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शनिवार, 26 जुलाई 2014

सोच की रोटी पर फ़फ़ूँद लगने से पहले

हाथ में कलम हो और
सोच के ताबूत में
सिर्फ़ कीलें ही कीलें गडी हों
तो कैसे खोली जा सकती है
ज़िन्दा लाश की आँख पर पडी पट्टी की गिरहें

चाहे कंगन कितने ही क्यों ना खनकते हों
सोच के गलियारों में पहनने वाले हाथ ही
आज नहीं मिला करते
और “ जंगल में मोर नाचा किसने देखा “
कहावत यूँ चरितार्थ होती है
मानो स्वंयवर के लिये दुल्हन खुद प्रस्तुत हो
मगर राजसभा मनुष्य विहीन हो
या रंगशाला में नर्तकी नृत्य को आतुर हो
मगर कद्रदान का ही अभाव हो
विडंबना की सूक्तियाँ मानो
कोई फ़कीर उच्चरित कर रहा हो
समय रहते बोध करा रहा हो
मगर हमने तो जैसे हाथ में माला पकडी हो
मनके फ़ेरने की धुन में कुछ सुनना
शास्त्राज्ञा का उल्लंघन लगता हो

अजब सोच की गगरी हो
जो सिर्फ़ कंकर पत्थरों से भरी हो
मगर पानी के अभाव में
ना किसी कौवे की प्यास बुझती हो
और कहीं कौवा प्यासा ही ना उड जाये
उससे पहले बरसनी ही चाहिये बरखा की पहली बूँद
मेरी सोच की मज़ार पर
ऐतिहासिक घटना के घटित होने से पहले
लिखी जानी चाहिये कोई इबारत
सोच की रोटी पर फ़फ़ूँद लगने से पहले
बदलनी ही चाहिये तस्वीर इस बार

कुंठित सोच
कुँठित मानसिकता
कुंठित पीढी को जन्म दे
उससे पहले
सोच की कन्दराओँ को
करना होगा रौशन
ज्ञान का दीप जलाकर
खुद का अन्वेषण कर के

(मेरे काव्य संग्रह बदलती सोच के नए अर्थ से एक कविता अन्तिम पंक्तियाँ वाजपेयी जी द्वारा भूमिका में उद्धृत)

6 टिप्‍पणियां:


  1. सोच की रोटी पर फ़फ़ूँद लगने से पहले

    बेहद सार्थक और सुचने को मजबूर करती रचना. गहरी संवेदना और गंभीर भाव.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-07-2014) को "संघर्ष का कथानक:जीवन का उद्देश्य" (चर्चा मंच-1687) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-07-2014) को "संघर्ष का कथानक:जीवन का उद्देश्य" (चर्चा मंच-1687) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. सामाजिक बदलाव ही इस फफूंद को जमने से रोक सकता है , सुन्दर विचारों को झिंझोड़ने वाली रचना ,आभार वंदनाजी

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  5. संग्रह के लिए बधाई।
    ये कविता सुंदर प्रस्तुति

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