दौड़ती भागती रही उम्र भर
तेरे इश्क की कच्ची गलियों में
लगाती रही सेंध बंजारों की टोलियों में
होगा कहीं मेरा बंजारा भी
जिसकी सारंगी की धुन पर
इश्क की कशिश पर
नृत्य करने लगेंगी मेरी चूड़ियाँ
रेशम की ओढनी पर
लगी होंगी जंगली बेल बूँटियाँ
और बजती होंगी किसी
मंदिर की चौखट पर
इश्क की घंटियाँ
स्वप्न के पार होगी कहीं
कोई स्वप्निली घाटियाँ
जिसके एक छोर पर
सारंगी बजाता होगा मेरा बंजारा
और दूसरे छोर पर
कोई रक्कासा की परछाईं
करती होगी नृत्य सांझ की चौखट पर
एक धूमिल अक्स झुक रहा होगा आसमाँ का
करने कदमबोसी इश्क की ..........
सुनो ............आवाज़ पहुंची तुम तक ?
मेरे ख्वाबों की चखरी पर
हकीकत का मांजा क्यों नहीं चढ़ता ?
ये आखिरी ख़त की भाषा
कोई रंगरेज क्यों नहीं समझता ?
शायद अब इश्क की बारातें नहीं निकला करतीं
जनाजों की धूम खामोश होने लगी है
तभी तो देखो ना ..................
मैंने जो पकड़ी थी एक लकीर हाथों से
उसके बस निशाँ ही हथेली पर पसरे पड़े हैं
मगर कोई ज्योतिषी बूझ ही नहीं पा रहा
इश्क का ज्ञान .............
देखो ना मेरी हथेली पर
सारी रेखाएं मिट चुकी हैं
सिर्फ इश्क की रेखा ही कैसे टिमटिमा रही है
फिर भी नहीं कर पा रहा कोई भविष्यवाणी
अब ये भविष्य वक्ता का दोष है या इश्क की इन्तेहाँ
जो बस सिर्फ एक रेखा का गणित ही
सवाल हल नहीं कर पा रहा
और देखो तो ............सदियाँ बीत गयीं
सुलझाते सुलझाते धागे की उलझन को
बालों में उतरी चाँदी गवाह है इसकी
जितना सुलझाने की कोशिश करती हूँ
जितना मौलवी से कलमे पढवाती हूँ
ताबीज़ गढ़वाती हूँ
ये नामुराद इश्क की रेखा उतनी ही सुर्ख हो जाती है
ना ना .........इश्क की रेखा हर हथेली में नहीं होती
और जिसमे होती है तो वहाँ
बस सिर्फ एक वो ही रेखा होती है
और मेरी हथेली की जमीन देखो तो ज़रा
कितनी चमक रही है
बर्फ की चादर बिछी है
जिसकी मांग सिन्दूर से भरी है
अमिट है मेरा सुहाग ......जानते हो ना
तभी तो दिन पर दिन
सुहागरेखा कैसे गहरा रही है
इसीलिए अब बंद रखती हूँ मुट्ठी को
कहीं नज़र ना लग जाए
वैसे तुम्हारी नज़र का
इन्तखाब तो आज भी है
मगर इंतज़ार के पुलों पर
ख्वाबों के बाँध बांधे तो
युगों बीत गए .........
क्या पहुँचा तुम तक
इंतज़ार -ओ-इश्क का जूनून
जानती हूँ नहीं पहुँचा होगा
तभी तो लहू का रिसना जारी है
यूँ ही इश्क का सुहाग अमर नहीं होता
जब तक ना दर्द का लहू रिसता
और फिर बंजारों की टोलियाँ
वैसे भी कब महलों की मोहताज हुई हैं
इश्क की चादरें तो बिना धागों के बुनी जाती हैं
और मेरी हथेली के बीचो बीच खिंची रेखा तो
लक्ष्मण रेखा से भी गहरी है , अटल है , तटस्थ है
जो इश्क की सुकूनी हवाओं की मोहताज नहीं
ओ मेरे इश्क के बंजारे ...........तू जहाँ भी है
याद रखना ...........एक दिन इश्क के जनाजे में ताशे तू ही बजा रहा होगा
और मेरा इश्क गुनगुना रहा होगा
रब्बा इश्क के पाँव में मेहंदी लगा दे कोई
इक शब की दुल्हन बना दे कोई ............
फिर भी कहती हूँ
यूँ इश्क के पेंचोखम में उलझना ठीक नहीं होता ...............जान की कीमत पर
क्योंकि
इंसानियत की रूह जब उतरती है
तब इश्क की दुल्हन अक्स बदलती है ...........और आइनों पर लिबास नहीं होते
देख लेना आकर क़यामत के रोज़ मेरी हथेलियों की सुर्ख रंगत ..........
जो किसी मेहंदी की मोहताज नहीं
फिर चाहे तेरे इंतज़ार की ही क्यों ना हो ............
इश्क का पंचनामा ऐसे भी हुआ करता है …………ओ मेरे बंजारे !!!!!!!!