घर से ऑफिस
के लिए जब
निकलता है आदमी
जाने कितनी चीजें
भूलता है आदमी
घर से ऑफिस
तक के सफ़र में
दिनचर्या बना
लेता है आदमी
कौन से
जरूरी काम
पहले करने हैं
कौन सी फाइल
पहले निपटानी है
किसका लोन
पास करना है
किसका काम
रोक कर रखना है
सारे मानक तय
कर लेता है
साथ ही आज
वापसी में
कौन से सपने
लेकर जाने हैं
बीवी बच्चों के
कामों की
फेहरिस्त भी
बना लेता है
आदमी
किसकी फीस
जमा करवानी है
किसे डॉक्टर के
लेकर जाना है
बेटी के लिए
लड़का ढूंढना है
बेटे का एड्मीशन
करवाना है
किसे रिश्वत
देकर काम
निकलवाना है
हर काम के
मापदंड तय
कर लेता है
आदमी
मगर इसी बीच
कुछ पल वो
भविष्य के भी
संजो लेता है
कुछ पल अपनी
कल्पनाओं की
उडान को भी
देता है आदमी
जब देखता है
किसी गाडी में
सवार किसी
परिवार के
चेहरे पर
खिलती
मुस्कान को
या किसी
आलिशान
मकान को
या शौपिंग माल
या मूवी देखने
जाते किसी
परिवार को
तब वो भी
उसी जीवन की
आस संजो
लेता है आदमी
खुशहाली का
एक बीज
अपने अंतस में
रोप लेता है
आदमी
दुनिया की हर
ख़ुशी की चाह में
कुछ सपने
सींच लेता है
आदमी
बेशक पूरे
हों ना हों
मगर फिर भी
वो सुबह कभी
तो आएगी
इस चाह में
एक जीवन
जी लेता है
आदमी
घर परिवार को
ख़ुशी देने की
चाह में
ख्वाबों की
उड़ान भर
लेता है आदमी
उम्मीद की
इस किरण पर
आस का दीपक
जला लेता है
आदमी
घर से ऑफिस
के बीच
ज़िन्दगी की
जद्दोजहद से
कुछ पल
स्वयं के लिए
चुरा लेता है
आदमी
पृष्ठ
▼
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
मोहब्बत की ना कोई मिसाल होती है
कौन कहता है कि मोहब्बत की किताब होती है
ये तो दिल पर लिखी दिल की जुबान होती है
मोहब्बत तूने कौन सी जुबान में कर ली यारा
मोहब्बत तो हर जुबान में बेजुबान होती है
मोहब्बत के ये कैसे खेल खेल लिए तुमने
इस खेल में तो बस हार ही हार होती है
जब इसकी महक़ फिजाओं में फैलती है यारा
तब मोहब्बत की दुल्हन भी बेनकाब होती है
सुना है मौसम भी बदलते हैं रंग अपना
मगर मोहब्बत तो बेमौसम बरसात होती है
रंग कितने उँडेलो जिस्म पर इसके
ये तो मोहब्बती रंग का गुलाल होती है
तख्त-ओ-ताज के पहरों मे ना कैद होती है
ये तो किसी खास दिल की मेहमान होती है
मोहब्बत की ना कोई मिसाल होती है
ये तो हर युग मे बेमिसाल होती है
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
जब आत्मिक मिलन हो जाए.............
यूँ तो
करती हूँ
हर साल
करवाचौथ
का व्रत
तुम्हारी
लम्बी उम्र
की दुआएँ
करने का
रिवाज़ मैं भी
निभाती हूँ
हर सुहागिन
की तरह
मगर फिर भी
कहीं एक
कमी लगती है
एक कसक सी
रह जाती है
कोई अदृश्य
रेखा बीच में
दिखती है
किसी अनदेखी
अनजानी
कमी की
जो डोर को
पूर्णता से
बाँध नही
पाती है
इसलिए
चाहती हूँ
अगले
करवाचौथ
तक मैं
तुम्हें तुमसे
चुरा लूं
और तुम्हारे
ह्रदय
सिंहासन पर
अपना आसन
जमा लूं
जब तुम
खुद को
ढूँढो तो
कहीं ना मिलो
सिर्फ मेरा ही
वजूद तुम्हारे
अस्तित्व का
आईना बन
चुका हो
जहाँ तुम
मुझे और
मैं तुम्हें
सामाजिकता
के ढांचे से
ऊपर उठकर
व्यावहारिकता
की रस्मों से
परे होकर
एक दूजे के
हृदयस्थल
पर अपने
अक्स चस्पां
कर दें
तन के
सम्बन्ध तो
ज़िन्दगी भर
निभाए हमने
चलो एक बार
मन के स्तर पर
एक नया
सम्बन्ध बनाएँ
जिस दिन
"तुम" और "मैं"
दोनों की चाह
सिर्फ इक दूजे
की चाह में
सिमट जाए
प्रेमी और
प्रेयसी के
भावों में
हम डूब जाएँ
राधा - कृष्ण
सा अमर प्रेम
हम पा जाएँ
जहाँ शारीरिक
मानसिक
स्तर से
अलग रूहानी
सम्बन्ध बन जाए
जहाँ तन के नहीं
मन के फूल
मुस्कुराएं
कुछ ऐसे
अगली बार
अपनी
करवाचौथ
को अपने
अस्तित्वों
के साथ संपूर्ण
बना जायें
और व्रत
मेरा पूर्ण हो जाये
जब आत्मिक
मिलन
हो जाए
तब
सुहाग अमर
हो जाये
करती हूँ
हर साल
करवाचौथ
का व्रत
तुम्हारी
लम्बी उम्र
की दुआएँ
करने का
रिवाज़ मैं भी
निभाती हूँ
हर सुहागिन
की तरह
मगर फिर भी
कहीं एक
कमी लगती है
एक कसक सी
रह जाती है
कोई अदृश्य
रेखा बीच में
दिखती है
किसी अनदेखी
अनजानी
कमी की
जो डोर को
पूर्णता से
बाँध नही
