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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

दुष्कर उपालंभ

जब चुक जाएँ संवेदनाएं
रुक जाएँ आहटें
और अपना ही पतन जब स्वयमेव होते देखने लगो
मान लेना
निपट चुके हो तुम

गिरजों के घंटे हों
मंदिरों की घंटियाँ
या मस्जिद की अजान
सुप्त पड़ी नाड़ियों में नहीं किया करतीं
चेतना का संचार

ये घोर निराशा का वक्त है
चुप्पियों ने असमय की है आपातकाल की घोषणा
और उम्र कर रही है गुरेज
मन के बीहड़ों से गुजरने में

ऐसे में
मन बहुत थका थका है
इस थके थके से मन पर
कौन सा फाहा रखूँ
जो सुर्खरू हो जाए उम्र मेरी
क्योंकि
जुगाली करने को जरूरी होता है दाना पानी

'आशावाद' आज के समय का सबसे दुष्कर उपालंभ है ...

2 टिप्‍पणियां:

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