं पाती और बढ़ता जाता है सफ़र ,अंतहीन सा ,एक ऐसी मंजिल को और जिसका पता होते हुये भी नहीं है .

दो अजनबियों का ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर मिलना , बिछड़ना औरफिर एक अंतराल के बाद फिर से मिलना किन किन अनुभूतियों को जन्म देता है , कितनी औपचारिकता शेष रहती है और कितना अपनत्व उसी का समीकरण है मर्द और औरत कविता में , जो सदियों से या कहों जबसे सृष्टि बनी तभी से एक ऐसे रेगिस्तान में भटक रहे हैं जहाँ थोड़ी दूर पर पानी का गुमान होता है जो किसी मरीचिका से इतर नहीं होता . फिर भी चाहतों के आकाश पर प्रेम के पंछी दो घडी में ही एक जीवन जी जाते हैं . जन्मों की भटकी प्यास को मिटा जाते हैं बिना किसी स्पर्श के सिर्फ अहसासों में जी जाना और प्रेम को मुकाम देना ये भी एक आयाम होता है मर्द और औरत होने का गर यदि इन्हें  सिर्फ वासनात्मक दृष्टिकोण से ही न देखा जाए . 

इस काव्य संग्रह का अंत जैसा होना चाहिए वैसा ही है , प्रेम से शुरू कविता , प्रेम में भीगा जीवन कभी तो अलविदा लेता ही है और यही किसी संग्रह की सफलता है् कि एक एक पायदान पर पैर रखते हुए प्रेम आगे बढ़ता है, अपने मुकाम तय करता है जहाँ प्रेम अपनी शोखियों के साथ जवान होता है फिर उदासियों और पहरों के जंगलों में भटकता आगे बढता है , कभी दर्द कभी विरह वेदना की असीम अनुभूतियों से जकड़ा अपने प्रेम को शाश्वतता की ऊंचाई पर ले जाकर अलविदा लेता है जहाँ शरीर से परे सिर्फ आत्माओं का विलास रूहों का गान होता है जिसे कोई प्रेम का पंछी ही सुन सकता है और गीत गुनगुना सकता है . 

सम्पूर्ण काव्य संग्रह ज़िन्दगी की पहली और अंतिम चाह "प्रेम" की पिपासा का चित्रण है जो मानव की आदि प्यास है और उसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे मानव के ह्रदय की एक एक ग्रंथि पर कवि की पकड़ है जो उसे अन्दर तक भिगोती है और पाठक कल्पना के संसार से बाहर आना ही नहीं चाहता्। एक ऐसी ही दुनिया बसाने की उसकी चाह उसे बार - बार इन कविताओं को पढने को प्रेरित करती है और यही किसी भी लेखक के लेखन की सबसे बड़ी सफलता है . यदि आपके बुक शेल्फ में ये प्रेमग्रंथ नहीं है तो आप महरूम हैं प्रेम के महासागर में गोते लगाने से और यदि आप इसे प्राप्त करना चाहते हैं तो बोधि प्रकाशन से या विजय सपत्ति से संपर्क कर सकते हैं जिनका पता मैं साथ में दे रही हूँ ।

 कवि को इस संग्रह के लिए उसकी भावनाओं को मुखरता प्रदान करने के लिए कोटिशः बधाइयाँ . वो प्रेम के नए आयाम छुए और इसके भी आगे प्रेम को नयी ऊँचाइयाँ देते हुए आगामी संग्रह निकाले यही कामना है . 



सम्पर्क सूत्र :

BODHI PRAKASHAN
F-77, SECTOR --9
ROAD NO. 11
KARTARPURA INDUSTRIAL AREA
BAAIS GODOWN
JAIPUR...302006



VIJAY KUMAR SAPATTI 
FLAT NO -402 , FIFTH FLOOR
PRAMILA RESIDENCY 
HOUSE NO -36-110/402, DEFENCE COLONY 
SAINIK PURI POST 
SIKANDRABAD -94 (ANDHRA PRADESH )

M: 91-9849746500
EMAIL: vksappatti@gmail.com

शनिवार, 23 मार्च 2013

दिल में होली जल रही है .......................

जिस भी रंग को चाहा 
वो ही ज़िन्दगी से निकलता रहा 

लाल रंग .......... सुना था प्रेम का प्रतीक होता है 

बरसों बीते 
खेली ही नहीं 
बिना प्रेम कैसी होली 
उसके बाद तो मेरी हर होली ........बस हो ..........ली !!!

दहकते अंगारों पर 
अब कितना ही पानी डालो 
कुछ शोले उम्र भर सुलगा करते हैं 

दिल में होली जल रही है .......................

मंगलवार, 19 मार्च 2013

मैं बालिग हूँ …………किसलिये ?