पाती है
इसलिए
चाहती हूँ
अगले
करवाचौथ
तक मैं
तुम्हें तुमसे
चुरा लूं
और तुम्हारे
ह्रदय
सिंहासन पर
अपना आसन
जमा लूं
जब तुम
खुद को
ढूँढो तो
कहीं ना मिलो
सिर्फ मेरा ही
वजूद तुम्हारे
अस्तित्व का
आईना बन
चुका हो
जहाँ तुम
मुझे और
मैं तुम्हें
सामाजिकता
के ढांचे से
ऊपर उठकर
व्यावहारिकता
की रस्मों से
परे होकर
एक दूजे के
हृदयस्थल
पर अपने
अक्स चस्पां
कर दें
तन के
सम्बन्ध तो
ज़िन्दगी भर
निभाए हमने
चलो एक बार
मन के स्तर पर
एक नया
सम्बन्ध बनाएँ
जिस दिन
"तुम" और "मैं"
दोनों की चाह
सिर्फ इक दूजे
की चाह में
सिमट जाए
प्रेमी और
प्रेयसी के
भावों में
हम डूब जाएँ
राधा - कृष्ण
सा अमर प्रेम
हम पा जाएँ
जहाँ शारीरिक
मानसिक
स्तर से
अलग रूहानी
सम्बन्ध बन जाए
जहाँ तन के नहीं
मन के फूल
मुस्कुराएं
कुछ ऐसे
अगली बार
अपनी
करवाचौथ
को अपने
अस्तित्वों
के साथ संपूर्ण
बना जायें
और व्रत
मेरा पूर्ण हो जाये
जब आत्मिक
मिलन
हो जाए
तब
सुहाग अमर
हो जाये
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
हाँ , चैट कर लेती है
२१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है
तो क्या हुआ ?
बहुत खरपतवार
मिलती है
उखाड़ना भी
जानती है
मगर फिर
लगता है
बिना खरपतवार
के भी आनंद
नहीं आता
इसलिए
साथ- साथ
अच्छी फसल के
उसे भी झेल लेती है
२१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है
हर किसी से
हँसकर मिलती है
तो सबको
अपनी लगती है
चाहे अन्दर से
गालियाँ देती है
मगर ऊपर से
स्वागत करती है
हर किसी को
इसका
कोई ना कोई
रूप भा जाता है
कोई दोस्त
तो कोई भाभी
तो कोई माँ
बना जाता है
किसी को बहन की
तलाश होती है
और सबसे ज्यादा
बुरा हाल तो
दिलफेंक
प्रेमियों का
होता है
जो हर दूसरी
चैट पर
मिलने वाली
नारी में
अपनी प्रेमिका
खोजता है
कभी डियर
कभी डार्लिंग
तो कभी
लाइफ़लाइन
कहता है
मगर
कहते वक्त
ज़रा नहीं सोचता
जिसे तू
कह रहा है
वो तेरे बारे में
क्या सोचती है
तू भरम में जीता है
और वो खुश होती है
आज उसे
ये लगता है
बरसों गुलामी
की जिनकी
देखो आज कैसे
दुम हिलाता है
पालतू जानवर- सा
कैसे पीछे- पीछे
आता है
सोच- सोचकर
खुश होती है
और उसके
अरमानों से खेलती है
हर बदला
वो लेती है
जो वो सदियों से
देता आया है
उसका दिया
उसी को
सूद समेत
लौटा देती है
शायद
इसीलिए इस
खरपतवार को
उखाड़ नहीं पाती है
कुछ इस तरह
आत्म संतुष्टि पाती है
ये २१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है
मगर अब
बेवक़ूफ़ नहीं बनती है
हाँ , चैट कर लेती है
तो क्या हुआ ?
बहुत खरपतवार
मिलती है
उखाड़ना भी
जानती है
मगर फिर
लगता है
बिना खरपतवार
के भी आनंद
नहीं आता
इसलिए
साथ- साथ
अच्छी फसल के
उसे भी झेल लेती है
२१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है
हर किसी से
हँसकर मिलती है
तो सबको
अपनी लगती है
चाहे अन्दर से
गालियाँ देती है
मगर ऊपर से
स्वागत करती है
हर किसी को
इसका
कोई ना कोई
रूप भा जाता है
कोई दोस्त
तो कोई भाभी
तो कोई माँ
बना जाता है
किसी को बहन की
तलाश होती है
और सबसे ज्यादा
बुरा हाल तो
दिलफेंक
प्रेमियों का
होता है
जो हर दूसरी
चैट पर
मिलने वाली
नारी में
अपनी प्रेमिका
खोजता है
कभी डियर
कभी डार्लिंग
तो कभी
लाइफ़लाइन
कहता है
मगर
कहते वक्त
ज़रा नहीं सोचता
जिसे तू
कह रहा है
वो तेरे बारे में
क्या सोचती है
तू भरम में जीता है
और वो खुश होती है
आज उसे
ये लगता है
बरसों गुलामी
की जिनकी
देखो आज कैसे
दुम हिलाता है
पालतू जानवर- सा
कैसे पीछे- पीछे
आता है
सोच- सोचकर
खुश होती है
और उसके
अरमानों से खेलती है
हर बदला
वो लेती है
जो वो सदियों से
देता आया है
उसका दिया
उसी को
सूद समेत
लौटा देती है
शायद
इसीलिए इस
खरपतवार को
उखाड़ नहीं पाती है
कुछ इस तरह
आत्म संतुष्टि पाती है
ये २१ वीं सदी की नारी है
हाँ , चैट कर लेती है
मगर अब
बेवक़ूफ़ नहीं बनती है
शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010
कोई नया विरह ग्रन्थ बन जायेगा ...............
