अनंत यात्राओं की
अंतहीन पगडंडियों
पर चलते चलते
जब कभी थक जाती हूँ
तब कुछ पल
जीना चाहती हूँ
सिर्फ तुम्हारे साथ
तुम्हारी आशाओं
अपेक्षाओं और
अपनी चाहतों के साथ
जहाँ मेरी हर चाहत
परवान चढ़ सके
और तुम्हारे वजूद का
हिस्सा बन सके
जहाँ तुम्हारे ह्रदय के
हर गली कूचे पर
सिर्फ मेरा नाम लिखा हो
हर मोड़ पर
मेरा बुत खड़ा हो
जिसके हर घर में
तुम्हारी मुस्कराहट
तैर रही हो और
मेरे पाँव थिरक रहे हों
तुम्हारी प्रेममयी झंकार पर
जहाँ एक ऐसा आशियाना हो
जिसमे सिर्फ तुम्हारा
और मेरा वजूद
अपना वजूद पा रहा हो
और कभी हम किसी
भीड़ के रेले में
चुपचाप हाथों में हाथ डाले
चल रहे हों और
इक दूजे की धडकनें
सुन रहे हों
बस कुछ पल
इसी सुकून के
जीना चाहती हूँ
जिसे तुमने
मेरा नाम दिया है
और मेरे अस्तित्व का
प्रमाण दिया है
उसी अपने घर में
रहना चाहती हूँ
जानते हो ना
कौन सी है वो जगह
वो है तुम्हारा ह्रदय
मेरे सपनो का शहर
पृष्ठ
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सोमवार, 29 नवंबर 2010
शनिवार, 27 नवंबर 2010
आँच
मद्धम- मद्धम
सुलगती आँच
और सीली
लकड़ियाँ
चटकेंगी तो
आवाज़ तो
होगी ही
लकड़ियों का
आँच की
तपिश से
एकीकृत होना
और अपना
स्वरुप खो देना
आँच की
सार्थकता
का प्रमाण
बन जाना
हाँ , आँच
का होना
जीवंत बनाता
है उसे
सार्थकता का
अहसास
कराता है
आँच पर
तपकर ही
कुंदन खरा
उतरता है
फिर चाहे
ज़िन्दगी हो
या रिश्ते
या अहसास
आँच का होना
उसमे तपना ही
जीवन का
सार्थक प्रमाण
होता है
लकड़ियाँ
सुलगती
रहनी चाहिए
फिर चाहे
ज़िन्दगी की
हों या
दोस्ती की
या रिश्ते की
मद्धम आँच
का होना
जरूरी है
पकने के लिए
सार्थकता के लिए
अस्तित्व बोध के लिए
सुलगती आँच
और सीली
लकड़ियाँ
चटकेंगी तो
आवाज़ तो
होगी ही
लकड़ियों का
आँच की
तपिश से
एकीकृत होना
और अपना
स्वरुप खो देना
आँच की
सार्थकता
का प्रमाण
बन जाना
हाँ , आँच
का होना
जीवंत बनाता
है उसे
सार्थकता का
अहसास
कराता है
आँच पर
तपकर ही
कुंदन खरा
उतरता है
फिर चाहे
ज़िन्दगी हो
या रिश्ते
या अहसास
आँच का होना
उसमे तपना ही
जीवन का
सार्थक प्रमाण
होता है
लकड़ियाँ
सुलगती
रहनी चाहिए
फिर चाहे
ज़िन्दगी की
हों या
दोस्ती की
या रिश्ते की
मद्धम आँच
का होना
जरूरी है
पकने के लिए
सार्थकता के लिए
अस्तित्व बोध के लिए
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
बस एक बार तू कदम बढाकर तो देख .........
ख्याल : मजाक है क्या ये
मुझे भी बता दो
अरसा हुए हँसे हुए
चलो , मैं भी हँस लेती हूँ
हा हा हा ...........
हकीकत :ऐसा क्या हो गया ?
