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मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

भाव समिधा

1
चुप की खाली ओखली में 

कूटने को नहीं बची 

कोई संवेदना अहसास या जज़्बात 

और सागर में न बचा हो पानी 

ऐसा भी नहीं 

फिर किस सुबह के इंतज़ार में 

भटक रही है रात्रि की त्रिज्या


एक अजीब सी कशमकश का शिकार है आज कोई !!!




2
अन्दर पसरा सन्नाटा जाने कब होगा प्रसवित 

मौन की विकल वेदना जाने कब होगी मुखरित 

ये कौन से जुनूनी इन्कलाब का साया है 

कि कुटिल गर्म हवाएं जाने कब होंगी अनुदित


3
एक शून्य जब 

अनंत की ओर 

विस्तार पाने लगे


तब खुद से मुखातिब होना भी दुष्कर लगे ..........



4
जरूरी तो नहीं रोज कुछ कहा जाए 

जरूरी तो नहीं रोज कुछ सुना जाए 

कहीं इसी कहने सुनने में ही 

ये ज़िन्दगी न हाथ से निकल जाए


5

कुछ सवालों के जवाब पहले से तैयार रखती है दुनिया 

जाने कैसे दूसरे को इतना नादान समझती है दुनिया 

कि भीड़ में भी पहचान हो जाती है कमज़र्फों की 

जाने कैसे रोज ढकोसले का नकाब बदलती है दुनिया



6
हैवानियत का कोहरा कब छंटेगा 

इंसानियत का सूरज कब उगेगा


कौन जाने ?


7

उन माओं के जाने कितने टुकड़े हो गए 

जिनके लाल वक्त से पहले कबों में सो गए


8

मेरे लिए बहुत सी बातें सिर्फ बातें थीं 

और तुम्हारे लिए 

सिर्फ बातें नहीं जाने कितने अर्थ थे


कोई शब्दकोष हो तो बताना 

आसान हो जायेगा समझना 

क्योंकि 

अब मैं उन अर्थों के अर्थ खोज रही हूँ ..........एक अरसे से

9
वो ख्वाब ही क्या जो बुना जाए 

वो इश्क ही क्या जो किया जाए

चलो किस्सा ही खत्म किया जाए 

न दिल दिया जाए न दर्द लिया जाए

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

समय तुम अपंग हो गए हो

आज हैवानियत के अट्टहास पर 
इंसानियत किसी बेवा के सफ़ेद लिबास सी 
नज़रबंद हो गयी है 
ये तुम्हारे वक्त की सबसे बड़ी तौहीन है 
कि तुम नंगे हाथों अपनों की कब्र खोद रहे हो 
और तुम  मजबूर हो  ऐसा  तुम सोचते हो 
मगर क्या ये वाकई एक सच है ?
क्या वाकई तुम मजबूर हो  ?
या मजबूर होने की दुहाई की आड़ में 
मुंह छुपा रहे हो 
गंदले चेहरों के नकाब हटाने की हिम्मत नहीं 
या सूरत जो सामने आएगी 
उससे मुंह चुराने का माद्दा नहीं 

न न वक्त रहम नहीं किया करता कभी खुद पर भी 
तो तुम क्यों उम्मीद के धागे के सहारे उड़ा रहे हो पतंग 

सुनो 
अब अपील दलील का समय निकल चुका है 
बस फैसले की घडी है 
तो क्या है तुममे इतना साहस 
जो दिखा सको सूरज को कंदील 
हाँ हाँ .........आज हैवानियत के सूरज से ग्रस्त है मनुष्यता 
और तुम्हारी कंदील ही काफी है 
इस भयावह समय में रौशनी की किरण बनकर 
मगर जरूरत है तो सिर्फ 
तुम्हारे साहस से परचम लहराने की 
और पहला कदम उठाने की 
क्या तैयार हो तुम ...............?

या फिर एक बार 
अपनी विवशताओं की दुहाई देना भर है 
तुम्हारे पलायन का सुगम साधन ?

