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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

नव सृजन का वक्त बुला रहा है

समय के धरातल पर
कवितायें उगाना छोड़ो कवि
वक्त की नब्ज़ को ज़रा पहचानो
अब कहाँ फूल बागों में खिलते हैं
अब कहाँ आकाश में उन्मुक्त पंछी उड़ते हैं
अब कहाँ धरती सोना उगलती हैं
अब कहाँ शीतल सुगन्धित मंद मंद
पुरवाई चलती है
अब कहाँ संस्कारों की फसल उगती है
अब कहाँ लहू शिराओं में बहता है
अब कहाँ रिश्तों में अपनापन होता है
कवि एक बार आत्मावलोकन तो कर लो
वक्त की तेज़ रफ़्तार को ज़रा पहचानो
तुम्हारी कवितायें , तुम्हारे भाव
तुम्हारे रंग, तुम्हारे मौसम
किसी का असर क्या  कहीं दीखता है
अब तो खेतों में हथियारों की खेती होती है
हर जमीन अब हथियार उगलती है
अब तो हवाओं में ज़हरीली गैस मिली होती है
साँसों के साथ लहू में घुली होती हैं
अब तो संस्कारों की ही बलि चढ़ाई जाती है
तब जाकर इज्जत कमाई जाती है
अब लहू तो हर चौराहे पर बिखरा होता है
जिसकी ना कोई कीमत होती है
अब तो कैद में हर पंछी होता है
जिसका ना कोई धर्म होता है
अब तो हर मोड़ पर
रिश्तों का क़त्ल होता है
जो रचा था तुमने कवि
सब काल कलवित हो गया
जो बोया था वक्त के धरातल पर
उसमे ज़हर घुल गया
कैसे इस अनजाने प्रदेश में कवि
अब कहाँ खुद को समाओगे
तुम भी इस अंधकूप में
इक दिन सो जाओगे
गर उगाना है तो
इक ऐसा वटवृक्ष उगा देना
जो काल का भी महाकाल बन जाये
वक्त को रसातल से खींच लाये
हर मन में सुरभित सुगन्धित
इक नयी बगिया खिल जाये
अगर कर सको ऐसा तो तभी
नव सृजन करना कवि
वरना तुम भी वक्त की आँधी में
काल कवलित हो जाओगे
कहीं भी अपनी कविताओं का
पार ना पाओगे
गहन अन्धकार में डूब जाओगे
समय की वक्रदृष्टि
पड़ने से पहले
जागो कवि जागो
उठो , करो आवाहन
एक नए युग का
नव सृजन का
वक्त बुला रहा है

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

जिसके नाम का गरल पी जाऊँ

प्रेम के पनघट पर सखी री
कभी गागर भरी ही नही


मन के मधुबन मे
कोई कृष्ण मिला ही नही


जिसकी तान पर दौडी जाऊँ
ऐसी बंसी बजी ही नही


किस प्रीत की अलख जगाऊँ
ऐसा देवता मिला ही नही


किस नाम की रट्ना लगाऊँ
कोई जिह्वा पर चढा ही नही


कौन सी कालिन्दी मे डूब जाऊँ
ऐसा तट मिला ही नही


जिसके नाम का गरल पी जाऊँ
ऐसा प्रेम मिला ही नहीं


वो जोगी मिला ही नही
जिसकी मै जोगन बन जाऊँ


फिर कैसे पनघट पर सखी री
प्रीत की मै गागर भर लाऊँ


गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

सीरतों पर भी नकाब होते हैं ..........

सीरत पर फ़िदा होने वाले
ये तेज़ाब के खौलते नालों में
अपना पता कहाँ पायेगा
खुद भी फ़ना हो जायेगा

इस शहर को अभी जाना कहाँ तूने
ये दूर से ही अच्छा लगता है 
ज्यूँ हुस्न परदे में ढका लगता है
इस शहर के हर चौराहे पर 
एक होर्डिंग टंगा होता है 
बचकर चलना ---आगे तीक्ष्ण खाइयाँ हैं 
जो भी गिरा फिर न वो बचता है
बाहरी सौंदर्य पर मुग्ध होने वाले
सर्प दंश से कब कौन बचता है 