एक अरसा हुआ
हमें बिछड़े
ना जाने
कौन से
वो पल थे
कौन सा
वो लम्हा था
जब हम
जुदा हुए
कुछ
तुम्हारी
बेलगाम
चाहतें थीं
कुछ मेरी
मजबूरियां थीं
शायद तभी
रिश्ते में
दूरियां थीं
जरूरत से
ज्यादा
दूजे को
चाहना
भी
कभी कभी
दुश्वारियां
बढ़ा देता है
इच्छाओं को
पंख लगा
देता है
और वो
गुनाह हो
जाता है
जो
खुद भी
ना सह
पाता है
अब सोचती हूँ
मुद्दत से
तुमसे बात
नहीं की
तुम्हारे
लिए कभी
कोई दर्द
नहीं उठा
तुम्हें देखे
तो ज़माने
गुजर गए
शायद वक्त
की दीमक
सब चाट गयी
फिर भी
अगर कभी
किसी मोड़ पर
तुम मुझे
मिल गए तो?
क्या वो
अहसास फिर
जाग पाएंगे?
क्या तुम
मुझसे
नज़र
मिला पाओगे?
क्या लम्हों
को कुछ
पल के लिए
रोक पाओगे?
क्या अपनी
कभी कुछ
कह पाओगे?
या फिर
एक बार
अपने गुनाह
के नीचे
दबे प्यार को
उसका मुकाम
दे पाओगे ?
या मैं
तुम्हें
कभी माफ़
कर पाउंगी ?
नहीं जानती
मगर इतना
जानती हूँ
शायद
वो पल जरूर
वहाँ ठहर
जायेगा
खामोशियों
को भी
मुखर
कर जायेगा
और कोई
नया
विरह ग्रन्थ
बन जायेगा
आज की ये रचना राजीव सिंह जी की फरमाइश पर लिखी है उनका कहना था पिछली पोस्ट पर कि यदि कभी मिल गए तो क्या होगा उस पर भी लिखिए.
हमें बिछड़े
ना जाने
कौन से
वो पल थे
कौन सा
वो लम्हा था
जब हम
जुदा हुए
कुछ
तुम्हारी
बेलगाम
चाहतें थीं
कुछ मेरी
मजबूरियां थीं
शायद तभी
रिश्ते में
दूरियां थीं
जरूरत से
ज्यादा
दूजे को
चाहना
भी
कभी कभी
दुश्वारियां
बढ़ा देता है
इच्छाओं को
पंख लगा
देता है
और वो
गुनाह हो
जाता है
जो
खुद भी
ना सह
पाता है
अब सोचती हूँ
मुद्दत से
तुमसे बात
नहीं की
तुम्हारे
लिए कभी
कोई दर्द
नहीं उठा
तुम्हें देखे
तो ज़माने
गुजर गए
शायद वक्त
की दीमक
सब चाट गयी
फिर भी
अगर कभी
किसी मोड़ पर
तुम मुझे
मिल गए तो?
क्या वो
अहसास फिर
जाग पाएंगे?
क्या तुम
मुझसे
नज़र
मिला पाओगे?
क्या लम्हों
को कुछ
पल के लिए
रोक पाओगे?
क्या अपनी
कभी कुछ
कह पाओगे?
या फिर
एक बार
अपने गुनाह
के नीचे
दबे प्यार को
उसका मुकाम
दे पाओगे ?
या मैं
तुम्हें
कभी माफ़
कर पाउंगी ?
नहीं जानती
मगर इतना
जानती हूँ
शायद
वो पल जरूर
वहाँ ठहर
जायेगा
खामोशियों
को भी
मुखर
कर जायेगा
और कोई
नया
विरह ग्रन्थ
बन जायेगा
आज की ये रचना राजीव सिंह जी की फरमाइश पर लिखी है उनका कहना था पिछली पोस्ट पर कि यदि कभी मिल गए तो क्या होगा उस पर भी लिखिए.
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
अब कोई मोड़ तेरी राह तक नहीं मुड़ता..................
अब मंजिलों ने
रास्ते बदल
लिए हैं
तुम्हारे
मोड़ पर
कभी मिलेंगे
ही नहीं
जो राह में
बिखरे पड़े थे
निशाँ सफ़र के
वो भी अब
दिखेंगे नहीं
मोहब्बत के
ज़ख्मो को
सुखाना
सीख लिया
अब रोज
आँच पर
धीमे धीमे
पकाती हूँ
ताकि
किसी भी
मोड़ पर
कोई बादल
ना भिगो
दे इन्हें
एक यही तो
आखिरी
निशाँ बचे
है मोहब्बत
की रुसवाई के
और तेरी
बेवफाई के
अब कोई
मोड़ तेरी
राह तक
नहीं मुड़ता
रास्ते बदल
लिए हैं
तुम्हारे
मोड़ पर
कभी मिलेंगे
ही नहीं
जो राह में
बिखरे पड़े थे
निशाँ सफ़र के
वो भी अब
दिखेंगे नहीं
मोहब्बत के
ज़ख्मो को
सुखाना
सीख लिया
अब रोज
आँच पर
धीमे धीमे
पकाती हूँ
ताकि
किसी भी
मोड़ पर
कोई बादल
ना भिगो
दे इन्हें
एक यही तो
आखिरी
निशाँ बचे
है मोहब्बत
की रुसवाई के
और तेरी
बेवफाई के
अब कोई
मोड़ तेरी
राह तक
नहीं मुड़ता
बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
भूल गया था................
दोस्तों,
आप सबके द्वारा कहानी और कवितायेँ पसंद करने के लिए बहुत आभारी हूँ ...............आज उसी भाव की एक दूसरी कविता लगा रही हूँ ..........उम्मीद है ये भी आपकी कसौटी पर खरी उतरेगी ...................
