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गुरुवार, 29 मई 2014

कभी सोचना इस पर भी ………… ओ विधाता !!!


ख्यालों के बिस्तर भी 
कभी नर्म तो कभी गर्म हुआ करते हैं 
कभी एक टॉफ़ी की फुसलाहट में 
परवान चढ़ा जाया करते हैं 
तो कभी लाखों की रिश्वत देने पर भी 
न दस्तक दिया करते हैं 
ये तो वो पंछी हुआ करते हैं 
जो बिन पंख परवाज़ भरा करते हैं 
तभी तो ये अजीबोगरीब ख्याल 
टकराने आ गए 
मुझमे भी इक कौतुहल जगा गया
 
ईश्वर ने दो को बना सृष्टि बनायीं 
स्त्री और पुरुष में ही सारी प्रकृति समायी 
इक दूजे से भिन्न प्रकृति बना 
दो अलग व्यक्तित्व बना डाले 
और दुनिया के जंजाल में फंसा डाले 
दोनों न संतुष्ट हो पाते हैं 
इक दूजे पर इलज़ाम लगाते 
दुनिया से कूच  कर जाते हैं 

अजब खेल के अजब नियम बनाये 
कोई न किसी को समझ पाये 
तब ख्यालों ने इक जुम्बिश ली 
और बन्दूक की गोली सी 
जैसे इक ख्याल की लकीर उभरी 
गर विधाता ने इक करम अता किया होता 
चन्द्रमा के पुत्र बुध की तरह 
स्त्री और पुरुष दोनों को  
कुछ महीने स्त्री और कुछ महीने पुरुष बनने का 
सुअवसर दिया होता 
तो सारा झगड़ा ही निबट गया होता 
दोनों इक दूजे के आचरण , व्यवहार , स्वभाव 
से वाकिफ हो गए होते 
दोनों को इक दूजे के कामों और उनकी दुरुहता 
से पहचान हो गयी होती 
फिर न इक दूजे पर आक्षेप लगाए जाते 
फिर न इक दूजे को कमतर आँका जाता 
फिर न इक दूजे से कोई अपेक्षा होती 
फिर न कोई लिंगभेद होता 
एक सभ्य सुसंस्कृत स्त्री पुरुष से भरा 
ये जहान  होता 

बेशक कहने वाले कह सकते हैं 
वो भला कब स्वीकार्य हुआ था 
तो उसका जवाब यही है 
तब तो एक ही तरह की सृष्टि थी 
जिसमे इस तरह का भेद कैसे स्वीकार्य होता 
मगर यदि विधाता ने 
ऐसी सृष्टि का निर्माण किया होता 
जहाँ दोनों को दोनों रूपों में ढलने का 
समान अवसर दिया होता 
फिर न शिकवों शिकायतों का ये दौर होता 
न पुरुष स्त्री के कामों की समीक्षा करता 
न स्त्री की तरह सोचने या उसके कार्यकलापों का 
वर्णन करने का प्रयत्न करता 
क्योंकि वाकिफ हो गया होता वो 
स्त्री होने के अर्थों से 
और स्त्री भी जान चुकी होती 
पुरुष के दम्भ और पौरुष के 
गहरे नीले स्रोतों को 
तो कितना सुखद जीवन होता 
कोई न किसी के प्रति जवाबदेह होता 
बल्कि सहयोग और समझदारी का 
इक सुखद वातावरण होता 

मगर विधाता तो विधाता ठहरे 
उन्हें क्या फर्क पड़ता है 
उनका काम तो अब भी चलता है 
ये तो मानव की कमजोरी है 
जो उसे खोज के नए सूत्र देती है 
और नए अविष्कारों के प्रति आकर्षित करती है 
तभी तो इस ख्याल ने दस्तक दी होगी 
यूँ  ही नहीं ख्याल के बिस्तर पर 
सिलवट पड़ी होगी 
कोई तो ऐसी बात हुयी होगी 
जिसने ख्याल को ये  आकार दिया होगा 
कभी सोचना इस पर भी ……… ओ विधाता !!!


तब न सीता की अग्निपरीक्षा होती 
तब न कोई कहीं अहिल्या किसी राम की 
प्रतीक्षा में होती 
तब न पांचाली के शीलहरण का 
प्रयास हुआ होता 
और न ही तुम्हें वस्त्रावतार लेना पड़ता 
तो इतिहास का हर अध्याय ही बदल गया होता 
घर घर न महाभारत का दृश्य होता 
भाई भाई का न यूं दुश्मन होता 
हर स्त्री घर बाहर सुरक्षित होती 
उसकी अस्मिता न हर पल 
दांव पर लगी होती 
न ही आज निर्भया जैसी 
कितनी ही हवस की भेंट चढ़ी होती 
स्त्री पुरुष का एक समान अस्तित्व ही 
उनकी पहचान हुआ होता 
कभी सोचना इस पर भी ………… ओ विधाता !!!

सृष्टि बनायीं तो 
कम से कम समान 
अवसर भी दिए होते 
एक को कमजोर 
और दूसरे को ताकतवर बना 
न यूं भेदभाव किये होते 
कभी सोचना इस पर भी ………… ओ विधाता !!!


क्या करूँ ऐसी ही हूँ मैं 
तुम्हारी बनायीं कृति 
तुम पर ही आरोप न लगाएगी 
तो भला किसे दिल गुबार सुनाएगी 
वैसे उम्मीद है
फितूरों के जंगल में उगी नागफनी सा ये ख्याल कचोटेगा तो जरूर तुम्हें भी ....... ओ विधाता !!!


( डायरैक्ट पंगा गॉड से :) )

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.05.2014) को "समय का महत्व " (चर्चा अंक-1628)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. LAMBEE LEKIN HRIDAY KO CHHOO RAHEE HAI AAPKEE KAVITA .BADHAAEE .

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  3. भगवान से सीधा संवाद पसंद आया...

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  4. ये अदल बदल किसे भाती भला।

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आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं …………………अपने विचारों से हमें अवगत कराएं ………शुक्रिया