कभी कभी कुछ बातें समझ से परे होती हैं या कहो उन्हें समझ से परे बना दिया जाता है क्योंकि बनाने वालों को ही उसका सही औचित्य समझ नहीं आता फिर चाहे समाज की जिजीविषा का प्रश्न ही क्यों न हो , उसके सम्मान का प्रश्न ही क्यों न हो और इसी सन्दर्भ में हमारे देश के कर्णधार न जाने क्यों सोच और समझ को ताक  पर रखकर किसी भी मुद्दे को अलग ही नज़रिए से देखने पर तुले रहते हैं और उसी सन्दर्भ में सेक्स की उम्र को घटाने और बढ़ने पर बवाल मचा  रखा है जबकि होना तो ये चाहिए कि  कोई बालिग किस उम्र में होता है . दूसरी बात यदि बालिग होने की उम्र १ ६ करो तो भी खतरा है क्योंकि स्त्री शरीर इजाज़त ही नहीं देता  यौन सम्बन्ध स्थापित करने की यदि चिकित्सीय दृष्टि से देखा जाये तो फिर कैसे बालिग होने या यौन सम्बन्ध स्थापित करने की उम्र १ ६ की जाए और यदि कर भी दी जाए तो इससे क्या समाज में गलत सन्देश नहीं जाएगा कि १ ६ की उम्र हो गयी अब हमें छूट है हम जो चाहे कर सकते हैं फिर इसके लिए चाहे हम मानसिक रूप से परिपक्व हों या नहीं , शारीरिक रूप से सक्षम हों या नहीं, या ज़िन्दगी की जिम्मेदारियां उठाने के लिए भी सक्षम हैं या नहीं क्योंकि यदि यौन समबन्ध स्थापित करने की इजाज़त दे दी जाएगी तो विवाह भी फिर जल्दी होने लगेंगे कुछ लोग तो इसका फायदा जरूर उठाने लगेगे जो किसी भी दृष्टि से सही नहीं है  ............बाल विवाह की रोकथाम क्यों की गयी कभी सोचा है ? यही कारण  था छोटी उम्र में विवाह होना और शारीरिक रूप से सक्षम न होने पर भी मातृत्व के बोझ को झेलना तो क्या अब भी यही नहीं होगा ? १ ६ की उम्र तक स्त्री शरीर इस योग्य होता ही नहीं कि वो ये सब झेल सके और हमारे यहाँ तो उसे खुलेआम सेक्स की इजाज़त दी जा रही है कानून बनाकर क्या इससे समाज में स्वस्थ सन्देश जायेगा ? क्या नौजवान पीढ़ी इसका सही अर्थ समझ पायेगी कि किस सन्दर्भ में और कैसे इसका उपयोग करना चाहिए ?ये तो यूँ होगा कि आप समाज में सेक्स को खुलापन देने की इजाज़त दे रहे हैं मगर ये नही समझ रहे हैं कि इसका असर क्या होगा? बस कानून बना दो उसके परिणाम और दुष्परिणाम मत देखो . कभी १ ६ को सही कहते हैं कभी १ ८ को मगर चिकित्सक से नहीं पूछते कि क्या सही है और क्या गलत ? 

होना तो ये चाहिए की सिर्फ बालिग होने की उम्र का ही पैमाना तय किया जाये और सेक्स की इजाज़त यदि देनी भी है तो उसकी तय सीमा बढाई जानी चाहिए . बालिग होने के अर्थ को ज्यादा स्पष्ट किया जाना चाहिए . बालिग होने के अर्थ को सेक्स से न जोड़ा जाये बल्कि देश और समाज को देखने और समझने के नज़रिए से जोड़ा जाये , अपने निर्णय लेने की क्षमता से जोड़ा जाये न कि यौन सम्बन्ध स्थापित करने से तब जाकर एक नया दृष्टिकोण स्थापित होगा और सोच में कुछ परिवर्तन संभव होगा . नहीं तो इस तरह उम्र को घटाते  रहो और सेक्स की इजाज़त देते रहो तो क्या फर्क रह जायेगा पहले की आदिम सोच और आज में या कहो बाल विवाह जैसी कुरीति को दूसरे  नज़रिए से देखने में ? 

ये एक वृहद् विषय है जिस पर हर पहलू से ध्यान देना जरूरी है न कि आनन् फानन कानून बनाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली जाए और अपनी पीठ थपथपा ली जाए कि हमने बहुत बड़ा काम कर दिया . क़ानून ऐसा हो जिसका डर  हो , जिसकी महत्ता को हर कोई समझे और सहर्ष स्वीकारे .

क्या सेक्स सम्बन्ध स्थापित करना ही बालिगता को प्रमाणित करता है ? अब जरूरत है इन दोनों बातों को अलग - अलग देखने की एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये गर ऐसा नहीं हुआ तो ये तो बलात्कारियों को एक लाइसेंस तो देगा ही साथ ही ना जाने कितने छुपे वेशधारियों को स्त्री शोषण का अधिकार दे देगा कि 16 या 18 की उम्र थी बालिग थी तो सहमति से सेक्स किया और एक बार फिर मानवता शर्मसार होती दिखेगी .

मैं बालिग हूँ …………किसलिये ? यौन सम्बन्ध स्थापित करने के लिये या निर्णय लेने के लिये ………प्रश्न आज के सन्दर्भ में ये विचारणीय है ।

मैं बालिग हूँ यानि निर्णय लेने में सक्षम हूँ अपनी ज़िन्दगी को सही दिशा देने के , वोट देने का सही अर्थ समझने के और अपने कर्तव्यों का सही निर्वाह करने के मगर यौन सम्बन्ध स्थापित करने और उसे ज़िन्दगी भर निभाने के लिये अभी मुझे और परिपक्व होना है और अपने को इस लायक बनाना है ताकि जीवन सही ढंग से गुजार सकूँ जब तक ये मानसिकता नहीं पनपेगी या कहो ऐसी मानसिकता का प्रचार नहीं होगा तब तक उम्र को घटाने - बढाने का ना कोई औचित्य होगा । 