रोज हँसा करो
मगर किसी के सामने नहीं
ख्याल: तो फिर कहाँ ?
हकीकत : अकेले में
ख्याल : क्यूँ ?
अकेले में तो
पागल हँसते हैं
क्या अब यही ख़िताब
दिलाना बाकी है
याद को यूँ दबाना बाकी है
किसी दर्द को यूँ जगाना बाकी है
आखिर कैसे हँसूँ ?
किस लीक का कोना पकडूँ
किस वटवृक्ष की छांह पकडूँ
कौन -सी अब राह पकडूँ
बिना लफ्ज़ के कैसे बात करूँ
ख़ामोशी भी डंस रही है
नासूरों सी पलों में बस गयी है
फिर कैसे अकेले में हँसे कोई?
हकीकत : ख़ामोशी भी पिघलने लगेगी
यादें भी सिमटने लगेंगी
दर्द भी बुझने लगेंगे
बस एक बार मुझे
गले लगाकर तो देख
मुझे अपना बनाकर तो देख
लबों पर मुस्कराहट भर दूँगा
तेरे ग़मों को अंक में भर लूँगा
बस एक बार मुझे
अपना बनाकर तो देख
चाहत का लिबास पहना दूँगा
तुझे तुझसे चुरा लूँगा
तेरे साये को भी
अपना साया बना लूँगा
बस एक बार मुझे
हमसफ़र बना कर तो देख
मेरी चाहत को अपना
बनाकर तो देख
रंगों को दामन में
सजाकर तो देख
मोहब्बत की रेखा
लांघकर तो देख
हर मौसम गुलों सा
खिल जायेगा
चाँद तेरे आगोश में
सिमट जायेगा
चाँदनी सी तू भी
खिल जाएगी
झरने सी झर- झर
बह जाएगी
बस एक बार तू
कदम बढाकर तो देख .........
मुझे भी बता दो
अरसा हुए हँसे हुए
चलो , मैं भी हँस लेती हूँ
हा हा हा ...........
हकीकत :ऐसा क्या हो गया ?
रोज हँसा करो
मगर किसी के सामने नहीं
ख्याल: तो फिर कहाँ ?
हकीकत : अकेले में
ख्याल : क्यूँ ?
अकेले में तो
पागल हँसते हैं
क्या अब यही ख़िताब
दिलाना बाकी है
याद को यूँ दबाना बाकी है
किसी दर्द को यूँ जगाना बाकी है
आखिर कैसे हँसूँ ?
किस लीक का कोना पकडूँ
किस वटवृक्ष की छांह पकडूँ
कौन -सी अब राह पकडूँ
बिना लफ्ज़ के कैसे बात करूँ
ख़ामोशी भी डंस रही है
नासूरों सी पलों में बस गयी है
फिर कैसे अकेले में हँसे कोई?
हकीकत : ख़ामोशी भी पिघलने लगेगी
यादें भी सिमटने लगेंगी
दर्द भी बुझने लगेंगे
बस एक बार मुझे
गले लगाकर तो देख
मुझे अपना बनाकर तो देख
लबों पर मुस्कराहट भर दूँगा
तेरे ग़मों को अंक में भर लूँगा
बस एक बार मुझे
अपना बनाकर तो देख
चाहत का लिबास पहना दूँगा
तुझे तुझसे चुरा लूँगा
तेरे साये को भी
अपना साया बना लूँगा
बस एक बार मुझे
हमसफ़र बना कर तो देख
मेरी चाहत को अपना
बनाकर तो देख
रंगों को दामन में
सजाकर तो देख
मोहब्बत की रेखा
लांघकर तो देख
हर मौसम गुलों सा
खिल जायेगा
चाँद तेरे आगोश में
सिमट जायेगा
चाँदनी सी तू भी
खिल जाएगी
झरने सी झर- झर
बह जाएगी
बस एक बार तू
कदम बढाकर तो देख .........
