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रविवार, 2 नवंबर 2014

आखिरी अभिलाषा



करना चाहते हो तुम कुछ मेरे लिए
तो बस इतना करना
जब अंत समय आये तो
खुद से ना मुझे जुदा करना

किसी मसले कुचले अनुपयोगी

पुष्प सम ना मुझे दुत्कार देना
माना देवता पर चढ़ नहीं सकता
मगर किसी याद की किताब में तो रह सकता हूँ

इन सूखी मुरझाई टहनियों पर

अपने स्नेह का पुष्प पल्लवित करना
जब बसंतोत्सव मना रहे हों
कुसुम चहुँ ओर मुस्कुरा रहे हों
कर सको तो बस इतना करना
मुझ रंगहीन, रसहीन ठूंठ में भी
तुम संवेदनाओं का अंकुरण भरना

अपने स्नेह जल से सिंचित करना

अपनी सुरभित बगिया का
मुझे भी इक अंग समझना
संग संग तुम्हारे मैं भी खिल जाऊँगा
तुम्हारी नेह बरखा में भीग जाऊँगा

माना बुझता चिराग हूँ मैं

रौशनी कर नहीं सकता
मगर फिर भी मुझको
अनुपयोगी बेजान जान
देहरी पर ना रख देना
अपने प्रेम के तेल से
मुझमे नव जीवन भर देना
बुझना तो है इक दिन मुझको
पर जीते जी ना दफ़न करना

अपने नवजात शिशु सम मुझे भी

अपना प्यार दुलार देना
महाप्रयाण का सफ़र आसान हो जायेगा
तुम्हारा भी पुत्र ऋण उतर जायेगा

6 टिप्‍पणियां:

  1. सहज अभिव्यक्ति की सुग्राह्यता से परिपूर्ण मन को विगलित करती रचना -साधु !

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  2. सहज अभिव्यक्ति की सुग्राह्यता से परिपूर्ण मन को विगलित करती रचना -साधु !

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  3. जीवन की संध्या में उमंग और स्नेह भर दे तो पुत्र का जीवन सार्थक
    हर ऐसी अभिलाषा पूर्ण हो !

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