रविवार, 17 मार्च 2013

सफ़र में पगडंडियाँ भी हुआ करती हैं

उम्मीद तो नहीं थी कि इतनी जल्दी ये पुस्तक पढ लूँगी और इस पर अपने विचार भी रख दूँगी क्योंकि सिर्फ़ दो दिन पहले ही पुस्तक मिली है मगर आज मौका ऐसा मिला कि 4-5 घंटे खाली व्यतीत करने थे तो ये ही रख ली साथ में और पढती चली गयी । पढने के बाद दिल ने कहा जो गुना है उसे लफ़्ज़ों में भी अभी पिरो दिया जाये क्योंकि बाद मे शायद वो अहसास रहें ना रहें और उसी का नतीजा है कि और किताबें अभी पढ ही रही हूँ और जो सबसे आखिर में आयी है उसी का नम्बर पहला हो गया ……तो चलिये मेरी नज़र से पगडंडी के इस सफ़र पर 

जीवन एक ऐसा सफ़र है जिसमें नही मालूम किन राहों से गुजरना  होगा और कैसे कैसे मोड़ आयेंगे . उन्ही राहों से गुजरते कभी तीखे तो कभी संकरे मोड़ आते हैं तो कहीं कहीं किसी बड़ी राह पर पहुँचने के लिए छोटी छोटी पगडंडियों से गुजरना पड़ता है क्योंकि जरूरी नहीं सभी को खुला सीधा सपाट रास्ता ही मिले फिर सीधे रास्ते पर चलते जाने में ज़िन्दगी नीरस सी होने लगती है अगर उसमे उतार चढ़ावों की, दुःख सुख की ,अपनेपन और विश्वास की तो कभी अकेलेपन और अवसाद की पगडंडियाँ न हों और उन्ही भावों को 28 कवियों ने पगडंडियों में समेटा है जिसका संपादन रंजू भाटिया, मुकेश कुमार सिन्हा और अंजू चौधरी ने किया है .

ज़िन्दगी सिर्फ खोने का नाम नहीं , ज़िन्दगी सिर्फ पाने का नाम नहीं फिर चाहे सपनों की बेल कितनी ही सजायी जाए व्याकुल मानवता हार ही जाती है जब बदगुमानी का अहसास होता है . कितना ही रोष हो कभी तो कहीं तो उतरेगा ही किसी न किसी माध्यम से फिर दामिनी प्रकरण हो या ज़िन्दगी की कशमकश . ज़िन्दगी और रिश्तों की पगडण्डी पर चलते कहीं चिनार झूमते मिलेंगे तो कहीं किसी सरहद पर कोई किसी के इंतज़ार में भीगा . यकीन के रिश्तों को तराजू पर तोलती ज़िन्दगी अनकही बातें कहती किसी समर का शंखनाद करती सी प्रतीत होती है . कोई महामानव नहीं आता किसी उदबोध के साथ । कामना के दीप कितने जलाओ त्रिशंकु का जीवन विभीषणी नीतियों का शिकार होने से नहीं बच पाता. सुबह का अख़बार सच बोलता डराता है , पन्ने पलटने से मन डरता है क्योंकि बहुत कठिन है डगर पनघट की उस खामोश लड़की के लिए जो नहीं जानती इस प्रेम को क्या नाम दूं और पिया मिलन की आस में कोई मासूम खाली बर्तन सा नेह और चित की विभीषिका में पाप और पुण्य का फैसला नहीं कर पाता .

अनुभोतियों का महासागर लहलहा रहा है तभी तो कवि को गुब्बारों में भी अंतर दिख रहा है ज़िन्दगी को कौन कैसे लेता है मुख पर अंकित हो जाता है ………सकारात्मक या नकारात्मक . सबके लिए हर वस्तु का अपना महत्त्व है फिर केवल एक पृष्ठ की बात ही क्यों न हो . कोई हाल-ए-दिल बयां करता है तो कोई नारी या पुरुष की दास्ताँ , कोई उम्मीद की कश्ती पर सवार होता है तो कोई ज़िन्दगी की जद्दोजहद में मन की बात भी नहीं कह पता क्योंकि मोहब्बत हो या इंसान या उसका ईमान इनका कोई अर्थशास्त्र नहीं होता फिर चाहे कोई कितने ही जिज्ञासा के पहाड़ बना ले जान ही नहीं पाता जाने कैसा था वो मन . कुछ व्यक्तित्व फ़ना होने से पहले पी जाना चाहते हैं वोडका का शाट बनाकर अपनी मोहब्बत को .......इन्तहा यही तो है मोहब्बत की तो दूसरी तरफ़  एक आवाज़ उस लड़की की जो लड़कों से प्रतिस्पर्धा करती है वो भी ख्यालों की सेज पर फिर चाहे खिड़की की झिर्रियों से झांकते हुए अहसासों की सत्य बेहद रपटीली क्यों ना हो कैनविस पर तो चढ़ते सूरज की तस्वीर ही उभरा करती है 