शनिवार, 20 नवंबर 2010
वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ
चाहे शोषित करे कोई
चाहे उपेक्षित भी होती हूँ
मगर मन के धरातल पर
डटकर खडी रहती हूँ
संस्कारों की वेणी में जकड़ी
मन से तो मैं आज भी वही
पुरातन भारतीय नारी हूँ
चाहे मानक रोज नए बनाती हूँ
अपनी सत्ता का आभास कराती हूँ
मगर मन की अतल गहराइयों से तो
आज भी १८वीं सदी की नारी हूँ
चाहे आसमां को छू आऊँ
अन्तरिक्ष में उड़ान भर आऊँ
पर पैर जमीन पर ही रखती हूँ
अपने मूल्यों की थाती को
ना ताक पर रखती हूँ
चाहे विचारों में समरसता हो
चाहे भावों में एकरसता हो
मित्रता के आयाम बनाती हूँ
पर पुरुष मन में उठे भावों की
गंध पहचानती हूँ इसीलिए
पर पुरुष की छाया का
ख्वाबों में भी प्रवेश वर्जित है
मैं ऐसी संस्कारों में जकड़ी नारी हूँ
चाहे कितनी आधुनिक कहलाती हूँ
अधिकारों के लिए दुनिया से लड़ जाती हूँ
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ
वक्त पड़ने पर
दृढ संकल्प शक्ति
की बदौलत
चाहे दुर्गा बन जाऊँ
काली सा संहार करूँ
लक्ष्मीबाई सी लड़ जाऊँ
मगर फिर भी मुझमें बसती
वो ही पुरातन नारी है
जो बीज रोपित किये थे सदियों ने
उन्ही से पोषित होती हूँ
इसीलिए कभी भी अपनी
संस्कारों की ज़मीन नहीं खोती हूँ
मैं आज भी संस्कारों के
बीज रोपती हूँ और
संस्कारों की फसल उगाती हूँ
क्योंकि आज भी मन से तो मैं
वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ
चाहे उपेक्षित भी होती हूँ
मगर मन के धरातल पर
डटकर खडी रहती हूँ
संस्कारों की वेणी में जकड़ी
मन से तो मैं आज भी वही
पुरातन भारतीय नारी हूँ
चाहे मानक रोज नए बनाती हूँ
अपनी सत्ता का आभास कराती हूँ
मगर मन की अतल गहराइयों से तो
आज भी १८वीं सदी की नारी हूँ
चाहे आसमां को छू आऊँ
अन्तरिक्ष में उड़ान भर आऊँ
पर पैर जमीन पर ही रखती हूँ
अपने मूल्यों की थाती को
ना ताक पर रखती हूँ
चाहे विचारों में समरसता हो
चाहे भावों में एकरसता हो
मित्रता के आयाम बनाती हूँ
पर पुरुष मन में उठे भावों की
गंध पहचानती हूँ इसीलिए
पर पुरुष की छाया का
ख्वाबों में भी प्रवेश वर्जित है
मैं ऐसी संस्कारों में जकड़ी नारी हूँ
चाहे कितनी आधुनिक कहलाती हूँ
अधिकारों के लिए दुनिया से लड़ जाती हूँ
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ
वक्त पड़ने पर
दृढ संकल्प शक्ति
की बदौलत
चाहे दुर्गा बन जाऊँ
काली सा संहार करूँ
लक्ष्मीबाई सी लड़ जाऊँ
मगर फिर भी मुझमें बसती
वो ही पुरातन नारी है
जो बीज रोपित किये थे सदियों ने
उन्ही से पोषित होती हूँ
इसीलिए कभी भी अपनी
संस्कारों की ज़मीन नहीं खोती हूँ
मैं आज भी संस्कारों के
बीज रोपती हूँ और
संस्कारों की फसल उगाती हूँ
क्योंकि आज भी मन से तो मैं
वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
शायद मोहब्बत का भरम टूट जाए
आज तुम
बहुत याद आये
क्युं ?