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
जिसे अपने
मन की
मूरत बनाया
था कभी
यही सज़ा
है मेरी
मेरे
गुनाह की
तुम तो
बा -वफ़ा थीं
मैं ही
वफ़ा ना
कर सका
तुम्हारे
स्वरुप की
निश्छलता
पवित्रता
का
तिरस्कार
किया
जो जोत
जली थी
तन से
ऊपर उठकर
भावनाओं की
बिना किसी
वादे के
बिना किसी
चाहत के
बिना किसी
रस्मो रिवाज़ के
उसी
प्रज्वलित
दीप का
आलोक
ना बन पाया
अपने हाथों
जला दिया
जीर्ण शीर्ण
कर दिया
प्रेमालय को
प्रतिमा पर
ही इक
गहरा दाग
कभी ना
मिटने वाला
लगा दिया
ज़िन्दगी
एक मौका
देती है
सभी को
मोहब्बत का
और मैं
उस मौके को
शायद
हमेशा के लिए
गँवा चुका हूँ
अब खंडित
प्रतिमा के
टूटे टुकड़े
जब- जब
चुभेंगे
शायद
तभी मेरा
कुछ तो
गुनाह
कम होगा
या फिर
वो ही
मेरा
प्रायश्चित
होगा
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
आप सबके द्वारा कहानी और कवितायेँ पसंद करने के लिए बहुत आभारी हूँ ...............आज उसी भाव की एक दूसरी कविता लगा रही हूँ ..........उम्मीद है ये भी आपकी कसौटी पर खरी उतरेगी ...................
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
जिसे अपने
मन की
मूरत बनाया
था कभी
यही सज़ा
है मेरी
मेरे
गुनाह की
तुम तो
बा -वफ़ा थीं
मैं ही
वफ़ा ना
कर सका
तुम्हारे
स्वरुप की
निश्छलता
पवित्रता
का
तिरस्कार
किया
जो जोत
जली थी
तन से
ऊपर उठकर
भावनाओं की
बिना किसी
वादे के
बिना किसी
चाहत के
बिना किसी
रस्मो रिवाज़ के
उसी
प्रज्वलित
दीप का
आलोक
ना बन पाया
अपने हाथों
जला दिया
जीर्ण शीर्ण
कर दिया
प्रेमालय को
प्रतिमा पर
ही इक
गहरा दाग
कभी ना
मिटने वाला
लगा दिया
ज़िन्दगी
एक मौका
देती है
सभी को
मोहब्बत का
और मैं
उस मौके को
शायद
हमेशा के लिए
गँवा चुका हूँ
अब खंडित
प्रतिमा के
टूटे टुकड़े
जब- जब
चुभेंगे
शायद
तभी मेरा
कुछ तो
गुनाह
कम होगा
या फिर
वो ही
मेरा
प्रायश्चित
होगा
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
युगों का प्रमाण क्या दोगे ?
दोस्तों,
आप सबके द्वारा कहानी को इतना पसंद करने के लिए आप सबकी तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ .
कई दोस्तों ने कहा कि कहानी आगे बढाइये या कहानी में लम्बी कहानी का कथानक है मगर कभी- कभी कुछ अंत हमारे हाथ में नहीं होते नियति के होते हैं और ऐसे अंत भी होते हैं जहाँ लगता है कि अभी तो शुरू ही हुआ था और ये क्या हो गया मगर हमारे हाथ में कुछ नहीं होता .................कुछ ऐसे ही हालत को दर्शाने की कोशिश की है इस कहानी में ................ फ़िलहाल तो माफ़ी चाहती हूँ कि कहानी तो आगे नहीं बढ़ा रही मगर इस कहानी को लिखने के बाद कुछ ख्याल दिल में उपजे जिन्हें मैंने कविता में ढालने का प्रयास किया है .........अगली २-३ कवितायेँ इसी कहानी से प्रेरित अहसासों की बानगी हैं ..........आज पहली कविता लगा रही हूँ ............उम्मीद है उन भावों को आप समझेंगे और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे.
लो
आज मैंने
ठुकरा दिया
तुम्हें भी
तुम्हारे प्यार
को भी
जिसे तुम
पवित्र
नूर की बूँद
कहा करते थे
तुम्हारा प्यार
प्यार था कब ?
शायद
एक धोखा था
नज़रों का
तुम प्यार को
आत्मिक बँधन
कहा करते थे
मगर
उस पल
क्या हुआ
जब तुम्हारा
प्यार
आत्मिकता
से हटकर
वासनात्मक
हो गया
शरीर के
प्रलोभनों में
फँस गया
प्यार भी
मर्यादित
होता है
ये शायद
तुम नहीं जानते
एक जन्म के
कुछ पल
तो निभा
ना पाए
युगों का
प्रमाण क्या दोगे ?
आप सबके द्वारा कहानी को इतना पसंद करने के लिए आप सबकी तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ .
कई दोस्तों ने कहा कि कहानी आगे बढाइये या कहानी में लम्बी कहानी का कथानक है मगर कभी- कभी कुछ अंत हमारे हाथ में नहीं होते नियति के होते हैं और ऐसे अंत भी होते हैं जहाँ लगता है कि अभी तो शुरू ही हुआ था और ये क्या हो गया मगर हमारे हाथ में कुछ नहीं होता .................कुछ ऐसे ही हालत को दर्शाने की कोशिश की है इस कहानी में ................ फ़िलहाल तो माफ़ी चाहती हूँ कि कहानी तो आगे नहीं बढ़ा रही मगर इस कहानी को लिखने के बाद कुछ ख्याल दिल में उपजे जिन्हें मैंने कविता में ढालने का प्रयास किया है .........अगली २-३ कवितायेँ इसी कहानी से प्रेरित अहसासों की बानगी हैं ..........आज पहली कविता लगा रही हूँ ............उम्मीद है उन भावों को आप समझेंगे और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे.
लो
आज मैंने
ठुकरा दिया
तुम्हें भी
तुम्हारे प्यार
को भी
जिसे तुम
पवित्र
नूर की बूँद
कहा करते थे
तुम्हारा प्यार
प्यार था कब ?