ज़िन्दगी श्वेत श्याम रंगों का समावेश ही तो है कब बेबसी, व्याकुलता के दंश दे दे और कब प्रियतम का दीदार करा दे पता नहीं चलता और मुसाफिर बढ़ता जाता है . किसी का नाम लिखकर तो मिटाया जा सकता है मगर दिल से मिटाना नामुमकिन होता है फिर चाहे कितना ही अस्थि कलश प्रवाहित करो पता नहीं कर सकते अस्थियों से उसके लिंग का , वर्ण का . यूं तो इंसान चाँद को छू चूका है मगर मन की उड़ान का पार पाना  संभव कहाँ सिर्फ एक आह व्यथित कर देती है और सिर्फ एक गुजारिश रिश्ते में कभी गर्दो गुबार तो कभी उल्लास के कँवल भर देती है अनिश्चितता की पगडंडियाँ भी एक सीमा पर आकर रुक जाती हैं क्योंकि और भी राहे होती हैं जीवन में अंतिम सच की फिर मुंबई बम ब्लास्ट से आतंकित चेहरे हों या भुक्तभोगियों की पीड़ा का आकलन संभव नहीं . फिर भी भूली बिसरी यादों की किताब में सब दर्ज हो जाता है बिछड़ना क्या है उसकी पीड़ा क्या है और कोशिश की पगडण्डी पर साँसों को हारते सफ़र तो तय करना ही पड़ता है क्योंकि सांसें कभी पुरानी नहीं होतीं जैसे वैसे ही ज़िन्दगी सिर्फ एक हस्ताक्षर से जुड़ जाती है और बना देती है वो राहों को जोड़ने वाला पुल जिसके हर कण में तुम हो का अहसास काबिज़ रहता है क्योंकि देखा है अक्सर पाना और खोना का खेल जिसमे बिना पाए भी सब खो जाता है फिर टूटी फूटी ज़िन्दगी को कितना सहेजने की कोशिश करो यादों की दुल्हन तो दरवाज़े की ओट से सिसकती ही मिलेगी क्योंकि रिश्तों की जब स्व-मौत होती है तो लावा रिसना बेमानी नहीं क्योंकि सर्दी की शाम भी तब तक सुहानी नहीं लगती जब तक किसी अपने का ऊष्मामयी साथ न हो उसके स्पर्श का अहसास न हो और रिश्तों की पगडण्डी पर सबसे अहम् रिश्ता माँ का होता है जो हो या न हो हमेशा आस पास ही रहता है मगर दर्द के अहसासों को रौंदता लैंड क्रूज़र का पहिया सोचने पर विवश करता है आखिर इंसानियत की कोई पगडण्डी क्यों नहीं होती . 

२8 कवियों की भाव रश्मियों को यूँ तो चंद लफ़्ज़ों में सहेजा नही जा सकता फिर भी कोशिश की है उन भावों को आप तक पहुँचाने की ताकि आप भी इन पगडंडियों के उतार चढावों से गुजर सकें और महसूसें उन अहसासों को जो हर कवि के अन्तर्मन मे खलबली मचा रहे हैं, बाहर आने को आतुर हैं अपनी मंज़िल पर पहुँचने को बेचैन हैं , हर रचना अंतस को भिगो देती हैं . हर पगडण्डी से गुजरते अहसास जब मन पर दस्तक देते हैं तो उनमे अपना ही  चेहरा तो दीखता है . अरे ! ये तो मैं ही हूँ , मैं भी तो गुजरा हूँ और गुजर रहा हूँ इन्ही पगडंडियों से और बस सफ़र पूरा होने तक जारी रहता है और इसी तरह इन सबका सफर जारी रहे और अपनी मंजिल तक पहुंचे इसी कामना के साथ अपने लफ़्ज़ों को विराम देती हूँ ।कहीं मीठे भीने से अहसास हैं तो कहीं ज़िन्दगी की तल्खियाँ , चोटें तो कहीं रुसवाइयाँ कौन सा पक्ष है ज़िन्दगी का जो ना छुआ गया हो , कौन सी पगडंडी ऐसी है जिससे ज़िन्दगी ना गुजरी हो । मैने तो बस सिर्फ़ कुछ कविताओं के नामो और भावों को ही इसमे सहेजा है वरना तो पूरा संग्रह ही जैसे ज़िन्दगी की एक किताब है जिसे हर कोई पढना चाहेगा । ना जाने कितनी ही पंक्तियाँ , कितने ही भाव ऐसे हैं जिन्हें बार बार गुना जाये , उन्हें जीया जाये, उनसे एक वार्तालाप किया जाये मगर सबको उद्धृत करना तो संभव नहीं और फिर आपके पढने के लिये क्या रह जायेगा यदि मैं ही यहाँ सब बता दूँगी इसलिये अगर उन भावों के सागर मे गोते लगाने हैं तो उतरना तो खुद ही पडेगा। 

संपादक त्रय को बधाई जो उन्होंने इतनी मेहनत और लगन से सभी कवियों की रचनाओं को सहेजा और काव्य संकलन के रूप में एक बेशकीमती तोहफा पाठकों को दिया । अगर आप भी पढने को उत्सुक हैं तो 
एक भावनाओं से लबरेज़ संग्रहणीय संस्करण  हिन्द युग्म पर ............आपकी प्रतीक्षा में

हिन्द युग्म 
१, जिया सारे 
हौज़ खास 
नयी दिल्ली .........१ १ ० ० १ ६ 
sampadak!hindyugm.com
M: 9873734046
9968755908