नहीं जानती
शायद
तुमने पुकारा मुझे
तेरी हर सदा
पहुँच रही है
मन के
आँगन तक
और मैं
भीग रही हूँ
अपने ही खींचे
दायरे की
लक्ष्मण रेखा में
जानती हूँ
तड़प उधर भी
कम नहीं
कितना तू भी
बेचैन होगा
बादलों सा
सावन बरस
रहा होगा
मगर ना
जाने क्यूँ
नहीं तोड़
पा रही
मर्यादा के
पिंजर को
जिसमे दो रूहें
कैद हैं
तेरी खामोश
सदायें
जब भी
दस्तक देती हैं
दिल के
बंद दरवाज़े पर
अन्दर सिसकता
दिल और तड़प
जाता है
मगर तोड़
नहीं पाता
अपने बनाये
बाँधों को
ये क्या किया
तूने
किस पत्थर
से दिल
लगा बैठा
चाहे सिसकते
सिसकते
दम तोड़ दें
मगर
कुछ पत्थर
कभी नहीं
पिघलते
मैं शायद
ऐसा ही
पत्थर बन
गयी हूँ
बस तू
इतना कर
मुझे याद
करना छोड़ दे
शायद
मोहब्बत का
भरम टूट जाए
और कुछ पल
सुकून के
तू भी जी जाए
बहुत याद आये
क्युं ?
नहीं जानती
शायद
तुमने पुकारा मुझे
तेरी हर सदा
पहुँच रही है
मन के
आँगन तक
और मैं
भीग रही हूँ
अपने ही खींचे
दायरे की
लक्ष्मण रेखा में
जानती हूँ
तड़प उधर भी
कम नहीं
कितना तू भी
बेचैन होगा
बादलों सा
सावन बरस
रहा होगा
मगर ना
जाने क्यूँ
नहीं तोड़
पा रही
मर्यादा के
पिंजर को
जिसमे दो रूहें
कैद हैं
तेरी खामोश
सदायें
जब भी
दस्तक देती हैं
दिल के
बंद दरवाज़े पर
अन्दर सिसकता
दिल और तड़प
जाता है
मगर तोड़
नहीं पाता
अपने बनाये
बाँधों को
ये क्या किया
तूने
किस पत्थर
से दिल
लगा बैठा
चाहे सिसकते
सिसकते
दम तोड़ दें
मगर
कुछ पत्थर
कभी नहीं
पिघलते
मैं शायद
ऐसा ही
पत्थर बन
गयी हूँ
बस तू
इतना कर
मुझे याद
करना छोड़ दे
शायद
मोहब्बत का
भरम टूट जाए
और कुछ पल
सुकून के
तू भी जी जाए
मंगलवार, 16 नवंबर 2010
ख्वाब में ही सही .................
एक ख़त
उस अनदेखे
अनजाने
प्यार के नाम
जो सिर्फ
ख्वाबों में
ही आकार
ले पाया
हकीकत का
ना सामना
कभी कर पाया
वो खामोश
प्रेम जिसके
शाने पर सिर
रख हर गम
भूल जाऊँ
जिस की पनाह
में इक
ज़िन्दगी जी जाऊं
जो मौन रहकर
भी मुखर
हो जाये
देहयष्टि से परे
जहाँ भावों की
उद्दात तरंगें
जलतरंग सी
बजने लगें
जहाँ "मैं"
मुझको भूल जाऊँ
प्रेम की गागर
में डूब जाऊँ
जज़्बात बिना
कहे ही
अरमानों की
बानगी बयाँ
करने लगें
नयन प्रेम की
मूक अभिव्यक्ति
को व्यक्त
करने लगें
अधर बिना
हिले ही
ऊष्मा का
आदान- प्रदान
करने लगें
धडकनें हवा के
रथ पर सवार हो
प्रियतम की
सांसों संग
बजने लगें
और वो मौन की
भाषा पढने लगे
मेरे अहसास संग
जीने लगे
बिना स्पर्श किये भी
हर बेचैनी
बेकरारी को
करार दे जाये
ख्वाब में ही सही
बस एक बार
वो प्रेम व्यक्त
हो जाये
उस अनदेखे
अनजाने
प्यार के नाम
