जब भी चाहा तुमने
सिर्फ़ देह को चाहा
रूप के सौदागर बनेसिर्फ़ देह को चाहा
भोग सम्भोग के पार
ना जाना तुमने
एक नया आकाश
एक नई धरती
एक नयी दुनिया
तुम्हारे इंतजार में थी
मगर तुमने तो
दुनिया के तमाम
रास्ते ही बंद कर दिए
पता नहीं मिटटी में
तुम्हें कौन सा सुख मिला
जो तुम कभी
मूरत तक पहुँच ही नहीं सके
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
मगर कभी
अपना लिबास
ना बदल पाए
और मैं
तुममे
अपना एक
जहान खोजती रही
देह से परे
एक ऐसा आकाश
जिसका कोई
छोर ना हो
जहाँ कोई
रिश्ते की गंध
ना हो
जहाँ रिश्ता
बेनाम हो जाये
सिर्फ शख्सियत
काबिज़ हो
रूहों पर
और ज़िन्दगी
गुजर जाए
मगर सपने
कब सच हुए हैं
तुम भी
वैसे ही निकले
अनाम रिश्ते को
नाम देने वाले
दर्द को ना
समझने वाले
देह तक ही
सीमित रहने वाले
शायद
सबका अपना
आकाश होता है
और दूसरे के आकाश में
दखल देने वाला ही
गुमनाम होता है
जैसे आज तुमने
मुझे गुमनाम कर दिया
जिस रिश्ते को
कोई नाम नहीं दिया था
उसे तुमने आज
बदनाम कर दिया
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?