ये संकलन  infibeam.com या ebay.in पर भी उपलब्ध है 

सोमवार, 11 मार्च 2013

ओस में नहायी औरतें

ओस में भीगी औरत
औरत नही होती
होती है तो उस वक्त
सिर्फ़ एक नवांगना
तरुणाई मे अलसाई
कोई धवल धवल
चाँदनी की किरण
अपने प्रकाश से प्रकाशित करती
सृष्टि के स्पंदनों का
एक नव उपादानों का
सृजन करती हुयी
मगर क्षण भंगुरता है
उसका ये जीवन
ओस कितनी देर ठहरती है पत्तों पर
बस एक ताप ………और वाष्पित होना
उसकी नियति …………
मगर ओस में नहायी औरतें नहीं होतीं वाष्पित
गंध महकती है उनके पसीने से भी
वाष्पीकरण फ़ैला जाता है हवा में हर कण
ओस मे नहायी औरतों का …………
और बन जाता है इंद्रधनुष
बिना बारिश और बिना धूप के …………
ओस मे नहायी औरतों के इन्द्रधनुष उम्र भर महका करते हैं …………यादों में गुलाब बनकर

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

आज क्या खास है?

आज क्या खास है?
मेरी तो वो ही सुबह हुयी
वो ही दोपहर वो ही सांझ
हर रोज की तरह ……
कहाँ तस्वीर बदलती है
घर में , परिवार में, समाज में?
सिर्फ़ काले अक्षरों में ही
ज्यादा कूद फ़ाँद होती है
वरना तो औरत रोज की तरह
वो ही नित्य कर्म करती है
एक मजदूर स्त्री हो या कामवाली बाई
हो हाउसवाइफ़ या वर्किंग वूमैन
वक्त और हालात से
रोज की तरह ही लडती है
फिर कैसे कह दें कि
एक दिन सोलह श्रृंगार करने से ही
पिया के मन में बसती है
या कैसे कह दें तस्वीर बदलती है
क्योंकि जानती है
चोंचलों के लिये कौन अपना वक्त ज़ाया करे
और भी गुनाह बाकी हैं अभी करने के लिये ……………
 
 
दूसरा ख्याल 
 
महिला दिवस हो तो महिला गुणगान होना चाहिये

कर्तव्य पालन का कुछ तो बोध होना चाहिये

फिर चाहे कल को दुत्कारी जाये फ़टकारी जाये

आज तो उसको पूजित होना चाहिये

ये है आज का नज़रिया हमारे समाज का

मगर किसी ने ना चाहा जानना

आखिर चाहती है वो क्या ?

उसकी चाहना बस इतनी सी

उसकी उडान बस इतनी सी

उसका आसमान बस इतना सा

नहीं बनाओ देवी या पूज्या चाहती हूँ बस इतना
मानो मुझे भी इंसान और जीने दो ससम्मान

गुरुवार, 7 मार्च 2013

कर्त्तव्य च्युत दस्तावेज इतिहास की धरोहर नहीं होते


रश्मि प्रभा जी के संपादन में " नारी विमर्श के अर्थ " पुस्तक में छपा मेरा आलेख और कविता 


स्त्री विमर्श

स्त्री विमर्श ने असली जामा तभी से पहना जब से महिला दिवस और स्त्री सशक्तिकरण जैसे मुद्दों और दिनों की शुरुआत हुई और स्त्री को सोचने पर विवश किया कि  वो क्या थी और क्या है और आगे क्या हो सकती है . उससे पहले स्त्री जागृति  के लिए बेशक प्रयास होते रहे मगर उसकी पहुँच हर नारी तक नहीं हो पा  रही थी लेकिन जब से स्त्री के लिए खास दिवस आदि को इंगित किया गया तो उन्हें लगा शायद हम भी कुछ खास हैं या कहिये किसी गिनती में आती हैं वर्ना तो स्त्री ने अपने को सिर्फ घर परिवार के दायरे में ही सीमित  कर रखा था बस कुछ स्त्रियाँ ही थीं जो पुरानी परिपाटियों से लड़ने का जज्बा रखती थीं . बेशक स्त्री कभी कमज़ोर नहीं रही लेकिन उसे हमेशा अहसास यही कराया गया कि  उसमे कितनी कमियां हैं और वो खुद को उसी दायरे में कैद करके रखने लगी .
कितना सुन्दर लगता है ना जब हम सुनते हैं आज महिला दिवस है , स्त्री सशक्तिकरण का ज़माना है , एक शीतल हवा के झोंके सा अहसास करा जाते हैं ये चंद  लफ्ज़ . यूँ लगता है जैसे सारी कायनात को अपनी मुट्ठी में कर लिया हो और स्त्री को उसका सम्मान और स्वाभिमान वापस मिल गया हो और सबने उसके वर्चस्व को स्वीकार कर लिया हो एक नए जहान का निर्माण हो गया हो ...............कितना सुखद और प्यारा सा अहसास !

पर क्या वास्तव में दृश्य ऐसा ही है ? कहीं परदे के पीछे की सच्चाई इससे इतर तो नहीं ?

ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है क्योंकि हम सभी जानते हैं वास्तविकता के धरातल पर कटु सत्य ही अग्निपरीक्षा देता है और आज भी दे रहा है . स्त्री विमर्श ,स्त्री मुक्ति, स्त्री दिवस , महिला सशक्तिकरण सिर्फ नारे बनकर रह गए हैं . वास्तव में देखा जाये तो सिर्फ चंद गिनी चुनी महिलाओं को छोड़कर आम महिला की दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है फिर चाहे वो देशी हो या विदेशी . विश्व पटल पर महिला कल भी भोग्या थी आज भी भोग्या ही है सिर्फ उसकी सजावट का , उसे पेश करने का तरीका बदला है . पहले उसे सिर्फ और सिर्फ बिस्तर की और घर की शोभा ही माना जाता था और आज उसकी सोच में थोडा बदलाव देकर उसका उपभोग किया जा रहा है , आज भी उसका बलात्कार हो रहा है मगर शारीरिक से ज्यादा मानसिक . शारीरिक तौर पर तो उसे विज्ञापनों की गुडिया बना दिया गया है तो कहीं देह उघाडू प्रदर्शन की वस्तु और मानसिक तौर पर उसे इसके लिए ख़ुशी से सहमत किया गया है तो हुआ ना मानसिक बलात्कार जिसे आज भी नारी नहीं जान पायी है और चंद बौद्धिक दोहन करने वालों  की तश्तरी में परोसा स्वादिष्ट पकवान बन गयी है जिसका आज भी मानसिक तौर पर शोषण हो रहा है और उसे पता भी नहीं चल रहा . 
 सोच से तो आज भी स्त्री मुक्त नही है ………आज भी वो प्रोडक्ट के रूप मे इस्तेमाल हो रही है अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर ………उसने सिर्फ़ स्वतंत्रता को ही स्त्री मुक्ति के संदर्भ मे लिया है और उसका गलत उपयोग ज्यादा हो रहा है सार्थक नही.जिस दिन स्त्री इस बात को समझेगी कि उसके निर्णय पर दूसरे की विचारधारा हावी ना हो और वो खुद अपने निर्णय इतनी दृढता से ले सके कि कोई उसे बदलने को मजबूर ना कर सके…तभी सही मायनो मे स्त्री मुक्ति होगी और आज भी स्त्री कही की भी हो कहीं ना कहीं पुरुष के साये के नीचे ही दबी है ……एक मानसिक अवलंबन की तरह वो पुरुष पर ही निर्भर है जिससे उसे खुद को मुक्त करना पडेगा तभी वास्तविक स्त्री मुक्ति होगी ………अपने लिये नये पायदान बनाये ना कि पुरुष के ही दिखाये मार्ग पर चलती जाये और सोचे कि मै मुक्त हो गयी स्वतंत्र हो गयी फिर चाहे वो इस रूप मे भी उसका इस्तेमाल ही क्यों ना कर रहा हो…………उसे पहल तो करनी ही होगी अपनी तरह क्योंकि इसका बीडा जब तक एक नारी नही उठायेगी तब तक उसके हालात सुधरने वाले नही………अब सोच को तो बदलना ही होगा और ये काम स्वंय नारी को ही करना होगा ………जब तक संपूर्ण नारी जाति की सोच मे बदलाव नही आ जाता तब तक कैसे कह दें स्त्री मुक्त हुई………अपनी मुक्ति अपने आप ही करनी पडती है………  उसे सिर्फ़ विज्ञापन नही बनना है , अपना दोहन नही होने देना है आज ये बात स्त्री को समझनी होगी , अपनी सोच विकसित करनी होगी और एक उचित और विवेकपूर्ण निर्णय लेने मे खुद को सक्षम बनाना होगा ना कि कोई भी स्त्री मुक्ति के नाम पर कुछ कहे उसके पीछे चलना होगा…………जहाँ तक स्त्री का एक दूसरे के प्रति व्यवहार है उसके लिये यही कहा जा सकता है जब सोच मे इस हद तक बदलाव आ जायेगा तो व्यवहार मे अपने आप बदलाव आयेगा………जब तक सोच ही रूढिवादी रहेगी तब तक स्त्री स्त्री की दुश्मन रहेगी .
अब इस सन्दर्भ के एक बात कहनी जरूरी है की स्त्री विमर्श के माध्यम से हमने स्त्री के सिर्फ एक ही पहलू पर ध्यान दिया जबकि स्त्री विमर्श का संपूर्ण अर्थ तभी मायने रखता है जब हम उसके न केवल सकारात्मक बल्कि नकारात्मक पहलू पर भी ध्यान दें . अच्छाई और बुरे का तो चोली दमन का साथ रहा है तो इससे इंसान कैसे दूर रह सकता है और यदि दूर नहीं रह सकता तो उसमे उनके गुण आने स्वाभाविक हैं और ऐसा ही स्त्री  के साथ भी है . वो भी अच्छाई और बुराई  का पुतला है . अगर देखा जाये तो इतिहास को देखो चाहे आज के सन्दर्भ में पहले भी स्त्री और उसका स्वभाव दोनों तरह का ही पाया जाता था कहीं तो दया , करुना और त्याग की मूर्ती तो कहीं सरे संसार को जलाकर रख कर देने की क्षमता रखने वाली . इसी कड़ी में सीता भी थी , कौशल्या भी और सुमित्रा भी तो दूसरी तरफ मंत्र भी थी , ककैयी भी थी और शूर्पनखा भी ............जिन्होंने एक इतिहास को अंजाम दिया . एक तरफ त्याग और समर्पण था तो दूसरी तरफ सिर्फ स्वार्थ .........तो ऐसे गुणों और अवगुणों से दूर तो कोई भी नहीं हो सकता लेकिन हमें चाहिए की हम इन पात्रों  की अच्छाइयों को जीवन में उतारें  और बुराइयों से स्वयं को अलग करते चलें तब है स्त्री की सोच में बदलाव जो अगर इतिहास में कुछ गलत हुआ तो उसे बदलने की सामर्थ्य रख सके न की आँख मीचकर उसका अनुसरण करती रहे . हम आज उदहारण तो इतिहास से देते हैं और स्त्री  ही स्त्री को वो सब करने को प्रेरित करती है यदि हम अपनी सोच को व्यापक करें और लकीर के फ़क़ीर न बनकर आज के सन्दर्भ के जो उचित है और मान्य है उसे ही मने और समाज को भी मानने पर मजबूर कर दें तो तभी हम खुद को स्त्री विमर्श का हिस्सा कहने के अधिकारी हैं . जब तक खुद चरितार्थ न करें और सिर्फ भाषण दे कर इतिश्री कर दें तो ये कोई स्त्री विमर्श न हुआ . स्त्री विमर्श का वास्तविक अर्थ तो यही है की स्त्री पहले किसी भी पहल को, किसी भी सुधर को , किसी भी नयी योजना हो पाने जीवन में लागू करे उसके बाद औरों को अपनाने को प्रेरित करे तभी स्त्री विमर्श सार्थक है .
स्त्री विमर्श का एक पहलू ये भी है जिस पर हम ध्यान नहीं दे पाते . बेशक आज हम कितने भी आधुनिक हो गए हों मगर कहीं न कहीं एक कमजोरी नारी को औरों से अलग करती है और उसे पुरुष की आधीनता स्वीकारने को प्रेरित करती है।