जो सिर्फ
ख्वाबों में
ही आकार
ले पाया
हकीकत का
ना सामना
कभी कर पाया
वो खामोश
प्रेम जिसके
शाने पर सिर
रख हर गम
भूल जाऊँ
जिस की पनाह
में इक
ज़िन्दगी जी जाऊं
जो मौन रहकर
भी मुखर
हो जाये
देहयष्टि से परे
जहाँ भावों की
उद्दात तरंगें
जलतरंग सी
बजने लगें
जहाँ "मैं"
मुझको भूल जाऊँ
प्रेम की गागर
में डूब जाऊँ
जज़्बात बिना
कहे ही
अरमानों की
बानगी बयाँ
करने लगें
नयन प्रेम की
मूक अभिव्यक्ति
को व्यक्त
करने लगें
अधर बिना
हिले ही
ऊष्मा का
आदान- प्रदान
करने लगें
धडकनें हवा के
रथ पर सवार हो
प्रियतम की
सांसों संग
बजने लगें
और वो मौन की
भाषा पढने लगे
मेरे अहसास संग
जीने लगे
बिना स्पर्श किये भी
हर बेचैनी
बेकरारी को
करार दे जाये
ख्वाब में ही सही
बस एक बार
वो प्रेम व्यक्त
हो जाये
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
प्रेरणाएं कब जीवंत होती हैं ?
मै तो
धूल का कण हूँ
मत बना
माथे का तिलक
मिटना मेरी
किस्मत है
मै तो एक पल हूँ
मत बना
ज़िन्दगी का सबब
आकर गुजरना
मेरी फितरत है
ये सिर्फ़
किस्से किताबों
की बातें हैं
क्यूँ फ़ेर मे पडते हो
सबकी किस्मत मे
गुलाब नही होते
हकीकत मे तो
सभी खार होते हैं
कुछ चुभ जाते हैं
कुछ बच जाते हैं
और जो बच जाते हैं
वो ही उम्र भर
तडपाते हैं
इसलिए
मत बना
आरती का दीया
बुझना मेरी
तहजीब है
मत बना
डोर पतंग की
कटना मेरी
नियति है
मुझे
सिर्फ वो ही
बना रहने दे
जो मैं हूँ
क्या था
मुझमे ऐसा
जो किसी को
प्रेरित करे
मत बना
अपनी प्रेरणा
तडपना तेरी
किस्मत है
तड्पाना मेरी
आदत है
मत बना
अपनी आदत
ज़िन्दगी तेरी
मिट जाएगी
व्यूहजाल में
फँस जाएगी
फिर उम्र भर ना
निकल पायेगी
जहाँ मौत भी
दगा दे जाएगी
प्रेरणाएं कब
जीवंत होती हैं ?
धूल का कण हूँ
मत बना
माथे का तिलक
मिटना मेरी
किस्मत है
मै तो एक पल हूँ
मत बना
ज़िन्दगी का सबब
आकर गुजरना
मेरी फितरत है
ये सिर्फ़
किस्से किताबों
की बातें हैं
क्यूँ फ़ेर मे पडते हो
सबकी किस्मत मे
गुलाब नही होते
हकीकत मे तो
सभी खार होते हैं
कुछ चुभ जाते हैं
कुछ बच जाते हैं
और जो बच जाते हैं
वो ही उम्र भर
तडपाते हैं
इसलिए
मत बना
आरती का दीया
बुझना मेरी
तहजीब है
मत बना
डोर पतंग की
कटना मेरी
नियति है
मुझे
सिर्फ वो ही
बना रहने दे
जो मैं हूँ
क्या था
मुझमे ऐसा
जो किसी को
प्रेरित करे
मत बना
अपनी प्रेरणा
तडपना तेरी
किस्मत है
तड्पाना मेरी
आदत है
मत बना
अपनी आदत
ज़िन्दगी तेरी
मिट जाएगी
व्यूहजाल में
फँस जाएगी
फिर उम्र भर ना
निकल पायेगी
जहाँ मौत भी
दगा दे जाएगी
प्रेरणाएं कब
जीवंत होती हैं ?
