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मैं जब भी लिख देती हूँ कुछ ऐसा
जो तुम्हें माननीय नहीं
जाने क्यों हंगामा बरपा जाता है
धरातल देने , पाँव रखने की जद्दोजहद में
जबकि हकीकत की लकीरों के नीचे से
जमीन खिसका ली जाती है
फिर चाहे चूल्हे पर तुम्हारी हांड़ी में
दाल पकती रहे तुम्हारे स्वादानुसार
क्योंकि उसे तुमने बनाया है
बस ऐतराज के पंछी तुम्हारे
तभी कुलबुलाते हैं जब
मैं अपनी दाल में पड़े मसालों के
भेद खोलने लगती हूँ
बताने लगती हूँ
स्त्रीत्व के लक्षणों में छुपे
भेदों के गुलमोहर
जो नागवार हैं तुम्हें
जो कर देती हूँ
कालखंडों में छुपे भेदों को उजागर
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स्त्री हूँ न
कैसे विमुख हो सकती हूँ
खुद से , अपने में छुपे भेदों से
जब परिचित होती हूँ
अपने जीवन के पहले कदम से
ॠतुस्त्राव के रूप में
एक नवजात गौरैया को जैसे
किसी ने पिंजरे की शकल दिखाई हो
मगर कैद न किया हो
और सहमी आँखों की मासूमियत
न पीड़ा कह पाती है न सह पाती है
और न ही जान पाती है
आखिर इसका औचित्य क्या है ?
क्यों आता है ये क्षण जीवन में बार बार
क्यों फर्क आ गया उसके व्यकित्व में
जिस्म के भीतर की हलचल
साथ में मानसिक उहापोह
एक जटिल प्रक्रिया से गुजरती
गौरैया भूल जाती है अपनी उड़ान
अपनी मासूमियत , अपनी स्वच्छंदता
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वक्ती अहसास करा जाता है परिचित
ज़िन्दगी के अनबूझे प्रश्नों से
आधी अधूरी जानकारी से
फिर भी न जान पाती हूँ
मुकम्मल सत्य
जब तक न सम्भोग की प्रक्रिया से
गुजरती हूँ और मातृत्व की ओर
पहला कदम रखती हूँ
यूँ पड़ाव दर पड़ाव चलता सफ़र
जब पहुँचता है अपने आखिरी मुकाम पर
एक बार फिर मैं डरती हूँ
क्योंकि आदत पक चुकी होती है मेरी
क्योंकि जान चुकी होती हूँ मैं महत्त्व
ॠतुस्त्राव के सफ़र का
जो बन जाता है मेरे जीवन का
एक अहम् हिस्सा
मेरे नारी होने की सशक्त पहचान
तभी बदल जाती है ॠतु ज़िन्दगी की
और खिले गुलाब के मुरझाने का
वक्त नज़दीक जब आने लगता है
सहम जाती है मेरे अन्दर की स्त्री
जब अंडोत्सर्ग की प्रक्रिया बंद हो जायेगी
मेरी रूप राशि भी मुरझा जायेगी
एक स्वाभाविक चिडचिडापन छा जाएगा
और दाम्पत्य सम्बन्ध पर भी
कुछ हद तक ग्रहण लग जाएगा
क्या जी पाऊँगी मैं स्वाभाविक जीवन
क्या कायम रहेगा मेरा स्त्रीत्व
क्या कायम रहेगी मेरी पहचान
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और मीनोपाज की स्थिति में
मानसिक उद्वेलना के साथ
अपने अस्तित्व बोध के साथ
खुद की एक जद्दोजहद से गुजरती हूँ
और उसमे तुम्हें दिखने लगती है
मेरी मुखरता , मेरा बडबोलापन
क्योंकि खोलने लगती हूँ भेद मैं बेहद निजी
जिन पर सदा तुमने अपना एकाधिकार रखा
आखिर नारी कैसे हो सकती है इतनी मुखर