शायद
एक धोखा था
नज़रों का
तुम प्यार को
आत्मिक बँधन
कहा करते थे
मगर
उस पल
क्या हुआ
जब तुम्हारा
प्यार
आत्मिकता
से हटकर
वासनात्मक
हो गया
शरीर के
प्रलोभनों में
फँस गया
प्यार भी
मर्यादित
होता है
ये शायद
तुम नहीं जानते
एक जन्म के
कुछ पल
तो निभा
ना पाए
युगों का
प्रमाण क्या दोगे ?
सोमवार, 18 अक्टूबर 2010
कभी तो माफ़ करेगी वो !
वो --------वो ही थी. ना जाने कैसे टकरा गयी थी ज़िदगी की राहों में चलते चलते. मैं तो जी ही रहा था अपने भीगे, उफनते ख्यालातों के साथ और वो ओस की बूँद सी शीतल, झरने सी झर- झर छनकती हुई जीवन में उतर आई . यूँ उसको अपने ख्यालों में जी रहा था . एक अक्स था जो आकार ले रहा था . मैं उसे जानना चाहता था . उस अक्स को साकार करना चाहता था मगर उम्मीद ना थी कि कभी वो बुत जीवंत हो उठेगा जो ख्वाबों की धरोहर था .......एक दिन वो ही अक्स साक्षात दिवास्वप्न सा विस्मित कर गया.
वो बादल छंटने लगे थे जो अक्स को धुंधला रहे थे. एक मनोरम छटा ज़िन्दगी को हुलसाने लगी थी .अब मेरे रोम- रोम में गीत प्रस्फुटित होने लगे थे. हर गीत का आधार वो ही तो थी . गीत की हर सांस में उसका ही तो स्पंदन था .उसके सान्निध्य में गीत मुखर होने लगे थे. वो जो पीछे कहीं छूट गयी थी उस चंचलता का समावेश होने लगा था . हर राग , हर रस गीत में उतरने लगा था .वो जो चाँदनी सी छा गयी थी , सुरों सी उसकी झंकार जब भी मन के तारों को झंकृत करती , नव सृजन हो जाता था. वो मेरे वजूद का हिस्सा नहीं थी बल्कि मेरा वजूद जैसे उसी में एकाकार हो गया था.
उम्र के उस दौर में जब इच्छाएं शेष नहीं रहतीं , उसका आना जैसे बूढ़े बरगद पर हरियाली का छा जाना था.जब भी उसे देखता तो कभी लगा ही नहीं कि मेरी उम्र अब उस दौर से आगे निकल चुकी है ............अपने को एक बार फिर भ्रमर सा गुंजारित ,उल्लसित महसूस करता ...............उस दौर में नवयुवक सा मेरा ह्रदय सीमाएं लांघने को आतुर रहने लगा. सारे जहाँ को चीख- चीख कर बताना चाहता था --------हाँ , मुझे मेरा अक्स मिल गया . मगर वो , वो तो सिर्फ अपने अंतस में ही कैद रहती थी. कभी किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती थी. ना ही मुझे बढ़ावा देती थी क्योंकि उम्र के उसी दौर से तो वो भी गुजर रही थी ...........वो तो सिर्फ एक सुखद अहसास के साथ खुश रहती थी और उसके आगे और कोई चाह नहीं रखती थी ...........कभी सीमाएं नहीं लांघती थी मगर मैं अपने प्रवाह में बहा जा रहा था. सागर सा उछाल मारता आकाश को छूने की चाह में और हर बार अपने ही आगोश में डूब जाता.
फिर भी कहीं तो कुछ था जो मुझे मुझसे छीन ले गया था और एक दिन मैं ही अपनी सीमा अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर गया और उसे सिर्फ मजाक में एक अपशब्द कह गया ..........चाहे मेरा मजाक था ये सिर्फ मैं जानता हूँ मगर उसके लिए तो वो विश्वासघात था , मर्यादा का हनन था और वो मुझे हमेशा -हमेशा के लिए छोड़ कर चली गयी .कुछ मज़ाक ज़िन्दगी को मज़ाक बना जाते हैं उम्र भर के लिए .
आज सदायें भेजता हूँ मगर गुनाह की कोई माफ़ी नहीं होती, जानता हूँ इसलिए ना अब जी पाता हूँ और ना मर पाता हूँ. कहीं देखा है किसी ने अपने ही हाथों अपनी कब्र खोदते किसी को और फिर खुद ही उस कब्र में दफ़न होते.दोज़ख की आग में जल रहा हूँ . अपने वजूद को ढूँढ रहा हूँ . मेरे गीत मुझसे रूठ चुके हैं क्योंकि गीतों के प्राणों को तो मैंने खुद ही अपने हाथों फाँसी पर लटकाया था .
बस ज़िन्दा हूँ तो सिर्फ इसी आस पर------------कभी तो माफ़ करेगी वो !
वो बादल छंटने लगे थे जो अक्स को धुंधला रहे थे. एक मनोरम छटा ज़िन्दगी को हुलसाने लगी थी .अब मेरे रोम- रोम में गीत प्रस्फुटित होने लगे थे. हर गीत का आधार वो ही तो थी . गीत की हर सांस में उसका ही तो स्पंदन था .उसके सान्निध्य में गीत मुखर होने लगे थे. वो जो पीछे कहीं छूट गयी थी उस चंचलता का समावेश होने लगा था . हर राग , हर रस गीत में उतरने लगा था .वो जो चाँदनी सी छा गयी थी , सुरों सी उसकी झंकार जब भी मन के तारों को झंकृत करती , नव सृजन हो जाता था. वो मेरे वजूद का हिस्सा नहीं थी बल्कि मेरा वजूद जैसे उसी में एकाकार हो गया था.