निर्णय करो 
वर्ना इस अपंग समय के जिम्मेदार कहलाओगे 
तुम्हारी बुजदिली कायरता को ढांपने को 
नहीं बचा है किसी भी माँ का आँचल 
छातियों में सूखे दूध की कसम है तुम्हें 
या तो करो क्रान्ति 
नहीं तो स्वीकार लो 
एक अपंग समय के साझीदार हो तुम 

जो इतना नहीं कर सकते 
तो फिर मत कहना 
समय तुम अपंग हो गए हो 



बुधवार, 17 दिसंबर 2014

देखो ये है बच्चों की बारात




आओ आओ 
देखो ये है बच्चों की बारात 
जहाँ बच्चे ही दूल्हा 
बच्चे ही बाराती 
किसी की चिरी है छाती 
किसी की आँख है निकली 
किसी की अंतड़ियाँ 
तो किसी के भेजे में 
गोली है फंसी 
किसी का चेहरा यूँ लहुलुहान हुआ 
कि माँ से न पहचाना गया 
पिता रोते रोते बेदम हुआ 
माँ ने तो होश ही खो दिया 
जिसका लाल आज लाल हुआ 

ये कैसे जांबाज सिपाही 
बिन सेहरा पहने ही चल दीये 
मौत की दुल्हन से मिलने गले 
कब्र भी कम पड़ गयीं 
जिन्हें देख कबिस्तान की भी जान सूख गई 
ये कैसी  बारात आई है 
जहाँ हर ओर  रुसवाई है  
हर चेहरे पर मुर्दनी छाई है 
देख खुदा भी सहम गया 

क्या अब भी सियासतदारों न तुम्हारी आँख खुली ?

अब प्रश्न तुम से है 

ओ मानवता के दुश्मनों 
ये कैसा संहार किया 
ओ ताकतवर सियासी ताकतों (पाकिस्तान , अमेरिका )
ये फसल तो तुम्हारी ही है बोई हुई 
कल तुमने पाला जिसे 
आज छीना निवाला उसी ने 
अब तो जाग जाओ 
बच्चों की शहादत से तो सबक सीख जाओ 
वर्ना 
कल के तुम जिम्मेदार होंगे 
जब इन्ही में से किसी के अपने 
हाथ में बन्दूक पकड़ेंगे 
और निशाने पर होंगे ........... तुम 

क्योंकि 
मासूमियत के हत्यारे हो तुम सिर्फ तुम 
और तुम्हारी एकछत्र राज करने की ख्वाहिश 



शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

'तुम्हारा तुमको अर्पण'

जो तुम्हें स्वीकार्य नहीं 
उस अस्तित्व की नकारता 
थोड़ी तुम्हारी आँखों की कलुषता 
और थोडा साम दाम दंड भेद 
के वो सारे बाण 
जिनसे घायल होती रही युगों से 
तुम्हारा  दिया तिरस्कार , उपेक्षा , व्यभिचार 
शिव के त्रिशूल से चुभते वेदना के शूल 
सब 'तुम्हारा तुमको अर्पण' की मुद्रा में लौटा रही हूँ 

क्योंकि  
गूंथ दिए है मैंने इस बार 
तुम्हारे सब बेशकीमती हथियार 
तो स्वाद तो किरकिरा होगा ही……… 

मत गुंधवाना आटा अब फिर मुझसे !!!

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ

तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ 
या रखूँ तुमसे सहानुभूति 

जाने क्या सोच लिया तुमने 
जाने क्या समझ लिया मैंने 
अब सोच और समझ दोनों में 
जारी है झगड़ा 
रस्सी को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में 
दोनों तरफ बह रही है एक नदी 
जहाँ संभावनाओं की दलदल में 
फंसने को आतुर तुम 
पुरजोर कोशिशों के पुल बनाने में जुटे हो 
और इधर 
सूखी नदी में रेत के बिस्तर पर 
निशानों के चक्रवात में 
सूखा ठूँठ 
न हँस पाता है और न रो 

जानते हो क्यों ?

