उजले चाँद की बेचैनी कितना बेचैन कर गयी कि कविता संग्रह बन गयी । विजय कुमार सपत्ति का पहला काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित इस बार के दिल्ली पुस्तक मेले में शामिल हुआ । पहला संग्रह मगर परिपक्वता से भरपूर प्रेम का ऐसा ग्रंथ है जहाँ प्रेयसी जैसे कवि की साँसों में , कवि के जीवन में, उसकी धडकन में , उसके रोम - रोम में बसी हो । कहीं प्रेम का अधूरापन कवि की बेचैनी बढाता है तो कहीं प्रेयसी से मिलन उसकी बेचैनी के फ़फ़ोलों पर एक फ़ाया सा रख देता है मानो चाँद के घटते - बढते स्वरूप का ही अक्स है उजले चाँद की बेचैनी जो हर पंक्ति , हर कविता में बयाँ हो रही हैं । पाठक को एक स्वनीले संसार में ले जाकर छोड देती है जिससे बाहर आने का मन ही नहीं होता।
मैं चादरें तो धो लेती हूँ
पर मन को कैसे धो लूं
कई जन्म जी लेती हूँ तुम्हें भुलाने में
सलवटें खोलने से नहीं खुलतीं
धोने से नहीं धुलती
"सलवटों की सिहरन" शीर्षक ही रूह पर दस्तक देता प्रतीत होता है और जब आप उसे पढ़ते हैं तो जैसे आप , आप नहीं रहते सिर्फ एक रूह किसी ख्वाब की ताबीर सी अपने दर्द को जी रही मिलती है .
माँ गुजर गयी
मुझे लगा मेरा पूरा गाँव खाली हो गया
मेरा हर कोई मर गया
मैं ही मर गया
इनती बड़ी दुनिया में , मैं जिलावतन हो गया
गाँव से परदेस या शहर में जाकर रहने की पीड़ा का मर्मान्तक चित्रण है "माँ" . कैसे जीवन जीने की एक भरपूर उड़ान भरने की आकांक्षा इंसान को उसके अस्तित्व को खोखला कर देती है और भूल जाता है कुछ समय के लिए अपने जीवन की अनमोल धरोहर कहे जाने वाले रिश्तों को मगर एक वक्त के बाद या उनके दूर जाने के बाद तब अहसास के कीड़े बिलबिलाते हैं तो दर्द से कचोटता मन खुद को भी हार जाता है .
"नई भाषा" कविता में कवि ने मोहब्बत की भाषा को जीया है सिर्फ लिखना ही औचित्य भर नहीं रहा बल्कि मोहब्बत के पंछियों का अपना आसमान होता है जिसके सिर्फ वो ही बादशाह होते हैं ये बताया है तभी तो दर्द की इन्तहा है आखिरी पंक्तियों में
बड़ी देर हुयी जानां
तेरी आवाज़ में उस भाषा को सुने
एक बार वापस आ जाओ तो बोल लूं तुमसे
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रेमिका का नाम ही प्रेमी के जीवन की सांस बन गया है मैं तेरा नाम लेता हूँ और अपनी तनहा रूह को चंद सांसें उधार देता हूँ
मैं हर रात / तुम्हारे कमरे में / आने से पहले सिहरती रही
"तुम्हारे कमरे में" कितना अपरिचित कर दिया सिर्फ इन तीन शब्दों ने एक स्त्री के अस्तित्व को जिसके लिए वो कभी अपना न बन सका , हमारा न बन सका , कितनी गहरी खायी होगी जिसे न जाने कितनी सदियाँ बीत जाएँ पर पार नहीं कर सकेंगी इस बात का बोध करा दिया . यूं तो युग युगान्तरों से स्त्री :एक अपरिचिता ही रही है और पुरुष के लिए शोध का विषय और हमेशा रहेगी जब तक न उसकी दृष्टि अर्जुन सी होगी और नहीं भेदेगी पाँव के नीचे दबे उस पत्ते रुपी मन को स्त्री का अपरिचित का स्वरुप ही उसके जीवन में पहेली बन कर सालता रहेगा .