उम्र के उस दौर में जब इच्छाएं शेष नहीं रहतीं , उसका आना जैसे बूढ़े बरगद पर हरियाली का छा जाना था.जब भी उसे देखता तो कभी लगा ही नहीं कि मेरी उम्र अब उस दौर से आगे निकल चुकी है ............अपने को एक बार फिर भ्रमर सा गुंजारित ,उल्लसित महसूस करता ...............उस दौर में नवयुवक सा मेरा ह्रदय सीमाएं लांघने को आतुर रहने लगा. सारे जहाँ को चीख- चीख कर बताना चाहता था --------हाँ , मुझे मेरा अक्स मिल गया . मगर वो , वो तो सिर्फ अपने अंतस में ही कैद रहती थी. कभी किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती थी. ना ही मुझे बढ़ावा देती थी क्योंकि उम्र के उसी दौर से तो वो भी गुजर रही थी ...........वो तो सिर्फ एक सुखद अहसास के साथ खुश रहती थी और उसके आगे और कोई चाह नहीं रखती थी ...........कभी सीमाएं नहीं लांघती थी मगर मैं अपने प्रवाह में बहा जा रहा था. सागर सा उछाल मारता आकाश को छूने की चाह में और हर बार अपने ही आगोश में डूब जाता.
फिर भी कहीं तो कुछ था जो मुझे मुझसे छीन ले गया था और एक दिन मैं ही अपनी सीमा अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर गया और उसे सिर्फ मजाक में एक अपशब्द कह गया ..........चाहे मेरा मजाक था ये सिर्फ मैं जानता हूँ मगर उसके लिए तो वो विश्वासघात था , मर्यादा का हनन था और वो मुझे हमेशा -हमेशा के लिए छोड़ कर चली गयी .कुछ मज़ाक ज़िन्दगी को मज़ाक बना जाते हैं उम्र भर के लिए .
आज सदायें भेजता हूँ मगर गुनाह की कोई माफ़ी नहीं होती, जानता हूँ इसलिए ना अब जी पाता हूँ और ना मर पाता हूँ. कहीं देखा है किसी ने अपने ही हाथों अपनी कब्र खोदते किसी को और फिर खुद ही उस कब्र में दफ़न होते.दोज़ख की आग में जल रहा हूँ . अपने वजूद को ढूँढ रहा हूँ . मेरे गीत मुझसे रूठ चुके हैं क्योंकि गीतों के प्राणों को तो मैंने खुद ही अपने हाथों फाँसी पर लटकाया था .
बस ज़िन्दा हूँ तो सिर्फ इसी आस पर------------कभी तो माफ़ करेगी वो !
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
मेरे अपने कौन ?
मेरे अपने
कौन ?
पति
बेटा
या बेटियाँ
कौन हैं
मेरे अपने ?
ता-उम्र
हर रिश्ते में
अपना
अस्तित्व
बाँटती रही
ज़िन्दगी भर
छली जाती रही
मगर उसमे ही
अपना सुख
मानती रही
पत्नी का फ़र्ज़
निभाती रही
मगर कभी
पति की
प्रिया ना
बन सकी
मगर उसके
जाने के बाद
भी कभी
होंसला ना
हारती रही
माँ के फ़र्ज़
से कभी
मूँह ना मोड़ा
रात -दिन
एक किया
जिस बेटे
के लिए
ज़माने से
लड़ गयी
वो भी
एक दिन
ठुकरा गया
उस पर
सठियाने का
इल्ज़ाम
लगा गया
उसकी
गृहस्थी की
बाधक बनी
तो भरे जहाँ में
अकेला छोड़
दूर चला गया
पति ना रहे
बेटा ना रहे
तो कम से कम
एक माँ का
आखिरी सहारा
उसकी बेटियां
तो हैं
इसी आस में
जीने लगती है
ज़हर के घूँट
पीने लगती है
मगर एक दिन
बेटियाँ भी
दुत्कारने
लगती हैं
ज़मीन- जायदाद
के लालच में
माँ को ही
कांटा समझने
लगती हैं
रिश्तों की
सींवन
उधड़ने लगी
आत्म सम्मान
की बलि
चढ़ने लगी
अपमान के
घूँट पीने लगी
जिन्हें अपना
समझती थी
वो ही गैर
लगने लगी
जिनके लिए
ज़िन्दगी लुटा दी
आज उन्ही को
बोझ लगने लगी
उसकी मौत की
दुआएँ होने लगी
और वो इक पल में
हजारों मौत
मरने लगी
कलेजा फट
ना गया होगा
उसका जिसे
भरे बाज़ार
लूटा हो
अपना कहलाने
वाले रिश्तों ने
वक्त और किस्मत
की मारी
अब कहाँ जाये
वो बूढी
दुखियारी
लाचार
बेबस माँ
जिसका
कलेजा बींधा
गया हो
दो मीठे
बोलों को
जो तरस
गयी हो
व्यंग्य बाणों
से छलनी
की गयी हो
हर सहारा
जिसका
जब टूट जाये
दर -दर की
भिखारिन
वो बन जाए
फिर
कहाँ और
कैसे
किसमे
किसी
अपने को
ढूंढें ?
कौन ?
पति
बेटा
या बेटियाँ
कौन हैं
मेरे अपने ?