ईमानदार कोशिशें लहूलुहान ही हुआ करती हैं 
बंजर भूमि में न फसल उगा करती है 
सर्वमान्य सत्य है ये 
जिसे तुम नकारना चाहते हो 

मेरे खुले केशों पर लिखने को एक नयी कविता 
पहले तुम्हें होना होगा ख़ारिज खुद से ही 
और अतीत की बेड़ियों में जकड़ी स्मृतियों के साथ नहीं की जा सकती कोई भी वैतरणी पार 

सुनो 
ये मोहब्बत नहीं है 
और न ही मोहब्बत का कोई इम्तिहान 
बस तुम्हारी स्थिति का अवलोकन करते करते 
रामायण के आखिरी सम्पुट सी एक अदद कोशिश है 
तुम में चिनी चीन की दीवार को ढहाने की 
ताकि उस पार का दृश्य देख सको तुम बिना आईनों के भी 

समंदर होने को जरूरी तो नहीं न समंदर में उतरना 
क्यों न इस बार एक समंदर अपना बनाओ तुम 
जिसमे जरूरत न हो किसी भी खारे पानी की 
न ही हो लहरों की हलचल 
और न ही हो तुम्हारी आँख से टपका फेनिल आंसू 

हो जाओगे हर जद्दोजहद से मुक्त 
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी 
अपनी कोशिशों के पुल से मेरा नाम हटाने की 
क्योंकि 
मेरी समझ की तीसरी आँख जानती है 
तुम्हारी सोच की आखिरी हद ……… 

तोडना तो नहीं चाहती तुझे 
मगर जरूरी है सम्मोहन से बाहर निकालना 

कैसे कहूँ 
नाकाम कोशिशों का आखिरी मज़ार मत बना मुझे 
बुतपरस्ती को ढूँढ ले बस अब एक नया खुदा.........

सुकून की दहलीज को सज़दा करने को ले झुका दी मैंने गर्दन 
बस तू भी एक बार माथा रखकर तो देख 

वैसे भी 
सूखी नदी 
बंजर भूमि 
सूखे ठूँठ 
सम्भावना के अंत को दर्शाती लोकोक्तियों से 
कर रहे हैं आगाह 
ज़ख्मों की मातमपुर्सी पर नहीं बजा करती शहनाइयाँ .……

फिर क्यों फरहाद से होड़ करने को आतुर है तेरे मन की प्रीत मछरिया ???

शनिवार, 29 नवंबर 2014

बाकी है

नहीं है मेरी मुट्ठी में चाहे सारा आस्माँ 
आस्माँ को छूने की अभी इक उडान बाकी है 

नहीं निकलतीं जिन पर्वतों से पीर की नदियाँ 
उनके सीनों में भी अभी इक तूफ़ान बाकी है 

नहीं हैं वाकिफ़ जो शहर रास्तों की खामोशियों से 
उन शहरों के कफ़न में भी अभी इक ख्वाब बाकी है 

नहीं है मेरी झोली  में समन्दर तो क्या 
ओक भर पीने की इक प्यास तो अभी बाकी है 

नहीं हूँ किसी भी आँख का नूर तो क्या 
खुद से आँख मिलाने का इक हुनर तो अभी बाकी है 

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

हाँ ,आ गया हूँ तुम्हारी दुनिया में



हाँ, आ गया हूँ 
तुम्हारी दुनिया में
अरे रे रे ...........
अभी तो आया हूँ
देखो तो कैसा 
कुसुम सा खिलखिलाया हूँ

देखो मत बाँधो मुझे
तुम अपने परिमाणों में 
मत करो तुलना मेरे 
रूप रंग की 
अपनी आँखों से
अपनी सोच से 
अपने विचारों से
मत लादो अपने ख्याल 
मुझ निर्मल निश्छल मन पर