क्यों है आज भी नारी को एक सुरक्षित जमीन की तलाश ? एक शाश्वत प्रश्न मुँह बाए खड़ा है आज हमारे सामने ............आखिर कब तक ऐसा होगा ? क्या नारी सच में कमजोर है या कमजोर बना दी गयी है जब तक इन प्रश्नों का हल नहीं मिलेगा तब तक नारी अपने लिए जमीन तलाशती ही रहेगी.माना सदियों से नारी को कभी पिता तो कभी भाई तो कभी पति तो कभी बेटे के आश्रित बनाया गया है . कभी स्वावलंबन की जमीन पर पाँव रखने ही नहीं दिए तो क्यूँ नहीं तलाशेगी अपने लिए सुरक्षित जमीन ?
पहले इसके कारण ढूँढने होंगे . क्या हमने ही तो नहीं उनके पाँव में दासता की जंजीर नहीं डाली? क्यूँ उसे हमेशा ये अहसास कराया जाता रहा कि वो पुरुष से कम है या कमजोर है जबकि कमजोरी हमारी थी हमने उसकी शक्ति को जाना ही नही . जो नारी आज एक देश चला सकती है , बड़े- बड़े ओहदों पर बड़े- बड़े डिसीजन ले सकती है , किसी भी कंपनी की सी इ ओ बन सकती है , जॉब के साथ- साथ घर- बार बच्चों की देखभाल सही ढंग से कर सकती है तो कैसे कह सकते हैं कि नारी किसी भी मायने में पुरुष से कम है लेकिन हमारी पीढ़ियों ने कभी उसे इस दासता से आज़ाद होने ही नहीं दिया . माना शारीरिक रूप से थोड़ी कमजोर हो मगर तब भी उसके बुलंद हौसले आज उसे अन्तरिक्ष तक ले गए फिर चाहे विमान उड़ाना हो या अन्तरिक्ष में जाना हो ..........जब ये सब का कर सकती है तो कैसे कह सकते है कि वो अक्षम है . किसी से कम है . फिर क्यूँ तलाशती है वो अपने लिए सुरक्षा की जमीन ? क्या आकाश को मापने वाली में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वो अपनी सुरक्षा खुद कर सके ?
ये सब सिर्फ उसकी जड़ सोच के कारण होता है और वो पीढ़ियों की रूढ़ियों में दबी अपने को तिल- तिल कर मरती रहती है मगर हौसला नहीं कर पाती आगे बढ़ने का , लड़ने का .जिन्होंने ऐसा हौसला किया आज उन्होंने एक मुकाम पाया है और दुनिया को दिखा दिया है कि वो किसी से किसी बात में कम नहीं हैं .आज यदि हम उसे सही तरीके से जीने का ढंग सिखाएं तो कोई कारण नहीं कि वो अपने लिए किसी जमीन की तलाश में भटकती फिरे .जरूरत है तो सिर्फ सही दिशा देने की .........उसको उड़ान भरने देने की ............और सबसे ऊपर अपने पर विश्वास करने की और अपने निर्णय खुद लेने की ..............फिर कोई कारण नहीं कि वो आज भी सुरक्षित जमीन के लिए भटके बल्कि दूसरों को सुरक्षित जमीन मुहैया करवाने का दम रखे.
जब तक सोच में बदलाव नहीं आएगा फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष या समाज या देश तब तक किसी भी स्त्री विमर्श का कोई औचित्य नहीं . आज जरूरत है एक स्वस्थ समाज के निर्माण की , एक सही दिशा देने की और स्त्री को उसका स्वरुप वापस प्रदान करने की  और इसके लिए उसे खुद एक पहल करनी होगी अपनी सोच को सही आकार और दिशा देना होगा . किसी के कहने पर ही नहीं चलना बल्कि अपने दिमाग के सभी तंतुओं को खोलकर खुद दिमाग से विचार करके अपने आप निर्णय लेने की अपनी क्षमता को सक्षम करना होगा .  