ये ऐसी भयावह कन्दरा है 
उस पार का न कुछ दिखता है 
अन्दर आने का रास्ता तो है
बाहर का न कहीं दीखता है 
 हर सड़क इस शहर की 
एक दहकते अंगार की कहानी है
जहाँ मौत भी रुसवा हो जाये
ये ऐसी बियाबानी है

सीरत अवलोकन भी 
बाहरी दृश्यबोध कराता है
सीरत में छुपे अक्स को 
न दिखा पाता है
यहाँ रेत की दीवारें नहीं 
जो ढह जायें 
चारदीवारी मजबूत 
तूफानों से बनी है
हर तरफ चक्रवात 
चलता रहता है
जो शहर को न 
बसने देता है
ऐसे में तू अपना 
अस्तित्व कहाँ पायेगा ?
इस शहर की रूह की
उबलती , दहकती 
दरकती साजिशों 
में ही मिट जायेगा
मत आ ,
मत कर अवलोकन
मत देख सीरत
सीरतों पर भी नकाब होते हैं ..........
 

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

"तुम्हारे इंतजार में "

दोस्तों 
अभी थोड़ी देर पहले ही ये फोटो देखी फेसबुक पर विजय सपत्ति जी की और देखते ही ये ख्याल उमड़ आया तो सोचा आपसे भी इसे बांटा जाये  .................






देख कब से बैठे हैं तेरे इंतज़ार मे
ये बैंच, ये दरख्त और ये राहें
यहाँ अब कोई मौसम नहीआता
एक खामोश सदा आवाज़ देती है
तुझे बुलाती है और जब
तू नही आता ना तब
वक्त इस दरख्त पर आकर
बैठ जाता है एक बार फिर
इंतज़ार मे सूखने के लिये
देख ना तेरे इंतज़ार की
आस मे राहें भी बंजर
हो गयी हैं ………
एक उदासी इनके
पहलू मे दस्तक
दे रही है …………
कह रही है मुसाफ़िर
कब आओगे फिर
इसी पथ पर्………।
इन राहो पर एक
अजनबियत काबिज़ हो गयी है
और देख ना इस बैंच को
कैसा सूना - सूना खामोश मंज़र
इसे घेरे बैठा है…………
किसी के अरमानो को
सजाने के लिये
ये भी बाहें फ़ैलाये
कब से इंतज़ार की
शाख पर सूख रहाहै
मगर तुम्………
तुम आज भी नही आये
मुसाफ़िर ………बस एक बार
हसरत पूरी कर जाना
दम निकलने से पहले
इंतज़ार को मुकाम
दे जाना…………
फिर जनम हो ना हो
और इंतज़ार अधूरा रह जाये…………

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

चरित्रहीन हूँ मैं……………

ये क्या गज़ब् कर दिया
छूत का रोग बना दिया
हाय री मोहब्बत !तुझे
सबने रुसवा कर दिया
कभी मोहब्बत करके देखा होता
सबमे खुदा नज़र आया होता
फिर ना ये इल्ज़ाम लगाया होता
चरित्रहीन हूँ मैं………………………
क्योंकि मोहब्बत की है मैने


एक बार इस आग मे जले होते
तो जाना होता
एक बार सीने से लगाकर देखते
तो जाना होता
एक बार अश्क बहाकर देखते
तो जाना होता
एक बार किसी के लिये मिट्कर देखते
तो जाना होता
मोहब्बत कैसे होती है
मोहब्बत क्यो होती है
मोहब्बत कैसी होती है
फिर ना ये इल्ज़ाम लगाया होता
चरित्रहीन हूँ मैं……………
क्योंकि मोहब्बत की है मैने


मोहब्बत तो वक्त का वो ताज़ है
जो किसी खास दिल के लिये होता है
ये नगमा हर साज की आवाज़ नही होता
मोहब्बत को खुदा कहो या
खुदा को मोहब्बत
एक बार इबादत की होती
एक बार इस दरिया मे उतरा होता
एक बार इसमे डूबा होता
फिर ना पार पाया होता
तुझे सिर्फ़ खुदा ही खुदा
नज़र आया होता
फिर ना ये इल्ज़ाम लगाया होता
चरित्रहीन हूँ मैं……………
क्योंकि मोहब्बत की है मैने