देखो ज़रा 
कैसे आँख बंद कर 
अपने नन्हे मीठे 
सपनो में खोया हूँ
हाँ वो ही सपने
जिन्हें देखना अभी मैंने जाना नहीं है
हाँ वो ही सपने
जिनकी मेरे लिए अभी 
कोई अहमियत नहीं है
फिर भी देखो तो ज़रा
कैसे मंद- मंद मुस्काता हूँ
नींद में भी आनंद पाता हूँ

रहने दो मुझे 
ब्रह्मानंद के पास
जहाँ नहीं है किसी दूजे का भास
एकाकार हूँ अपने आनंद से
और तुम लगे हो बाँधने मुझको
अपने आचरणों से
डालना चाहते हो 
सारे जहान की दुनियादारी 
एक ही क्षण में मुझमे
चाहते हो बताना सबको
किसकी तरह मैं दिखता हूँ
नाक तो पिता पर है
आँख माँ पर 
और देखो होंठ तो 
बिल्कुल दादी या नानी पर हैं
अरे इसे तो दुनिया का देखो
कैसा ज्ञान है
अभी तो पैदा हुआ है
कैसे चंचलता से सबको देख रहा है
अरे देखो इसने तो 
रुपया कैसे कस के पकड़ा है
मगर क्या तुम इतना नहीं जानते
अभी तो मेरी ठीक से 
आँखें भी नहीं खुलीं
देखो तो
बंद है मेरी अभी तक मुट्ठी
बताओ कैसे तुमने 
ये लाग लपेट के जाल 
फैलाए हैं
कैसे मुझ मासूम पर
आक्षेप लगाये हैं

मत घसीटो मुझको अपनी
झूठी लालची दुनिया में
रहने दो मुझे निश्छल 
निष्कलंक निष्पाप

हाँ मैं अभी तो आया हूँ
तुम्हारी दुनिया में
मासूम हूँ मासूम ही रहने दो न
क्यों आस के बीज बोते हो
क्यों मुझमे अपना कल ढूंढते हो
क्यों मुझे भी उसी दलदल में घसीटते हो
जिससे तुम न कभी बाहर निकल पाए
मत उढाओ मुझे दुनियादारी के कम्बल
अरे कुछ पल तो मुझे भी 
बेफिक्री के जीने दो 
बस करो तो इतना कर दो
मेरी मासूम मुस्कान को मासूम ही रहने दो............

शनिवार, 8 नवंबर 2014

जाने क्यों?

अपने अन्दर झाँकती एक लडकी से मुखातिब हूँ मैं
जो रोज उम्र से आगे मुझे मिला करती है
जिरह के मोड मुडा करती है
देखती है समय की आँखों से परे एक हिंडोला
जिस पर पींग भरने को मेरा हाथ पकडती है

सोच में हूँ
चलूँ संग संग उसके
या छुडाकर हाथ
रंगूँ अपने रंग उसे

मन की दहलीज से विदा करूँ
या उम्र के स्पर्श से परे शगुन का तिलक करूँ

क्या यूँ ही बेवजह या वजह भी वजह ढूँढ रही है
और अन्दर झाँकती लडकी से कह रही है
शहर अब शहर नहीं रहे
बदल चुकी है आबोहवा
जाओ कोई और दरवाज़ा खटखटाओ
कि यहाँ अब नहीं ठहरती है कोई हवा

कराकर इल्म शहर के बदले मिज़ाज़ का
फिर भी
अपने अन्दर झाँकती एक लडकी से मुखातिब हूँ मैं ……जाने क्यों?

