समय के धरातल पर
कवितायें उगाना छोड़ो कवि
वक्त की नब्ज़ को ज़रा पहचानो
अब कहाँ फूल बागों में खिलते हैं
अब कहाँ आकाश में उन्मुक्त पंछी उड़ते हैं
अब कहाँ धरती सोना उगलती हैं
अब कहाँ शीतल सुगन्धित मंद मंद
पुरवाई चलती है
अब कहाँ संस्कारों की फसल उगती है
अब कहाँ लहू शिराओं में बहता है
अब कहाँ रिश्तों में अपनापन होता है
कवि एक बार आत्मावलोकन तो कर लो
वक्त की तेज़ रफ़्तार को ज़रा पहचानो
तुम्हारी कवितायें , तुम्हारे भाव
तुम्हारे रंग, तुम्हारे मौसम
किसी का असर क्या कहीं दीखता है
अब तो खेतों में हथियारों की खेती होती है
हर जमीन अब हथियार उगलती है
अब तो हवाओं में ज़हरीली गैस मिली होती है
साँसों के साथ लहू में घुली होती हैं
अब तो संस्कारों की ही बलि चढ़ाई जाती है
तब जाकर इज्जत कमाई जाती है
अब लहू तो हर चौराहे पर बिखरा होता है
जिसकी ना कोई कीमत होती है
अब तो कैद में हर पंछी होता है
जिसका ना कोई धर्म होता है
अब तो हर मोड़ पर
रिश्तों का क़त्ल होता है
जो रचा था तुमने कवि
सब काल कलवित हो गया
जो बोया था वक्त के धरातल पर
उसमे ज़हर घुल गया
कैसे इस अनजाने प्रदेश में कवि
अब कहाँ खुद को समाओगे
तुम भी इस अंधकूप में
इक दिन सो जाओगे
गर उगाना है तो
इक ऐसा वटवृक्ष उगा देना
जो काल का भी महाकाल बन जाये
वक्त को रसातल से खींच लाये
हर मन में सुरभित सुगन्धित
इक नयी बगिया खिल जाये
अगर कर सको ऐसा तो तभी
नव सृजन करना कवि
वरना तुम भी वक्त की आँधी में
काल कवलित हो जाओगे
कहीं भी अपनी कविताओं का
पार ना पाओगे
गहन अन्धकार में डूब जाओगे
समय की वक्रदृष्टि
पड़ने से पहले
जागो कवि जागो
उठो , करो आवाहन
एक नए युग का
नव सृजन का
वक्त बुला रहा है
कवितायें उगाना छोड़ो कवि
वक्त की नब्ज़ को ज़रा पहचानो
अब कहाँ फूल बागों में खिलते हैं
अब कहाँ आकाश में उन्मुक्त पंछी उड़ते हैं
अब कहाँ धरती सोना उगलती हैं
अब कहाँ शीतल सुगन्धित मंद मंद
पुरवाई चलती है
अब कहाँ संस्कारों की फसल उगती है
अब कहाँ लहू शिराओं में बहता है
अब कहाँ रिश्तों में अपनापन होता है
कवि एक बार आत्मावलोकन तो कर लो
वक्त की तेज़ रफ़्तार को ज़रा पहचानो
तुम्हारी कवितायें , तुम्हारे भाव
तुम्हारे रंग, तुम्हारे मौसम
किसी का असर क्या कहीं दीखता है
अब तो खेतों में हथियारों की खेती होती है
हर जमीन अब हथियार उगलती है
अब तो हवाओं में ज़हरीली गैस मिली होती है
साँसों के साथ लहू में घुली होती हैं
अब तो संस्कारों की ही बलि चढ़ाई जाती है
तब जाकर इज्जत कमाई जाती है
अब लहू तो हर चौराहे पर बिखरा होता है
जिसकी ना कोई कीमत होती है
अब तो कैद में हर पंछी होता है
जिसका ना कोई धर्म होता है
अब तो हर मोड़ पर
रिश्तों का क़त्ल होता है
जो रचा था तुमने कवि
सब काल कलवित हो गया
जो बोया था वक्त के धरातल पर
उसमे ज़हर घुल गया
कैसे इस अनजाने प्रदेश में कवि
अब कहाँ खुद को समाओगे
तुम भी इस अंधकूप में
इक दिन सो जाओगे
गर उगाना है तो
इक ऐसा वटवृक्ष उगा देना
जो काल का भी महाकाल बन जाये
वक्त को रसातल से खींच लाये
हर मन में सुरभित सुगन्धित
इक नयी बगिया खिल जाये
अगर कर सको ऐसा तो तभी
नव सृजन करना कवि
वरना तुम भी वक्त की आँधी में
काल कवलित हो जाओगे
कहीं भी अपनी कविताओं का
पार ना पाओगे
गहन अन्धकार में डूब जाओगे
समय की वक्रदृष्टि
पड़ने से पहले
जागो कवि जागो
उठो , करो आवाहन
एक नए युग का
नव सृजन का
वक्त बुला रहा है