मोहब्बत को दाग मत लगाओ
ये इल्ज़ाम मत लगाओ
पाक साफ़ नेमत है
खुदा की ही इबादत है
एक बार करके तो देखो
हीर रांझा न बन जाओ तो कहना
मीरा राधा न बन जाओ तो कहना
रहीम रसखान न बन जाओ तो कहना
मोहब्बत तो प्यारे सिर्फ़ मोहब्बत होती है

जिसमे ना कोई छूआछूत होती है
अब न कहना कभी फिर से
चरित्रहीन  हूँ मैं  .......................
क्योंकि मोहब्बत की है मैंने

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

वो मुझमे क्या ढूँढता था ................

कभी दिन तो कभी रात ढूँढता था
कभी सुबह का मसीहा बनाता था
कभी शाम की दुल्हन बनाता था
कभी भरी दोपहर में चाँद दिखाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ..................


कभी तमन्नाओं की पायल पहनाता था
कभी आस के बिस्तर पर सुलाता था
कभी ख्वाब सा मुझे सजाता था
कभी गुलाब सा खिल जाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ....................


कभी चिंदियों सा बिखर जाता था
कभी सुनहरी धूप सा मुरझाता था
कभी आसमां सा शरमाता था
कभी सांसों सा धड़क जाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ......................


कभी चाँद को जूडे में सजाता था
कभी सितारों की नथनी बनाता था
कभी धरा के कंगन बनाता था
कभी परिंदों सा चोंच लडाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था..................


मेरा अतीत अपना वर्तमान ढूँढता था
शायद वो मुझमे कोई मकां ढूँढता था
कोई तो बता दे इक बार
वो मुझमे क्या ढूँढता था ................

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

आओ सजन वर्षगणना करें





आओ सजन वर्षगणना करें
बीते वर्षों का अवलोकन करें
पहला वर्ष आँधियों  की गर्द
दूसरा वर्ष एक संघर्ष
तीसरा वर्ष सुनहरा ख्वाब
चौथे पांचवें हवा हो गए
बिटिया के साथ कहाँ खो गए
ज़िन्दगी मस्त गुज़रने लगी
अभावों में भी रौशन होने लगी
सातवें वर्ष सूरज रौशन हुआ
एक नया मेहमान
ज़िन्दगी में आ गया
परिवार पूरा हो गया
आठवां वर्ष संघर्ष लाया था
बेटे को भारी बताया था
मगर ज़िन्दगी रफ़्तार पकडती रही
जाने कितने मौसम बदलती रही
कभी मौसम आते जाते रहे
कभी ज़िन्दगी में ठहरते रहे
कुछ पतझड़ भी आने बाकी थे
ज़िन्दगी के इम्तिहान बाकी थे
कभी आत्मा लहूलुहान होती रही
कभी ज़िन्दगी से लडती रही
एक छोर तुमने सम्हाला था
दूजा मुझमे समाया था
संघर्षों ने हमको बताया था
ज़िन्दगी फूलों की सेज ही नहीं
काँटों के बाग़ भी मिलते हैं
बचकर चलने वाले ही पार निकलते हैं
अपने परायों की पहचान होने लगी
ज़िन्दगी भी हैरान होने लगी
कभी हम परेशान होते थे
अब ज़िन्दगी परेशान होने लगी
कैसे ये हँस लेते हैं
ज़िन्दगी से लड़ लेते हैं
जीना आखिर हम सीख ही गए
२३ वर्ष पल में बीत गए
क्या खोया क्या पाया है
इसका ना हिसाब लगाया है
अब चाहतों की कोई चाहत नहीं
बीते वर्षों के अवलोकन में
एक बात समझ आ गयी
किसी सहारे की आदत नहीं
मगर एक दूजे बिन हम अधूरे हैं
इतना हमें समझा गयी
ज़िन्दगी हमें रास आ गयी