आखिर कैसे कर सकती है वर्जित विषयों पर चर्चा
ये तो ना उसके अधिकार क्षेत्र में आता है
कहीं उसकी मुखरता तुम्हारे वर्चस्व को न हिला दे
इस खौफ में जीते तुम कभी जान ही न पाए
नारी होने का असली अर्थ
कभी समझ ही न पाए उसकी विडम्बनाये
कैसे खुद को सहेजती होगी
तब कहीं जाकर ज़िन्दगी में
एक कदम रखती होगी
इतनी जद्दोजहद से गुजरती
मानसिक और शारीरिक हलचलों से निपटती
नारी महज स्त्री पुरुष संबंधों पर सिमटी
कोई अवांछित रेखा नहीं
जिसे जैसे चाहे जो चाहे
जब चाहे लांघ ले
कर ले एकाधिकार
कर दे उसका , उसके अस्तित्व का तिरस्कार
कर दे उसे मानसिक विखंडित
क्योंकि
उम्र के उस पड़ाव में
टुकड़ों में बँटी स्त्री
न जाने कितना और टूटती है
बार - बार जुड़ - जुड़ कर
कभी सर्वाइकल कैंसर से ग्रस्त होकर
तो कभी फ़ाइब्रोइडस की समस्या में घिरकर
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एक खौफ में जीती औरत
यूँ ही नहीं होती मुखरित
यूँ ही नहीं करती खुलासे
जब तक न वो गुजरी होती है
आंतरिक और मानसिक वेदनाओं से
ताकि आने वाली पीढ़ी को
दे सके समयोपयोगी निर्देश
पकड़ा सके अपने अनुभवों की पोटली में से
कुछ अनुभव उस नवयौवना को
उस मीनोपाज की ओर अग्रसित होती स्त्री को
जो एक अनजाने खौफ में जकड़ी
तिल - तिल मर रही होती है
कहीं जीवनसाथी न विमुख हो जाये
कहीं यौनाकर्षण के वशीभूत हो
दूजी की ओर न आकृष्ट हो जाए
(क्योंकि उसके जीवन की तो
वो ही जमापूंजी होती है
एक सुखी खुशहाल परिवार ही तो
उसके जीवन की नींव होती है )
इस खौफ़ में जीती स्त्री भयाक्रांत हो
अनिच्छित सम्भोग की दुरूह प्रक्रिया से गुजरती है
जब उसमें न स्वाभाविक स्त्राव होता है
जो हार्मोनल बदलाव की देन होता है
जिसे वो न जान पाती है
और स्वंय के स्वभाव , बोलचाल या शारीरिक बदलाव के
भेद न समझ पाती है
यूँ आपसी रिश्तों में ऐसे बदलाव एक खाई उत्पन्न करते हैं
और इस व्यथा को कह भी नहीं पाती किसी से
क्योंकि कारण और निवारण न पता होता है
और वो घर के हर सदस्य के लिये
पहले जैसी आचरण वाली ही होती है
मगर उसकी स्वभाविक चिडचिडाहट
सबके लिये दुष्कर जब होने लगती है
घुटती सांसों के प्रश्नों को
जरूरी होता है तब मुखरित होना
एक नारी का दूजी को संबल प्रदान करने को
जीवन की जिजीविषा से जूझने में
राह दिखाने को
मील का एक पत्थर बनने को
क्योंकि
ये कोई समस्या ही नहीं होती
ये तो सिर्फ भावनात्मक ग्रहण होता है
जिसे ज्ञान की उजास से मिटाना
एक स्त्री का कर्त्तव्य होता है
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जैसे पल - पल जीवन का कम होता है
जैसे घटनाएं घटित होती हैं
फिर चाहे देशीय हों या खगोलीय
वैसे ही जीवन चक्र में
ॠतुस्त्राव हो या मीनोपाज
एक स्थिति हैं जो
समयानुसार आती हैं
मगर इनसे न जिंदगी बदल जाती है