ता-उम्र
हर रिश्ते में
अपना
अस्तित्व
बाँटती रही
ज़िन्दगी भर
छली जाती रही
मगर उसमे ही
अपना सुख
मानती रही
पत्नी का फ़र्ज़
निभाती रही
मगर कभी
पति की
प्रिया ना
बन सकी
मगर उसके
जाने के बाद
भी कभी
होंसला ना
हारती रही
माँ के फ़र्ज़
से कभी
मूँह ना मोड़ा
रात -दिन
एक किया
जिस बेटे
के लिए
ज़माने से
लड़ गयी
वो भी
एक दिन
ठुकरा गया
उस पर
सठियाने का
इल्ज़ाम
लगा गया
उसकी
गृहस्थी की
बाधक बनी
तो भरे जहाँ में
अकेला छोड़
दूर चला गया
पति ना रहे
बेटा ना रहे
तो कम से कम
एक माँ का
आखिरी सहारा
उसकी बेटियां
तो हैं
इसी आस में
जीने लगती है
ज़हर के घूँट
पीने लगती है
मगर एक दिन
बेटियाँ भी
दुत्कारने
लगती हैं
ज़मीन- जायदाद
के लालच में
माँ को ही
कांटा समझने
लगती हैं
रिश्तों की
सींवन
उधड़ने लगी
आत्म सम्मान
की बलि
चढ़ने लगी
अपमान के
घूँट पीने लगी
जिन्हें अपना
समझती थी
वो ही गैर
लगने लगी
जिनके लिए
ज़िन्दगी लुटा दी
आज उन्ही को
बोझ लगने लगी
उसकी मौत की
दुआएँ होने लगी
और वो इक पल में
हजारों मौत
मरने लगी
कलेजा फट
ना गया होगा
उसका जिसे
भरे बाज़ार
लूटा हो
अपना कहलाने
वाले रिश्तों ने
वक्त और किस्मत
की मारी
अब कहाँ जाये
वो बूढी
दुखियारी
लाचार
बेबस माँ
जिसका
कलेजा बींधा
गया हो
दो मीठे
बोलों को
जो तरस
गयी हो
व्यंग्य बाणों
से छलनी
की गयी हो
हर सहारा
जिसका
जब टूट जाये
दर -दर की
भिखारिन
वो बन जाए
फिर
कहाँ और
कैसे
किसमे
किसी
अपने को
ढूंढें ?
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
"वर्जित फल"
नज़रों का स्पर्श भी
ना गंवारा हो जिसे
छूने या देखने की कोशिश
तो दूर की बात है
हवा के स्पर्श की भी
जिसे चाहत ना हो
रौशनी का स्पर्श भी
जलाता हो जिसे
रूह के मिलन को भी
जो अगले जन्म का मोहताज़ बना दे
इस जन्म की हर रस्म निभा दे
मगर अपने साये को भी जो
किसी साए का स्पर्श होने ना दे
एक अपना अलग
मुकाम जो बना ले
चाहने वालों को
मिलकर भी ना मिले
हर चाहत पर जो पहरे बिठा दे
किसी ने कहा है
मुझे
तुम ऐसा
"वर्जित फल" हो
ना गंवारा हो जिसे
छूने या देखने की कोशिश
तो दूर की बात है
हवा के स्पर्श की भी
जिसे चाहत ना हो
रौशनी का स्पर्श भी
जलाता हो जिसे
रूह के मिलन को भी
जो अगले जन्म का मोहताज़ बना दे
इस जन्म की हर रस्म निभा दे
मगर अपने साये को भी जो
किसी साए का स्पर्श होने ना दे
एक अपना अलग
मुकाम जो बना ले
चाहने वालों को
मिलकर भी ना मिले
हर चाहत पर जो पहरे बिठा दे
किसी ने कहा है
मुझे
तुम ऐसा
"वर्जित फल" हो
सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
माना..................
माना चाहत की डोर
बाँधी है तूने मुझसे
मगर मैंने नहीं
माना तेरी चाहत
पूजती है मुझे
माना मेरे जिक्र से
बढ़ जाती हैं धडकनें
माना पवित्र है
तेरी चाहत
माना नहीं है वासना
का लेश इसमें
माना मेरे ख्याल ही
तेरी धरोहर हैं
माना मेरे लिए ही
तू जिंदा है
माना मैं ही
तेरी ज़िन्दगी हूँ
माना तेरी हर साँस
मेरे नाम से चलती है
मगर फिर भी
नहीं लगता अच्छा
कोई मेरे वजूद को
अपने अहसासों
में भी छुए
बाँधी है तूने मुझसे
मगर मैंने नहीं
माना तेरी चाहत
पूजती है मुझे
माना मेरे जिक्र से
बढ़ जाती हैं धडकनें
माना पवित्र है
तेरी चाहत
माना नहीं है वासना
का लेश इसमें
माना मेरे ख्याल ही
तेरी धरोहर हैं
माना मेरे लिए ही
तू जिंदा है
माना मैं ही
तेरी ज़िन्दगी हूँ
माना तेरी हर साँस
मेरे नाम से चलती है
मगर फिर भी
नहीं लगता अच्छा
कोई मेरे वजूद को
अपने अहसासों
में भी छुए
शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
रूठ गया प्यार मेरा ..........