आओ सजन आने वाले कल में
एक नया कल सजायें
अब ज़िन्दगी को उसका मुकाम दिलाएं
जो छूट गया था जीवन में
उसको अब सफल बनाएँ
कुछ अपने कुछ तुम्हारे सपनो का
एक नया जहान बनाएँ 

 ज़िन्दगी की अनुभूतियाँ ज़िन्दगी के साथ रहती हैं और कदम कदम पर एक नया अहसास देती हैं फिर चाहे एक अरसा ही क्यों ना बीत गया हो मगर जेहन में ताज़ा रहती हैं कम से कम वो जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं .उन्ही यादों में से कुछ यादें साथ साथ चलती हैं और ले जाती हैं हमें एक ऐसे जहान में जहाँ हम उनसे रु-ब-रु होते हैं तो पता चलता है वक्त तो अभी शायद वहीँ खड़ा है जिसे हम सोच रहे थे कि फिसल गया हाथ से वो तो आज भी उसी दहलीज पर इंतज़ार में खड़ा है कि कब कोई आएगा दिया रोशन करने .

वक्त ने किया क्या हसीन सितम हम रहे ना हम तुम रहे ना तुम...........कितना सही कहा है किसी ने ...........ऐसा ही तो होता है जब एक पौधे को एक आँगन से उखाड़ कर दूजे में रोपा जाता है और फिर वो उस आँगन की हवा , पानी , मिटटी और स्नेह से धीरे धीरे वहाँ खिलना शुरू कर देता है ...........उसे उस आँगन में कोई अपना मिल जाता है जो उसके जीवन में साथी की कमी पूरी कर देता है तो वो उसमे अपना जीवन देखने लगता है और वक्त के साथ वो पौधा एक वृक्ष बन जाता है  मगर साथ चलते चलते उसका साथी और वो पौधा कब एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं पता ही नहीं चलता एक के बिना दूजे का अस्तित्व जैसे अधूरा लगने लगता है ..........कब साथी से एक बहुत अच्छे दोस्त बन जाते हैं उन्हें पता नहीं चलता मगर ये वक्त है ना सब बता देता है जब एक अरसा साथ रहने के बाद एक दूसरे की अहमियत का अहसास होता है.

आज शादी की 23 वीं सालगिरह पर ज़िन्दगी के सफ़र में-------- पवन जी जैसा साथी जो पति के अलावा एक दोस्त भी बने और दोस्त के साथ सफ़र कैसे तय हो जाता है पता ही नहीं चलता ...........वो  मार्गदर्शक  भी बने ............सही मायनो में हमसफ़र ...........तभी सफ़र यहाँ तक पहुँच पाया ...........

 अब तो बस यही तमन्ना है .........
ज़िन्दगी की शाम उनकी बाँहों में हो 
और फिर उस सुबह की कोई शाम ना हो

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

कल्पनाएँ

 कल्पनाएँ कितनी
मासूम होतीहैं 
कल्पनाओं के लोक में
विचरण करता प्राणी 
कुछ पलों के लिए 
स्वयं से , ज़िन्दगी से
अलग हो जाता है 
और कल्पनाओं के 
सागर में गोते खाता 
खुद को कितना 
धनवान समझता है
कल्पनाओं का कोई 
आधार नहीं होता 
ये तो कल्पनालोक में 
भ्रमण करने वाला 
प्राणी ना जाने 
किन - किन
लोकों में भ्रमण 
कर आता है 
मगर 
आधारहीन कल्पनाएं 
ही कभी - कभी
किसी के जीवन का
संबल बन जाती हैं 
सब जानते हैं
कल्पनाएं सत्य नहीं
एक आभास है
एक भ्रम हैं
मगर कुछ भ्रम 
मधुर होते हैं
और प्राणी उन 
मधुर भ्रमों में
ज़िन्दगी गुजार 
देना चाहता है
या कहो 
एक नया 
जीवन पाता है
ज़िन्दगी के 
संघर्ष में कल्पनाएं
उस पुल का 
काम करती हैं
जो इन्सान को 
नव सृजन को
प्रेरित करती हैं
और लक्ष्य प्राप्ति की ओर 
अग्रसित करती है
बेशक कल्पनाओं का
कोई अस्तित्व नहीं 
मगर फिर भी 
कल्पनाएँ अपने 
होने एक आभास
करा देती हैं
और इन्सान को 
जीना सीखा देती हैं  