रविवार, 2 नवंबर 2014

आखिरी अभिलाषा



करना चाहते हो तुम कुछ मेरे लिए
तो बस इतना करना
जब अंत समय आये तो
खुद से ना मुझे जुदा करना

किसी मसले कुचले अनुपयोगी

पुष्प सम ना मुझे दुत्कार देना
माना देवता पर चढ़ नहीं सकता
मगर किसी याद की किताब में तो रह सकता हूँ

इन सूखी मुरझाई टहनियों पर

अपने स्नेह का पुष्प पल्लवित करना
जब बसंतोत्सव मना रहे हों
कुसुम चहुँ ओर मुस्कुरा रहे हों
कर सको तो बस इतना करना
मुझ रंगहीन, रसहीन ठूंठ में भी
तुम संवेदनाओं का अंकुरण भरना

अपने स्नेह जल से सिंचित करना

अपनी सुरभित बगिया का
मुझे भी इक अंग समझना
संग संग तुम्हारे मैं भी खिल जाऊँगा
तुम्हारी नेह बरखा में भीग जाऊँगा

माना बुझता चिराग हूँ मैं

रौशनी कर नहीं सकता
मगर फिर भी मुझको
अनुपयोगी बेजान जान
देहरी पर ना रख देना
अपने प्रेम के तेल से
मुझमे नव जीवन भर देना
बुझना तो है इक दिन मुझको
पर जीते जी ना दफ़न करना

अपने नवजात शिशु सम मुझे भी

अपना प्यार दुलार देना
महाप्रयाण का सफ़र आसान हो जायेगा
तुम्हारा भी पुत्र ऋण उतर जायेगा

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

ॠतुस्त्राव से मीनोपाज तक का सफ़र

1
मैं जब भी लिख देती हूँ कुछ ऐसा 
जो तुम्हें माननीय नहीं 
जाने क्यों हंगामा बरपा जाता है 
धरातल देने , पाँव रखने की जद्दोजहद में 
जबकि हकीकत की लकीरों के नीचे से 
जमीन खिसका ली जाती है 
फिर चाहे चूल्हे पर तुम्हारी हांड़ी में 
दाल पकती रहे तुम्हारे स्वादानुसार 
क्योंकि उसे तुमने बनाया है 
बस ऐतराज के पंछी तुम्हारे 
तभी कुलबुलाते हैं जब 
मैं अपनी दाल में पड़े मसालों के 
भेद खोलने लगती हूँ 
बताने लगती हूँ 
स्त्रीत्व के लक्षणों में छुपे 
भेदों के गुलमोहर 
जो नागवार हैं तुम्हें 
जो कर देती हूँ 
कालखंडों में छुपे भेदों को उजागर 

2
स्त्री हूँ न 
कैसे विमुख हो सकती हूँ 
खुद से , अपने में छुपे भेदों से 
जब परिचित होती हूँ 
अपने जीवन के पहले कदम से 
ॠतुस्त्राव के रूप में 
एक नवजात गौरैया को जैसे 
किसी ने पिंजरे की शकल दिखाई हो 
मगर कैद न किया हो 
और सहमी आँखों की मासूमियत 
न पीड़ा कह पाती है न सह पाती है 
और न ही जान पाती है 
आखिर इसका औचित्य क्या है ?
क्यों आता है ये क्षण जीवन में बार बार 
क्यों फर्क आ गया उसके व्यकित्व में 
जिस्म के भीतर की हलचल 
साथ में मानसिक उहापोह 
एक जटिल प्रक्रिया से गुजरती 
गौरैया भूल जाती है अपनी उड़ान 
अपनी मासूमियत , अपनी स्वच्छंदता 