रूठ गया
प्यार मेरा
उसे अपना
कहने का
गुनाह जो
कर बैठा
अब कैसे
मनाऊँ
कौन सा
दीप जलाऊँ
कैसे उसे
समझाऊँ
सितारों कोई तो
राह दिखलाओ
तुमने तो कितने
चाहने वालों को
मनाते देखा होगा
मैं तो आसमाँ से
तारे तोड़कर
ला नहीं सकता
दूध की नदियाँ
बहा नहीं सकता
याद में उसकी
ताजमहल
बनवा नहीं सकता
फिर कैसे
मनाऊँ
कौन सा
दीप जलाऊँ
माना तुम
मेरी नहीं हो
मगर प्यार पर
बस भी तो
नहीं मेरा
ये इस
दिल को
कैसे समझाऊँ
अब अपने रूठे
प्यार को
कैसे मनाऊँ
कौन सा सुमन
भेंट करूँ जो
उसके ह्रदय की
थाह मैं पाऊँ
कौन सी ऋतु
का आह्वान करूँ
कौन सा मैं
राग सुनाऊँ
सितारों तुम ही
कोई राह
रोशन कर दो
उसके ह्रदय की
आकाशगंगा में
मेरे प्यार का
सितारा बुलंद
कर दो
उसे अपना चाहे
कह ना सकूँ
मगर मैं उसका
बन जाऊँ
आज कोई ऐसा
जतन कर दो
प्यार मेरा
उसे अपना
कहने का
गुनाह जो
कर बैठा
अब कैसे
मनाऊँ
कौन सा
दीप जलाऊँ
कैसे उसे
समझाऊँ
सितारों कोई तो
राह दिखलाओ
तुमने तो कितने
चाहने वालों को
मनाते देखा होगा
मैं तो आसमाँ से
तारे तोड़कर
ला नहीं सकता
दूध की नदियाँ
बहा नहीं सकता
याद में उसकी
ताजमहल
बनवा नहीं सकता
फिर कैसे
मनाऊँ
कौन सा
दीप जलाऊँ
माना तुम
मेरी नहीं हो
मगर प्यार पर
बस भी तो
नहीं मेरा
ये इस
दिल को
कैसे समझाऊँ
अब अपने रूठे
प्यार को
कैसे मनाऊँ
कौन सा सुमन
भेंट करूँ जो
उसके ह्रदय की
थाह मैं पाऊँ
कौन सी ऋतु
का आह्वान करूँ
कौन सा मैं
राग सुनाऊँ
सितारों तुम ही
कोई राह
रोशन कर दो
उसके ह्रदय की
आकाशगंगा में
मेरे प्यार का
सितारा बुलंद
कर दो
उसे अपना चाहे
कह ना सकूँ
मगर मैं उसका
बन जाऊँ
आज कोई ऐसा
जतन कर दो
बुधवार, 6 अक्टूबर 2010
दो रोटियों के बीच
आज रोटी बनाते -बनाते
तुम्हारे ख्याल ने
आकर पुकारा
और हाथ बेलन
पर ही रुक गया
और ख्याल मुझसे
आकर उलझ गया
मुझे अपने साथ
उडा ले चला
जहाँ तुम्हारा साथ था
हाथ में हाथ था
सपनो का महल था
बगीचे में झूला पड़ा था
मैं झूल रही थी
तुम झुला रहे थे
हवा के संग
मीठी - मीठी
सरगोशियाँ किये
जा रहे थे
आँखें मेरी बंद थी
और दिल में एक
उमंग थी
प्रेम का चटक रंग
होशो- हवास भुला
रहा था
कहीं कोई भंवरा
किसी कली पर
मंडरा रहा था
जिसे देख दिल
धड़क - धड़क
जा रहा था
ये कैसा
मदहोश करता
पल था
प्रेम के आँगन में
मन मयूर
नृत्य किये
जा रहा था
और तेरी
रूह के आगोश में
सिमटे जा रहा था
तभी ना जाने
कैसे एक झोंका
हवा का आया
और तवे पर जलती
रोटी ने हकीकत का
आभास कराया
अब कभी चकले पर
अधबिली रोटी को
देख रही थी मैं
तो कभी
तवे पर जली रोटी
मुझे देख
हँस रही थी
"पागलों की सरदार" की
उपाधि दे रही थी
हाय ! दो रोटियों के बीच
आये उस ख्वाब को
अब मैं कोस रही थी
और हालत पर अपनी
मैं खीज रही थी
तुम्हारे ख्याल ने
आकर पुकारा
और हाथ बेलन
पर ही रुक गया
और ख्याल मुझसे
आकर उलझ गया
मुझे अपने साथ
उडा ले चला
जहाँ तुम्हारा साथ था
हाथ में हाथ था
सपनो का महल था
बगीचे में झूला पड़ा था
मैं झूल रही थी
तुम झुला रहे थे
हवा के संग
मीठी - मीठी
सरगोशियाँ किये
जा रहे थे
आँखें मेरी बंद थी
और दिल में एक
उमंग थी
प्रेम का चटक रंग
होशो- हवास भुला
रहा था
कहीं कोई भंवरा
किसी कली पर
मंडरा रहा था
जिसे देख दिल
धड़क - धड़क
जा रहा था
ये कैसा
मदहोश करता
पल था
प्रेम के आँगन में
मन मयूर
नृत्य किये
जा रहा था
और तेरी
रूह के आगोश में
सिमटे जा रहा था
तभी ना जाने
कैसे एक झोंका
हवा का आया
और तवे पर जलती
रोटी ने हकीकत का
आभास कराया
अब कभी चकले पर
अधबिली रोटी को
देख रही थी मैं
तो कभी
तवे पर जली रोटी
मुझे देख
हँस रही थी
"पागलों की सरदार" की
उपाधि दे रही थी
हाय ! दो रोटियों के बीच
आये उस ख्वाब को
अब मैं कोस रही थी
और हालत पर अपनी
मैं खीज रही थी
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
आज नहीं बनाये जाते मोहब्बत के मकबरे.............
इश्क हुआ होगा कभी
राँझा को हीर से
मजनू को लैला से
फरहाद को शीरीं से
जिन्होंने इश्क को
इबादत बनाया
खुदा से भी पहले
जुबान पर
महबूब का नाम आया
खुदा और इश्क में जहाँ
ना फर्क नज़र आया
क्या कर सकेगा इबादत
तू भी महबूब की
बना सकेगा खुदा
अपनी मोहब्बत का
हो सकेगा कुर्बान
मोहब्बत की खातिर
दे सकेगा मोहब्बत के
खुदाई जुनून का इम्तिहान
रे पगले ! ये किस्से
कहानियों की बात और है
इश्क के इम्तिहान की
बात और है
आज नहीं बनाये जाते
मोहब्बत के मकबरे.............
राँझा को हीर से
मजनू को लैला से
फरहाद को शीरीं से
जिन्होंने इश्क को
इबादत बनाया
खुदा से भी पहले
जुबान पर
महबूब का नाम आया
खुदा और इश्क में जहाँ
ना फर्क नज़र आया
क्या कर सकेगा इबादत
तू भी महबूब की
बना सकेगा खुदा
अपनी मोहब्बत का
हो सकेगा कुर्बान
मोहब्बत की खातिर
दे सकेगा मोहब्बत के
खुदाई जुनून का इम्तिहान
रे पगले ! ये किस्से
कहानियों की बात और है
इश्क के इम्तिहान की
बात और है
आज नहीं बनाये जाते
मोहब्बत के मकबरे.............