मंगलवार, 9 नवंबर 2010
मैं और मेरी पीड़ा
मैं और मेरी पीड़ा
एक दूसरे के
पर्याय बन गए हैं
पीड़ा मेरा निजी
अनुभव है
मेरे जीवन का
अवलंबन है
बिना पीड़ा के
मुझे अस्तित्वबोध
नहीं होता
अगर किसी दिन
पीड़ा में कमी
आ जाये तो
एक शून्यता का
आभास होता है
अगर अपने निज को
सार्वजानिक कर दूं
तो मुझमे मेरा
क्या बचेगा?
सार्वजानिक होने
के बाद तो
रोज मेरी
पीड़ा का
चीरहरण होगा
और मैं
चौराहे पर
खडी खुद को
अस्तित्वविहीन
महसूस करूंगी
पीड़ा मेरा नितांत
निजी अनुभव है
अब पीड़ा को भी
पीड़ा होती है
अगर मुझे
पीड़ा में
डूबा ना देखे तो
कभी कभी तो
पता ही
नहीं चलता
पीड़ा मुझमे है
या पीड़ा ही
बन गयी हूँ मैं
एक दूसरे के
पर्याय बन गए हैं
पीड़ा मेरा निजी
अनुभव है
मेरे जीवन का
अवलंबन है
बिना पीड़ा के
मुझे अस्तित्वबोध
नहीं होता
अगर किसी दिन
पीड़ा में कमी
आ जाये तो
एक शून्यता का
आभास होता है
अगर अपने निज को
सार्वजानिक कर दूं
तो मुझमे मेरा
क्या बचेगा?
सार्वजानिक होने
के बाद तो
रोज मेरी
पीड़ा का
चीरहरण होगा
और मैं
चौराहे पर
खडी खुद को
अस्तित्वविहीन
महसूस करूंगी
पीड़ा मेरा नितांत
निजी अनुभव है
अब पीड़ा को भी
पीड़ा होती है
अगर मुझे
पीड़ा में
डूबा ना देखे तो
कभी कभी तो
पता ही
नहीं चलता
पीड़ा मुझमे है
या पीड़ा ही
बन गयी हूँ मैं
शनिवार, 6 नवंबर 2010
अब कैसे मेरे बिन जन्म बिताओगे ?
तुम्हें
क्या फर्क
पड़ता है
मैं रहूँ
ना रहूँ
तुम्हारी
ज़िन्दगी में
मैं हंसूं
ना हंसूं
तुम्हें
अब फर्क
नहीं पड़ता ना
बस
तुम तो
अपने
मन की
अँधेरी
गुमनाम
गलियों में
गुम हो
क्या फर्क
पड़ता है
अब तुम्हें
जब खुद
से ही हमें
जुदा कर दिया
तेरी
बुत परस्ती
की आदत ने
हमें रुसवा किया
स्पर्श के
अहसास में
अंकित मेरे
वजूद को
अब कैसे
खुद में
समेटोगे
तुम्हारी
अधूरी
चाहत की
पूर्णता
अब कैसे
पाओगे
मेरे बिना
इतने जन्म
के बाद के
मिलन को
एक बार फिर
तुमने
अगले कई
युगों का
मोहताज़
बना दिया
मेरे वजूद
में जो तुम
अपना खुदा
तलाश रहे थे
मेरी साँसों
में अपनी
ज़िन्दगी
जी रहे थे
कहाँ गया
वो आखिरी
सांस तक
साथ जीने
का वादा
कैसे अब
हर कसम
निभाओगे
अब तुम
जन्म जन्म
के लिए
फिर ना
भटक जाओगे
मुझे अपनी
ज़िन्दगी
जन्मों के
तप का
फल मानने
वाले
कहो
अब कैसे
मेरे बिन
जन्म बिताओगे ?
