तुम्हारी ख्वाबों की दुनिया
का कैनवस कितना
विस्तृत है
है ना ...........
उसमे प्रेम के
कितने अगणित रंग
बिखरे पड़े हैं
कभी तुम मेरे साथ
किसी अन्जान शहर की
अन्जान गलियों में
विचर रहे होते हो
तो कभी तुम
मेरे जूडे में
फूल लगा रहे होते हो
कभी तुम किसी
मंदिर की सीढ़ी पर
मेरे प्रेम की
आराधना कर रहे होते हो
तो कभी किसी
बियावान में
अकेले , तन्हा
मेरी यादों के साथ
भ्रमण कर रहे होते हो
कभी तुम किसी
गुलमोहर से मेरा
पता पूछ रहे होते हो
तो कभी किसी
अन्जान स्टेशन पर
मुझसे बिछड़ रहे होते हो
कभी खुद को
लहूलुहान कर रहे होते हो
तो कभी यादों को
ख्वाबों के दामन से
खुरच रहे होते हो
कितना विस्तृत है
तुम्हारे प्रेम का कैनवस
कहीं भी तुम
तन्हा नहीं होते
हमेशा मेरी यादों के साथ
अपनी ख्वाबगाह में
सैर कर रहे होते हो
फिर कहाँ से
यादों की परछाइयाँ
तुम्हें सताएंगी
वो तो हर पल
तुम्हारे साये में
स्वयं को
महफूज़ महसूस
करती होंगी
मगर देखो तो
हमारे प्रेम के
कैनवस का
दूसरा पक्ष
ज़रा पलटकर तो देखो
इस कैनवस को
इसके पीछे
सिर्फ और सिर्फ
एक ही रंग है
जानते हो तुम
वो रंग जिस पर
कभी कोई रंग
चढ़ा ही नहीं
जो किसी के
कपोलों पर लग जाये
तो सुन्दरता
निखर जाती है
है ना...........
अब देखो मुझे
उस रंग में
क्या दिखाई देती हूँ ?
नहीं ना ..........
क्यूंकि मेरे प्रेम का कैनवस
सिर्फ मुझमे ही
सिमट कर रह गया है
उसमे तुम्हारा वजूद
न जाने कहाँ खो गया है
जब भी कोई रंग
भरना चाहा तुमने
कैसे इस रंग में
सिमट गया
क्योंकि
मैंने तो प्रेम का
सिर्फ एक ही रंग जाना है
प्रेम कब किसका
संपूर्ण हुआ है
विरहाग्नि की तप्त ज्वाला में
दग्ध प्रेम ही शायद
पूर्ण हुआ है
इसलिए उसका सिर्फ
एक ही रंग हुआ है
ख़ामोशी में भीगता
विरह का रंग
इक दूजे में
एकाकार होता
सम्पूर्णता को पाता
प्रेम का रंग
तन से परे
मन के पार
तुम्हारे और मेरे
ख्वाबों के दामन में सिमटा
सिर्फ वो ही है
हमारे प्रेम का रंग
क्यों है ना............