3
वक्ती अहसास करा जाता है परिचित 
ज़िन्दगी के अनबूझे प्रश्नों से 
आधी अधूरी जानकारी से 
फिर भी न जान पाती हूँ 
मुकम्मल सत्य 
जब तक न सम्भोग की प्रक्रिया से 
गुजरती हूँ और मातृत्व की ओर 
पहला कदम रखती हूँ 
यूँ पड़ाव दर पड़ाव चलता सफ़र 
जब पहुँचता है अपने आखिरी मुकाम पर 
एक बार फिर मैं डरती हूँ 
क्योंकि आदत पक चुकी होती है मेरी 
क्योंकि जान चुकी होती हूँ मैं महत्त्व 
ॠतुस्त्राव के सफ़र का 
जो बन जाता है मेरे जीवन का 
एक अहम् हिस्सा 
मेरे नारी होने की सशक्त पहचान 
तभी बदल जाती है ॠतु ज़िन्दगी की 
और खिले गुलाब के मुरझाने का 
वक्त नज़दीक जब आने लगता है 
सहम जाती है मेरे अन्दर की स्त्री 
जब अंडोत्सर्ग की प्रक्रिया बंद हो जायेगी 
मेरी रूप राशि भी मुरझा जायेगी 
एक स्वाभाविक चिडचिडापन छा जाएगा 
और दाम्पत्य सम्बन्ध पर भी 
कुछ हद तक ग्रहण लग जाएगा 
क्या जी पाऊँगी मैं स्वाभाविक जीवन 
क्या कायम रहेगा मेरा स्त्रीत्व 
क्या कायम रहेगी मेरी पहचान 

4
और मीनोपाज की स्थिति में 
मानसिक उद्वेलना के साथ 
अपने अस्तित्व बोध के साथ 
खुद की एक जद्दोजहद से गुजरती हूँ 
और उसमे तुम्हें दिखने लगती है 
मेरी मुखरता , मेरा बडबोलापन 
क्योंकि खोलने लगती हूँ भेद मैं बेहद निजी 
जिन पर सदा तुमने अपना एकाधिकार रखा 
आखिर नारी कैसे हो सकती है इतनी मुखर 
आखिर कैसे कर सकती है वर्जित विषयों पर चर्चा 
ये तो ना उसके अधिकार क्षेत्र में आता है 
कहीं उसकी मुखरता तुम्हारे वर्चस्व को न हिला दे 
इस खौफ में जीते तुम कभी जान ही न पाए 
नारी होने का असली अर्थ 
कभी समझ ही न पाए उसकी विडम्बनाये 
कैसे खुद को सहेजती होगी 
तब कहीं जाकर ज़िन्दगी में 
एक कदम रखती होगी 
इतनी जद्दोजहद से गुजरती 
मानसिक और शारीरिक हलचलों से निपटती 
नारी महज स्त्री पुरुष संबंधों पर सिमटी 
कोई अवांछित रेखा नहीं 
जिसे जैसे चाहे जो चाहे 
जब चाहे लांघ ले 
कर ले एकाधिकार 
कर दे उसका , उसके अस्तित्व का तिरस्कार 
कर दे उसे मानसिक विखंडित 
क्योंकि 
उम्र के उस पड़ाव में 
टुकड़ों में बँटी स्त्री 
न जाने कितना और टूटती है 
बार - बार जुड़ - जुड़ कर 
कभी सर्वाइकल कैंसर से ग्रस्त होकर 
तो कभी फ़ाइब्रोइडस की समस्या में घिरकर 

5
एक खौफ में जीती औरत 
यूँ ही नहीं होती मुखरित 
यूँ ही नहीं करती खुलासे 
जब तक न वो गुजरी होती है 
आंतरिक और मानसिक वेदनाओं से 
ताकि आने वाली पीढ़ी को 
दे सके समयोपयोगी निर्देश 
पकड़ा सके अपने अनुभवों की पोटली में से 
कुछ अनुभव उस नवयौवना को 
उस मीनोपाज की ओर अग्रसित होती स्त्री को 
जो एक अनजाने खौफ में जकड़ी 
तिल - तिल मर रही होती है 
कहीं जीवनसाथी न विमुख हो जाये 
कहीं यौनाकर्षण के वशीभूत हो 
दूजी की ओर न आकृष्ट हो जाए 
(क्योंकि उसके जीवन की तो 
वो ही जमापूंजी होती है 
एक सुखी खुशहाल परिवार ही तो 
उसके जीवन की नींव होती है )
इस खौफ़ में जीती स्त्री भयाक्रांत हो 
अनिच्छित सम्भोग की दुरूह प्रक्रिया से गुजरती है 
जब उसमें न स्वाभाविक स्त्राव होता है 
जो हार्मोनल बदलाव की देन होता है  
जिसे वो न जान पाती है 
और स्वंय के स्वभाव , बोलचाल या शारीरिक बदलाव के 
भेद न समझ पाती है 
यूँ आपसी रिश्तों में ऐसे बदलाव एक खाई उत्पन्न करते हैं  
और इस व्यथा को कह भी नहीं पाती किसी से 
क्योंकि कारण और निवारण न पता होता है 
और वो घर के हर सदस्य के लिये 
पहले जैसी आचरण वाली ही होती है 
मगर उसकी स्वभाविक चिडचिडाहट 
सबके लिये दुष्कर जब होने लगती है 
घुटती सांसों के प्रश्नों को 
जरूरी होता है तब मुखरित होना 
एक नारी का दूजी को संबल प्रदान करने को 
जीवन की जिजीविषा से जूझने में 
राह दिखाने को 
मील का एक पत्थर बनने को 
क्योंकि 
ये कोई समस्या ही नहीं होती 
ये तो सिर्फ भावनात्मक ग्रहण होता है 
जिसे ज्ञान की उजास से मिटाना 
एक स्त्री का कर्त्तव्य होता है 