क्या फर्क
पड़ता है
मैं रहूँ
ना रहूँ
तुम्हारी
ज़िन्दगी में
मैं हंसूं
ना हंसूं
तुम्हें
अब फर्क
नहीं पड़ता ना
बस
तुम तो
अपने
मन की
अँधेरी
गुमनाम
गलियों में
गुम हो
क्या फर्क
पड़ता है
अब तुम्हें
जब खुद
से ही हमें
जुदा कर दिया
तेरी
बुत परस्ती
की आदत ने
हमें रुसवा किया
स्पर्श के
अहसास में
अंकित मेरे
वजूद को
अब कैसे
खुद में
समेटोगे
तुम्हारी
अधूरी
चाहत की
पूर्णता
अब कैसे
पाओगे
मेरे बिना
इतने जन्म
के बाद के
मिलन को
एक बार फिर
तुमने
अगले कई
युगों का
मोहताज़
बना दिया
मेरे वजूद
में जो तुम
अपना खुदा
तलाश रहे थे
मेरी साँसों
में अपनी
ज़िन्दगी
जी रहे थे
कहाँ गया
वो आखिरी
सांस तक
साथ जीने
का वादा
कैसे अब
हर कसम
निभाओगे
अब तुम
जन्म जन्म
के लिए
फिर ना
भटक जाओगे
मुझे अपनी
ज़िन्दगी
जन्मों के
तप का
फल मानने
वाले
कहो
अब कैसे
मेरे बिन
जन्म बिताओगे ?
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
चलो दीप एक ऐसा जलायें ..........
चलो
दीप एक ऐसा जलायें
ह्रदय के सभी तम मिट जाएँ
लौ से लौ ऐसी जगाएं
दीप माला नयी बन जाए
कुछ तुम्हारे कुछ मेरे
ख्वाब साकार हो जाएँ
तेरे मेरे की छाया से
ह्रदय मुक्त हो जाएँ
नवगीत लबों पर सज जायें
आनंद चहूँ ओर छा जाए
हर घर आँगन सँवर जाए
भेदभाव सब मिट जाएँ
आलोकित पथ हो जाएँ
हृदयों में नव सृजन हो जाए
प्रेम रस के हम दीप जलाएं
दिल की फिर बाती बनाएं
जीवन सभी महक जाएँ
चलो
दीप एक
ऐसा जलायें ..........
दीप एक ऐसा जलायें
ह्रदय के सभी तम मिट जाएँ
लौ से लौ ऐसी जगाएं
दीप माला नयी बन जाए
कुछ तुम्हारे कुछ मेरे
ख्वाब साकार हो जाएँ
तेरे मेरे की छाया से
ह्रदय मुक्त हो जाएँ
नवगीत लबों पर सज जायें
आनंद चहूँ ओर छा जाए
हर घर आँगन सँवर जाए
भेदभाव सब मिट जाएँ
आलोकित पथ हो जाएँ
हृदयों में नव सृजन हो जाए
प्रेम रस के हम दीप जलाएं
दिल की फिर बाती बनाएं
जीवन सभी महक जाएँ
चलो
दीप एक
ऐसा जलायें ..........