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

अब अश्रु नही बहाती हूँ

अब अश्रु नही बहाती हूँ
अर्धांगिनी का हर फ़र्ज़
खूब निभाती हूं
अब तुमसे कुछ नही चाहती हूँ
शायद इसीलिये जी पाती हूँ

टाँक दि्या उन बरसो को
आसमाँ पर सितारे बना
जब प्रतीक्षा किया करती थी
हर वेदना के बूँटे बना
सजाया है आसमाँ की चूनर को
अब नीर नही बहाती हूँ
और तुझसे भी कुछ नही चाहती हूँ

डूबा दी वो कश्ती दरिया मे
जिसका साहिल तुम्हे बनाती थी
तुम संग महकने के
बेशुमार इत्र लगाती थी
अब ना दरिया है ना साहिल है
ना महकने की चाहत है
साजन , हाँ , मानो मेरी बात
अब तुम मुझे बुलाते हो
मगर मै ना आ पाती हूँ
मगर
अब न अश्रु बहाती हूँ
और तुमसे भी कुछ ना चाहती हूँ

हर मौसम पर अब मै
धूप की चादर लगाती हूँ
शीत बरखा का अब डर कैसा
ग्रीष्म को गले लगाती हूँ
छालों से मोहब्बत करती हूँ
मगर तुम से ना अब
कुछ चाहती हूँ
और साजन

तुम्हारी भी ना
अब बन पाती हूँ
इसलिये
अब न अश्रु बहाती हूं…………

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

लो आज फिर तोड़ दिया ना अपना वादा तुमने

लो
आज फिर तोड़ दिया ना
अपना वादा तुमने
मैं तो रुकी थी
तेरे वादे की शाख पर
ठहरी थी और ठहरा दिया था
आज आसमाँ को भी
रुक गया था दिनकर भी
अपने रथ के साथ
सिर्फ तेरे लिए
तेरी आरजू के लिए
तेरी तमन्ना को
सुकून देने के लिए
देख अभी तक
सांझ उतरी नहीं है
देहरी पर मेरी
और तू खुद ही
मुझे दोपहर के
चौबारे पर
तनहा छोड़ गया
अब बता
इस दोपहर की
शाम कैसे और कब होगी
कब तक यूँ ही
ज़िन्दा जलती रहेगी
इंतज़ार की भट्टी में
क्या इसे ही इम्तिहान कहते हैं
वादों पर कुर्बान हो जाना
और उसे याद भी ना आना
कहाँ छोड़ गया आया था
एक दिया जलता हुआ
अब तो तुझे याद भी न होगा
और देख मै भरी दोपहरी मे
आज भी खडी  हूँ
तेरे इन्तज़ार की
तपती जमीन पर
धूप का दुशाला ओढे हुये

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

ब्लॉगर मीट की कहानी सुनो



ब्लॉगर मीट की कहानी सुनो
एक बात मेरी जुबानी सुनो
जब से ब्लॉगिंग कर ली है
एक बात मैंने समझ ली है

आप पूछेंगे क्या ?
अजी और कुछ नहीं
सिर्फ इतना ही
ब्लॉगिंग जमे ना ब्लोगर्स बिना
मीट जमे ना अविनाश जी बिना

दिल्ली में जमावड़ा इकठ्ठा था

कौन कौन आने में शामिल था
इसका कच्चा चिटठा सुनाती हूँ
खुशदीप जी  ने महफ़िल सजाई थी
साथ में मैडम खुशदीप भी आई थीं
नए ब्लोगर राकेश जी
को साथ लाये थे
सर्जना ने प्रोग्राम बनाया था
गीताश्री ने झंडा उठाया था
समीर जी के सम्मान में
ब्लोगर मीट कराया था
इरफ़ान भाई भी आये थे
कार्टूनों का मसौदा साथ ले गए हैं
सतीश सक्सेना ,शाहनवाज़ सिद्दीकी
भी आये थे
रंग महफ़िल में जमा गए थे
एक आश्चर्य महान हुआ
जिसने सभी को लुभाया था
रविन्द्र प्रभात जी लखनऊ से आये थे
महफूज़ को भी साथ लाये थे
सबने मिलकर  रंग जमाया था
होली से पहले होली का रंग आया था
राजीव तनेजा भी आये थे
साथ में भार्या को भी लाये थे
प्रतिभा कुशवाहा  भी आई थीं
पाखी का रंग साथ लाई थीं
आखिर में अजय झा भी आये थे
वकालत  के हथकंडे आजमाए थे
सबने बड़ा धमाल किया
दिल का हर हाल बयां किया