6
जैसे पल - पल जीवन का कम होता है 
जैसे घटनाएं घटित होती हैं 
फिर चाहे देशीय हों या खगोलीय 
वैसे ही जीवन चक्र में 
ॠतुस्त्राव हो या मीनोपाज 
एक स्थिति हैं जो 
समयानुसार आती हैं 
मगर इनसे न जिंदगी बदल जाती है 
न स्त्रीत्व पर खतरा मंडराता है 
न ही रूप राशि पर फर्क पड़ता है 
क्योंकि 
सौंदर्य तो देखने वाले की आँख में होता है 
जिसने उसे उसके सद्गुणों के कारण चाहा होता है 
और इस उम्र के बाद तो हर रिश्ता देह से परे आत्मिक होता है 
बस एक यही भावनात्मक संबल उसे देना होता है 
जो जीवन के अंतिम घटनाचक्र को 
फिर यूँ पार कर जाती है मानो 
गौ के बच्चे के खुर से बना कोई गड्ढा हो 
जिसे पार करना न दुष्कर होता है 
वो भी तब जब सही दिशा दिखाई जाती है 
जब कोई नारी ही नारी की समस्या में 
सही राह सुझाती है 
और उसे उसकी सम्पूर्णता का अहसास कराती है 
क्योंकि 
नारी सिर्फ इन दो पडावों के बीच में ही नहीं होती है 
वो तो इनसे भी इतर एक 
सशक्त शख्सियत  होती है 
जिस पर जीवन की धुरी टिकी होती है 
बस इतना आश्वासन उसे उत्साहित ऊर्जित कर देता है 
 जीवन के प्रति मोह पैदा कर देता है 
गर इतना कोई नारी करती है 
कुछ अबूझे भेद खोल देती है 
तो जाने क्यों कुछ 
माननीयों को नागवार गुजरता है 
और भेद विभेदों को खोलने वाली स्त्री को 
बेबाक , चरित्रहीन आदि का तमगा मिलता है 