प्रेमकथा जैसे एक सजीव चित्रण . प्रेम तो स्वयं में अपूर्ण होकर भी पूर्ण है तो प्रेमकथा में कैसे न निर्झरता बहेगी, कैसे न विरह का प्रेमगीत तान भरेगा, कैसे न व्याकुल पपीहा पीहू- पीहू करेगा। बस सिर्फ एक ज़िन्दगी नहीं , एक युग नहीं, जन्म जन्मान्तरों से भटकती प्यास को जैसे किसी ने शब्दों और भावों के फूल समर्पित किये हों और देवता के मुखकमल पर मधुर स्मित उभर आई हो और पूजा सफल हो गयी हो साक्षात दर्शन करके कुछ ऐसा ही भाव तो समेटे है प्रेमकथा .
मन की संदूकची में दफ़न यादें कैसे तडपाती हैं , कैसे गले मिलती हैं , कैसे दर्द को सहलाती हैं , कैसे ज़ख्मों की मरहम पट्टी करती हैं और फिर अपने साथ जीने को तनहा छोड़ जाती हैं . इस आलम में यदि किसी को जीना हो तो एक बार इन यादों के गलियारे से गुजर देखे , वापस आना नामुमकिन जान पड़ेगा .
जिस्म तो जैसे एक जलता अलाव हो और गलती से उसे छू लिया हो . शब्दों की बाजीगरी तो सभी करते हैं मगर कोई कविता की आत्मा में उतरा हो और जैसे खुद भोगा हो तब जाकर ऐसी कविता का जन्म हुआ कवि द्वारा ...........जो खुद से भी एक प्रश्न करता कटघरे में खड़ा करता है हर उस जीव को जो खुद को इंसान कहता है .
ज़ख्मों के घर , आंसू , मौत , पनाह , पहचान , सर्द होठों का कफ़न ,कवितायेँ तो मोहब्बत की इन्तेहा है . लव गुरु के नाम से विख्यात कवि के भावुक मन की ऐसी दास्ताँ जो हम सबके दिलों के करीब से गुजरती हुयी कानों में सरगोशी करती है तो दिल में एक हलचल मचा देती है .
जिस्म का नाम से क्या मतलब? एक सुलगती दियासलाई जो बता गयी मैं क्यों जली , किसे रौशन किया और फिर क्या मेरा अस्तित्व रहा ………अब चाहे कलयुग हो या त्रेता सुलगना नियति है हर किसी को राम नहीं मिला करते।
इंसान का कितना पतन हो चुका है इसका दर्शन करना है तो जानवर कविता उपयुक उदाहरण होगी जो अपने नाम को भी सार्थक कर रही है . इंसान और जानवर के फ़र्क में कौन आज बाजी मार रहा है , क्या सच में इंसान, इंसान है? कुछ ऐसे प्रश्न जो मूक करने में सक्षम हैं।
सरहद हो या रिश्ते एक वाजिब प्रश्न उठाती कवितायेँ है
कवि का भावुक मन प्रेम की प्यास से आकुल कैसे कैसे ख्वाब बुनता है और प्रेमिका को तो जैसे वो स्वयं जीता है तभी तो उसकी दीवानगी में उसका अक्स उसकी रूह में उतरता है . प्रेम और विरह की वेदना से सराबोर याद , मोहब्बत , जब तुम मुझसे मिलने आओगी प्रिये कवितायेँ अन्दर तक भिगो जाती हैं और कवि की कल्पना की नायिका को जैसे सामने खड़ा कर देती हैं शायद यही तो है एक सफल लेखक की पहचान की जो पढ़े ……उसी का हो ले .
सपना कहाँ लगता है सपना हकीकत का सा गुमान होता है जब कवि अपनी प्रेयसी से मिलने का खूबसूरत चित्र खींचता है जिसमें खुद की भी बेबसी और फिर खुद की भी चाहत को एक मुकाम देना चाहता है . ये एक कवि ही कर सकता है जहाँ प्रेम हो वहां सब कुछ संभव है यूँ ही थोड़ी प्रेम को जितना व्यक्त करो उतना अव्यक्त रहता है .
