गुजर गयीं मेरे अन्दर
जाने कितनी सदियाँ
यूँ ही तन्हा तन्हा
जाने कौन सी तलाश है
जो न तुझ तक पहुँचती है
और न ही मुझ तक
कि आओ
बेखबर शहरों तक चलें दोनों
यूँ ही तन्हा तन्हा
बनकर डोम अपने अपने कब्रिस्तान के
यूँ के क्या कहूँ इसे
इंसानी नियति या फिर ... ?
बनकर डोम अपने अपने कब्रिस्तान के
यूँ के क्या कहूँ इसे
इंसानी नियति या फिर ... ?
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3 - 12 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2179 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
Supabbb
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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