न स्त्रीत्व पर खतरा मंडराता है
न ही रूप राशि पर फर्क पड़ता है
क्योंकि
सौंदर्य तो देखने वाले की आँख में होता है
जिसने उसे उसके सद्गुणों के कारण चाहा होता है
और इस उम्र के बाद तो हर रिश्ता देह से परे आत्मिक होता है
बस एक यही भावनात्मक संबल उसे देना होता है
जो जीवन के अंतिम घटनाचक्र को
फिर यूँ पार कर जाती है मानो
गौ के बच्चे के खुर से बना कोई गड्ढा हो
जिसे पार करना न दुष्कर होता है
वो भी तब जब सही दिशा दिखाई जाती है
जब कोई नारी ही नारी की समस्या में
सही राह सुझाती है
और उसे उसकी सम्पूर्णता का अहसास कराती है
क्योंकि
नारी सिर्फ इन दो पडावों के बीच में ही नहीं होती है
वो तो इनसे भी इतर एक
सशक्त शख्सियत होती है
जिस पर जीवन की धुरी टिकी होती है
बस इतना आश्वासन उसे उत्साहित ऊर्जित कर देता है
जीवन के प्रति मोह पैदा कर देता है
गर इतना कोई नारी करती है
कुछ अबूझे भेद खोल देती है
तो जाने क्यों कुछ
माननीयों को नागवार गुजरता है
और भेद विभेदों को खोलने वाली स्त्री को
बेबाक , चरित्रहीन आदि का तमगा मिलता है
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अपनी बेताज बादशाहत को बचाने के फिक्रमंद कुछ ठेकेदार
कभी जान ही नहीं पाते
साहित्य गर समाज का दर्पण होता है
तो उसी समाज का हिस्सा वो स्त्री होती है
जिस पर टिकी सामाजिक धुरी होती है
तो फिर कैसे साहित्य स्त्री से विमुख हो सकता है
क्या साहित्य सिर्फ
नारी के सौन्दर्य के बखान तक ही सीमित होता है ?
सम्बन्ध अन्तरंग हों या नारी विषयक
गर उन पर लिखना , कहना या बातचीत करना
एक पुरुष के लिए संभव है
तो फिर स्त्री के लिए क्यों नहीं ?
फिर चाहे वो कामसूत्र हो या शकुन्तला
या रचनाकार कालिदास हो
वर्जनाएं और नियम सभी पर
बराबर लागू होते हैं
या तो छोड़ दो स्त्री को
साहित्य में समावेशित करना
उसके अंगों प्रत्यंगों का उल्लेख करना
उसके रूप सौंदर्य का बखान करना
नहीं तो खामोश हो जाओ
और मानो
सबका है एकाधिकार
अपनी अपनी बात को
अपने अपने तरीके से कहने का
फिर चाहे शिल्प हो , कला या साहित्य
इसलिये
मत कहो ............ये साहित्यिक विषय नहीं
नहीं तो करो तिरस्कार
उन कलाकृतियों का
जिन्हें तुमने ही अद्भुत शिल्प कह नवाज़ा है
फिर चाहे खजुराहो के भित्तिचित्र हों
या अजंता एलोरा में अंकित उपासनाएं
या फिर बदल दो परिभाषा साहित्यिक लेखन की
क्योंकि
विषय न कोई वर्जित होता है
वो तो स्वस्थ सोच का परिचायक होता है
अश्लीलता तो देखने या पढने वाले की सोच में होती है
लेखन तो राह दिखाता है जीवन के भेद सुलझाता है
फिर लिखने वाला चाहे स्त्री हो या पुरुष !!!!!!!!!!
क्योंकि अश्लीलता न कभी पुरस्कृत या सम्मानित होती है
बल्कि उसमें छुपी गहराई ही पुरस्कृत या सम्मानित होती है
( मेरी किताब ' बदलती सोच के नए अर्थ ' से )