दोनों इस तरह जी रहे थे अपने अपने देश में
कि ज़िन्दगी ने भी सोचा
अल्लाह इन पर रहम करे
क्योंकि वो रात दिन
नकली हंसी हँसते थे और नकली जीवन जीते थे ........
ये पंक्तियाँ कहीं न कहीं हमें भी जोडती हैं कवि की उस कल्पना से । हमारी भी तो यही खोज है जिसकी चाह में जन्मों से भटकती प्यास है मगर आकार नहीं पाती और बढ़ता जाता है सफ़र ,अंतहीन सा ,एक ऐसी मंजिल को और जिसका पता होते हुये भी नहीं है .
दो अजनबियों का ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर मिलना , बिछड़ना औरफिर एक अंतराल के बाद फिर से मिलना किन किन अनुभूतियों को जन्म देता है , कितनी औपचारिकता शेष रहती है और कितना अपनत्व उसी का समीकरण है मर्द और औरत कविता में , जो सदियों से या कहों जबसे सृष्टि बनी तभी से एक ऐसे रेगिस्तान में भटक रहे हैं जहाँ थोड़ी दूर पर पानी का गुमान होता है जो किसी मरीचिका से इतर नहीं होता . फिर भी चाहतों के आकाश पर प्रेम के पंछी दो घडी में ही एक जीवन जी जाते हैं . जन्मों की भटकी प्यास को मिटा जाते हैं बिना किसी स्पर्श के सिर्फ अहसासों में जी जाना और प्रेम को मुकाम देना ये भी एक आयाम होता है मर्द और औरत होने का गर यदि इन्हें सिर्फ वासनात्मक दृष्टिकोण से ही न देखा जाए .
इस काव्य संग्रह का अंत जैसा होना चाहिए वैसा ही है , प्रेम से शुरू कविता , प्रेम में भीगा जीवन कभी तो अलविदा लेता ही है और यही किसी संग्रह की सफलता है् कि एक एक पायदान पर पैर रखते हुए प्रेम आगे बढ़ता है, अपने मुकाम तय करता है जहाँ प्रेम अपनी शोखियों के साथ जवान होता है फिर उदासियों और पहरों के जंगलों में भटकता आगे बढता है , कभी दर्द कभी विरह वेदना की असीम अनुभूतियों से जकड़ा अपने प्रेम को शाश्वतता की ऊंचाई पर ले जाकर अलविदा लेता है जहाँ शरीर से परे सिर्फ आत्माओं का विलास रूहों का गान होता है जिसे कोई प्रेम का पंछी ही सुन सकता है और गीत गुनगुना सकता है .
सम्पूर्ण काव्य संग्रह ज़िन्दगी की पहली और अंतिम चाह "प्रेम" की पिपासा का चित्रण है जो मानव की आदि प्यास है और उसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे मानव के ह्रदय की एक एक ग्रंथि पर कवि की पकड़ है जो उसे अन्दर तक भिगोती है और पाठक कल्पना के संसार से बाहर आना ही नहीं चाहता्। एक ऐसी ही दुनिया बसाने की उसकी चाह उसे बार - बार इन कविताओं को पढने को प्रेरित करती है और यही किसी भी लेखक के लेखन की सबसे बड़ी सफलता है . यदि आपके बुक शेल्फ में ये प्रेमग्रंथ नहीं है तो आप महरूम हैं प्रेम के महासागर में गोते लगाने से और यदि आप इसे प्राप्त करना चाहते हैं तो बोधि प्रकाशन से या विजय सपत्ति से संपर्क कर सकते हैं जिनका पता मैं साथ में दे रही हूँ ।
कवि को इस संग्रह के लिए उसकी भावनाओं को मुखरता प्रदान करने के लिए कोटिशः बधाइयाँ . वो प्रेम के नए आयाम छुए और इसके भी आगे प्रेम को नयी ऊँचाइयाँ देते हुए आगामी संग्रह निकाले यही कामना है .
सम्पर्क सूत्र :
BODHI PRAKASHAN
F-77, SECTOR --9
ROAD NO. 11
KARTARPURA INDUSTRIAL AREA
BAAIS GODOWN
JAIPUR...302006
VIJAY KUMAR SAPATTI
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