ब्लोगर्स  के बीच फँसी दो नारी थीं
पतियों की ब्लॉगिंग की मारी थीं
पत्नी धर्म निभाती थीं
फिर भी सदा मुस्काती थीं
शिकवा ना लब पर लाती थीं
ब्लोगर मीट में भी शान से जाती थीं
ऐसी पत्नियों को प्रणाम करो
ओ पत्नियों के पतियों
तुम भी अपने फ़र्ज़ पूरे करो

समीर जी ने ब्लोगिंग पर
दो शब्द कहे
होठों से मानो फूल झडे
ब्लोगिंग का झंडा बुलंद रहे
सार्थक ब्लोगिंग का जज्बा बहे

सर्जना का प्रयास सफल रहा
भोजन भी खूब मस्त रहा
चाय का फिर दौर चला
खूब फिर हो -हल्ला मचा
जाने का किसी का मन नहीं था
फिर भी आना जरूरी था
ऐसे आयोजन सभी कराते रहें
ब्लोगिंग को पहचान दिलाते रहें
ये नारा बुलंद किया
फिर सबने प्रस्थान किया


दोस्तों ,
कल दिल्ली में ४ फरवरी को ब्लोगर मीट हुई थी समीर जी के सम्मान में सर्जना शर्मा और गीता श्री ने आयोजन किया था प्रेस क्लब में ...................वहाँ मैं भी गयी थी और जो देखा जाना आपके आगे प्रस्तुत है .............कुछ नाम रह गए हैं माफ़ी चाहती हूँ ..........शम्भू जी , मंजरी चतुर्वेदी जी आदि भी शामिल थे और जिनका नाम रह गया हो उनसे भी माफ़ी ...........अरे बाबा ..........हास्य है कोई बुरा मत मानना ..........संजू जी और मिसेज खुशदीप सहगल जी खास तौर से आप .........सिर्फ आपकी पहचान बताने का प्रयास किया है कि कितनी महान हैं आप दोनों जो ब्लोगिंग के लिए अपने पतियों को इतना वक्त देती हैं आप दोनों के सहयोग के बिना ऐसा संभव कहाँ था ..............अपनी तरफ से जितना लिख सकती थी काव्य में लिख दिया ...........बाकी और विस्तृत जानकारी आप अजय जी और राजीव जी से लीजियेगा .

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

मै मरकर भी ज़िन्दा हूँ!!!!!!!!!!

तुम्हें ढूँढते
ज़माना गुज़र गया
जब भी तेरी
चौखट पर जाती हूँ
इक आस हर बार
फ़ना हो जाती है
तू तो मिलता नही
दरवाज़े भी सलाम
नही लेते
वो रुसवाई
वो मायूसी
जीने का सामान
बन जाती है
तेरे बिन जाने ही
अरमान ठहर जाते हैं
आस के दरख्तों पर
शायद इस रात की
सुबह जरूर होगी
मगर
हर रात सुबह का
इंतखाब नही करती
आस के फ़ूलों मे
महक नही होती
क्योंकि हर फ़ूल
देवता पर नही चढता
पता नही फिर भी
क्यों
तेरे दर पर
जा पहुंचती है
चाहत मेरी
तुझे खोजते हु्ये
तुझमे अपना वजूद
ढूँढते हुये
तेरे साये मे
तेरी पनाह मे
कुछ पल सुकून
पाने के लिये
वरना तो
कौन मरकर ज़िन्दा
हुआ है यहाँ
देख मुझे
मै
मरकर भी ज़िन्दा हूँ!!!!!!!!!!