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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

गुस्ताखियों को कहो ज़रा

गुस्ताखियों को कहो ज़रा 
मेरे शहर के कोने मे ठहर जायें
रात को घूंघट तो उठाने दो ज़रा

कहीं सुबह की नज़ाकत ना रुसवा हो जाये

एक पर्दानशीं का वादा है
चन्दा भी आज आधा है
लबों पर जो ठिठकी है
वो कमसिनी ज्यादा है
ऐसे मे क्यों ना गुस्ताखी हो जाये
जो सिमटी है शब तेरे आगोश मे
उसे जिलावतन किया जाये
एक तस्वीर जो उभरी थी ख्यालों मे
क्यों ना उसे तस्दीक किया जाये

यूँ ही बातों के पैमानों मे

एक जाम छलकाया जाये

रात की सरगोशी पर

चाँदनी को उतारा जाये
फिर दीदार तेरा किया जाये
कि चाँदनी भी रुसवा हो जाये
ये किस हरम से गुज़री हूँ 
इसी पशोपेश में फँस जाये

पर्दानशीनों की महफ़िल में

बेपर्दा ना कोई शब जाए

गुस्ताखियों को कहो ज़रा 
मेरे शहर के कोने मे ठहर जायें............

22 टिप्‍पणियां:

  1. मनोभावों को बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है आपने .आभार आत्महत्या:परिजनों की हत्या

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  2. भावों का उत्कृष्ट प्रगटीकरण |
    शुभकामनायें-

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  3. शब्दो को बहुत अच्छे से पिरोया है

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  4. वाह ... बेहतरीन अभिव्‍यक्ति

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  5. कम्बक्त ये गुस्ताख कहाँ रुकने वाले ...
    बहुत खूब ..

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  6. वाह वाह।
    यह अलग अंदाज़ भी खूब रहा।

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  7. वाह, बहुत सुन्दर उद्गार

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  8. आपके ब्लाँग के हैडर मेँ जिँदगी एक खामोश सफर हैँ लेकिन जिँदगी तो खामोश नही बहुत सी बाते कहती हैँ कभी हँसाती हैँ कभी रुलाती हैँ तो कभी अनमने ढंग के भाव दिखाती हैँ इस सफर मेँ काफी उतार चढाव होता हैँ जो कि सुःख दुःख का अनुभव कराती हैँ फिर ये खामोश कब से हो गयी

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  9. @varun kumar ji ये आप नही समझ सकते आपके लिये जो सामने है वो ही सत्य है मगर ज़िन्दगी की खामोशी से चलती है ये कोई नही जान पाता ये तो हम हैं जो उसमें खुशी और गम, उतार और चढाव महसूसते हैं और खुशी और दुखी होते हैं।

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  10. वाह बहुत ही खुबसूरत........अल्फाजों का जादू।

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  11. खुबसूरत बातें सुन्दर ख्याल

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