 आज जो भी शोषण हो रहा है काफी हद तक तो महिलाएं खुद भी जिम्मेदार हैं क्योंकि वो दिल से ज्यादा और दिमाग से कम सोचती हैं मगर आज उन्हें भी प्रैक्टिकल  बनना होगा . सिर्फ एक दिन उनके नाम कर दिया गया इसी सोच पर खुश नहीं होना बल्कि हर दिन महिला दिवस के रूप में मने, उन्हें अपने सम्मान और स्वाभिमान से कभी समझौता ना करना पड़े और समाज और देश के उत्थान में बराबर का सहयोग दे सकें तब होगा वास्तव में सही अर्थों में महिला सशक्तिकरण , स्त्री की परम्परावादी सोच से मुक्ति और तब मनेगा वास्तविक महिला दिवस और वो होगा स्त्री विमर्श का सशक्त रूप .



गांधारी
एक युगचरित्र
पति परायणा का ख़िताब पा
स्वयं को सिद्ध किया 
बस बन सकी सिर्फ 
पति परायणा 
मगर संपूर्ण स्त्री नहीं 
नहीं बन सकी 
आत्मनिर्भर कर्तव्यशील माँ
नहीं बन सकी नारी के दर्प का सूचक
बेशक तपशक्ति से पाया था अद्भुत तेज
मगर उसको भी तुमने किया निस्तेज
अधर्म का साथ देकर 
नहीं पा सकीं कभी इतिहास में स्वर्णिम स्थान
जानती हो क्यों
कर्त्तव्य च्युत दस्तावेज इतिहास की धरोहर नहीं होते
मगर तुम्हारी दर्शायी राह ने
ना जाने कितनी आँखों पर पट्टी बंधवा दी
देखो तो जरा 
हर गांधारी ने आँख पर पट्टी बाँध
सिर्फ तुम्हारा अनुसरण किया
मगर खुद को ना सिद्ध किया
दोषी हो तुम .......स्त्री की संपूर्ण जाति की 
तुम्हारी बहायी गंगा में स्नान करती 
स्त्रियों की पीठ पर देखना कभी 
छटपटाहट के लाल पीले निशानों से 
मुक्त करने को आतुर आज की नारी 
अपनी पीठ तक अपने हाथ नहीं पहुँचा पा रही
कोई दूसरा ही सहला जाता है 
कुछ मरहम लगा जाता है
जिसमे आँसुओं का नमक मिला होता है 
तभी व्याकुलता से मुक्ति नहीं मिल रही 
जानती हो क्यों
क्योंकि उसकी सोच की जड़ को 
तुमने आँख की पट्टी के मट्ठे से सींच दिया है
और जिन जड़ों में मट्ठा पड़ा होता है 
वहाँ नवांकुर कब होता है 
बंजर अहातों में नागफनियाँ ही उगा करती हैं
इतिहास गवाह है
तुम्हारी आँख की पट्टी ने 
ना केवल तुम्हारा वंश 
बल्कि पीढियां तबाह कर दीं
तभी तो देखो आज तक वो ही पौध उग रही है 
जिसके बीज तुमने रोपित किये थे
कहाँ से लायीं थीं जड़ सोच के बीज
गर थोडा साहस का परिचय दिया होता
ना ही इतना रक्तपात हुआ होता 
तो आज इतिहास कुछ और ही होता 
तुम्हारा नाम भी स्त्रियों के इतिहास में स्वर्णिम होता 
जीवन के कुरुक्षेत्र में
कितनी ही नारियां होम हो गयीं
तुम्हारा नाम लेकर
क्या उठा पाओगी उन सबके क़त्ल का बोझ 
इतिहास चरित्र बनना अलग बात होती है
और इतिहास बदलना अलग
मैं इक्कीसवीं सदी की नारी भी
नकारना चाहती हूँ तुम्हें
तुम्हारे अस्तित्व को 
देना चाहती हूँ तुम्हें श्राप 
फिर कभी ना हो तुम्हारा जन्म 
फिर किसी राजगृह में 
जो फैले अवसाद की तरह 
जंगल में आग की तरह 
मगर तुम्हारी बिछायी नागफनियाँ
आज भी वजूद में चुभती हैं
क्योंकि गांधारी बनना आसान था और है 
मगर नारी बनना ही सबसे मुश्किल है 
एक संपूर्ण नारी ..........
अपने तेज के साथ
अपने दर्प के साथ 
अपने ओज के साथ 


सोमवार, 4 मार्च 2013

मुझे गले से लगा लो बहुत उदास हूँ मैं

मुझे गले से लगा लो बहुत उदास हूँ मैं
कौन सुनेगा और समझेगा क्यों उदास हूँ मैं

ना जाने कौन सी बर्फ़ जमी है
जो ना पिघली है ना रिसी है
कोई धधकता अलाव जला लो कि उदास हूँ मैं

ये जो दर्द की पोरे रिसती है

रस्सी की ऐंठन सी अकडती हैं
कोई इस दर्द को थोडा और पका दो कि उदास हूँ मैं


दिल की फ़टती बेचैनियों को समझा दो
मुझे मेरे रब से इक बार मिला दो
कोई अश्क मेरी आँख से ढलका दो कि उदास हूँ मैं

………किससे कहूँ ? कौन सुनेगा और समझेगा क्यों उदास हूँ मैं