7
अपनी बेताज बादशाहत को बचाने के फिक्रमंद कुछ ठेकेदार 
कभी जान ही नहीं पाते 
साहित्य गर समाज का दर्पण होता है 
तो उसी समाज का हिस्सा वो स्त्री होती है
जिस पर टिकी सामाजिक धुरी होती है 
तो फिर कैसे साहित्य स्त्री से विमुख हो सकता है 
क्या साहित्य सिर्फ 
नारी के सौन्दर्य के बखान तक ही सीमित होता है ?
सम्बन्ध अन्तरंग हों या नारी विषयक 
गर उन पर लिखना , कहना या बातचीत करना 
एक पुरुष के लिए संभव है 
तो फिर स्त्री के लिए क्यों नहीं ?
फिर चाहे वो कामसूत्र हो या शकुन्तला 
या रचनाकार कालिदास हो 
वर्जनाएं और नियम सभी पर 
बराबर लागू होते हैं 
या तो छोड़ दो स्त्री को 
साहित्य में समावेशित करना 
उसके अंगों प्रत्यंगों का उल्लेख करना 
उसके रूप सौंदर्य का बखान करना 
नहीं तो खामोश हो जाओ 
और मानो 
सबका है एकाधिकार 
अपनी अपनी बात को 
अपने अपने तरीके से कहने का 
फिर चाहे शिल्प हो , कला या साहित्य 
इसलिये
मत कहो ............ये साहित्यिक विषय नहीं 
नहीं तो करो तिरस्कार 
उन कलाकृतियों का 
जिन्हें तुमने ही अद्भुत शिल्प कह नवाज़ा है 
फिर चाहे खजुराहो के भित्तिचित्र हों 
या अजंता एलोरा में अंकित उपासनाएं 
या फिर बदल दो परिभाषा साहित्यिक लेखन की 
क्योंकि 
विषय न कोई वर्जित होता है 
वो तो स्वस्थ सोच का परिचायक होता है 
अश्लीलता तो देखने या पढने वाले की सोच में होती है 
लेखन तो राह दिखाता है जीवन के भेद सुलझाता है 
फिर लिखने वाला चाहे स्त्री हो या पुरुष !!!!!!!!!!

क्योंकि अश्लीलता न कभी पुरस्कृत या सम्मानित होती है 
बल्कि उसमें छुपी गहराई ही पुरस्कृत या सम्मानित होती है 

( मेरी किताब ' बदलती सोच के नए अर्थ ' से )

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

ओ मेरे रांझणा !!!


Vandana Gupta's photo.

ठंडी पड चुकी चिताओं में सिर्फ़ राख ही बचा करती है 
जानते हो न 
फिर भी कोशिशों के महल 
खडे करने की जिद कर रहे हो 
ए ! मत करो खुद को बेदखल ज़िन्दगी से 
सच कहती हूँ 
जो होती बची एक भी चिंगारी सुलगा लेती उम्र सारी

काश अश्कों के ढलकने की भी एक उम्र हुआ करती 
और बारिशों में भीगने की रुत रोज हुआ करती 
जानते हो न 
ख्वाबों के दरख्तों पर नहीं चहचहाते आस के पंछी 
फिर क्यों वक्त की साज़िशों से जिरह कर रहे हो 
ए ! मत करो खुद की मज़ार पर खुद ही सज़दा 
सच कहती हूँ 
जो बची होती मुझमें मैं कहीं
तेरी तडप के आगोश में 
भर देती कायनात की मोहब्बत सारी

मर कर ज़िन्दा करने की तेरी चाहत का नमक 
काफ़ी है अगले जन्म तक के लिए ………ओ मेरे रांझणा !!!

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

याद है मुझे तुमने क्या कहा होगा



शाम के धुंधलके मे
सागर मे आगोश मे
सिमटता सूरज जब
रात की स्याही ओढता था
तब तुम और मै
उसके किनारे खडे
एक ज़िन्दगी
जी रहे होते थे
बिना कुछ कहे
सिर्फ़ हाथों मे हाथ होते थे
दिल मे जज़्बात होते थे 

जो हाथों से दिल तक पहुँचते थे

कभी - कभी
हाथ भी
उनका स्पर्श भी
जुबाँ बन जाता है
है न…………


वो वक्त कुछ
अजीब था
और आज देखो
किस मोड पर हैं हमारे वजूद
तुम भी शायद
किसी साँझ को
सागर के किनारे खडे 

डूबते सूरज को देख रहे होंगे
और इन्ही पलों को
याद कर रहे होंगे
पता है मुझे
वरना आज
ये याद की बारिश
बेमौसम यूँ न होती
याद है मुझे
तुमने क्या कहा होगा
जानाँ ………बहुत याद आ रही हो
है न…………