बुधवार, 3 नवंबर 2010
उसका दिनकर तो हमेशा के लिए अस्त हो गया
कभी इंतज़ार
किया करती थी
रात
चाँद की
थाली में
सितारों की
कटोरियों में
सजाकर
दिल के
टुकड़ों को
इक सुबह की
आस में
कि वो आएगा
और ले जायेगा
सारी रात के
बिखरे ,बेतरतीब
अहसासों की किरचों
को समेटकर
मगर वो
अब नहीं आता
रात के मुहाने पर
नहीं देता
कोई दस्तक
नहीं टूटता
कोई तारा
उसके नाम का
तनहा रात का
हर कोना
अब इंतज़ार के
दरख़्त पर
सूख रहा है
वक्त की धूप में
मगर उसका
दिनकर तो
हमेशा के लिए
अस्त हो गया
और रात
खडी है वहीँ
उम्रभर के
इंतज़ार के साथ
एकाकी ,उदासी
किसी विरहन
की आँख का
मोती बनकर
किया करती थी
रात
चाँद की
थाली में
सितारों की
कटोरियों में
सजाकर
दिल के
टुकड़ों को
इक सुबह की
आस में
कि वो आएगा
और ले जायेगा
सारी रात के
बिखरे ,बेतरतीब
अहसासों की किरचों
को समेटकर
मगर वो
अब नहीं आता
रात के मुहाने पर
नहीं देता
कोई दस्तक
नहीं टूटता
कोई तारा
उसके नाम का
तनहा रात का
हर कोना
अब इंतज़ार के
दरख़्त पर
सूख रहा है
वक्त की धूप में
मगर उसका
दिनकर तो
हमेशा के लिए
अस्त हो गया
और रात
खडी है वहीँ
उम्रभर के
इंतज़ार के साथ
एकाकी ,उदासी
किसी विरहन
की आँख का
मोती बनकर
सोमवार, 1 नवंबर 2010
कुछ यूँ दुनिया का क़र्ज़ उतारा जाए
चलो अच्छा हुआ
बातें ख़त्म हुयीं
अब दुनियादारी
निभाई जाये
तुझे चाहते
रहने की सज़ा
एक बार फिर
सुनाई जाये
चाहतों की सजायें
अजब होती हैं
बेगैरत फूलों
की तरह
चलो एक बार
फिर किसी को
चाहा जाए
कुछ इस तरह
ज़िन्दगी को
मौत से
मिलाया जाये
यूँ ही नहीं
मेघ से
उमड़ -घुमड़ रहे
इन अलावों को
फिर से
जलाया जाये
इन रूह की
सीली लकड़ियों को
बुझे चराग से
जलाया जाए
इस सुलगते
धुएं के
गुबार में
चलो एक चेहरा
नया ढूँढा जाए
ज़िन्दगी के
तौर तरीकों को
ताक पर रखकर
एक बार फिर से
चाहतों का ज़नाज़ा
निकाला जाए
यूँ हसरतों को
रुसवा किया जाए
मौत से पहले
मौत को
पुकारा जाए
एक बार
फिर से
रूह के
ज़ख्मों को
उबाला जाए
रूह की
खंदकों में
उबलते लावे को
एक बार
फिर से
कढाया जाए
कुछ यूँ
दुनिया का
क़र्ज़ उतारा जाए
बातें ख़त्म हुयीं
अब दुनियादारी
निभाई जाये
तुझे चाहते
रहने की सज़ा
एक बार फिर
सुनाई जाये
चाहतों की सजायें
अजब होती हैं
बेगैरत फूलों
की तरह
चलो एक बार
फिर किसी को
चाहा जाए
कुछ इस तरह
ज़िन्दगी को
मौत से
मिलाया जाये
यूँ ही नहीं
मेघ से
उमड़ -घुमड़ रहे
इन अलावों को
फिर से
जलाया जाये
इन रूह की
सीली लकड़ियों को
बुझे चराग से
जलाया जाए
इस सुलगते
धुएं के
गुबार में
चलो एक चेहरा
नया ढूँढा जाए
ज़िन्दगी के
तौर तरीकों को
ताक पर रखकर
एक बार फिर से
चाहतों का ज़नाज़ा
निकाला जाए
यूँ हसरतों को
रुसवा किया जाए
मौत से पहले
मौत को
पुकारा जाए
एक बार
फिर से
रूह के
ज़ख्मों को
उबाला जाए
रूह की
खंदकों में
उबलते लावे को
एक बार
फिर से
कढाया जाए
कुछ यूँ
दुनिया का
क़र्ज़ उतारा जाए