हाशिये पर रहने वालों के
न पेट होते हैं न जुबाँ न दिल
न होती हैं उनकी जरूरतें
आखिर सुरसा भी क्यों
उन्ही के यहाँ डेरा जमाये
तो क्या नहीं होती उनकी कोई पहचान
क्या नहीं होता उनका कोई अस्तित्व
जब नहीं होता पेट जुबाँ या दिल
तो कैसे स्वीकारा जाए अस्तित्व .......
एक सोच , एक प्रश्न
अस्तित्व की देहलियों पर पाँव पसारे
उत्तर के लिए दक्षिण दिशा में देख रहा है
क्योंकि सुना है
दक्षिण की तरफ पाँव तो अंतिम यात्रा में ही हुआ करते हैं
तो क्या ये अंत है ?
हाशिये की आँख में ठहरा ये प्रश्न देख रहा है
अपने अंतिम विकल्प की ओर
समाज की सुंदरता में दाग भर होना
ही क्या इस समय का कोढ़ है
जिसे खुजाने पर रिसता लहू
नहीं देता पहचान उनके होने की
नपुंसकों के जंगल में
जाने कौन सी आदिम परम्परा
वाहक बनी इठलाती है
जो नहीं दिखता हाशिया
न हाशिये पर खड़ी
एक पूरी जमात
फिर वो किसी रेखा से नीचे के तबके हों
या फिर दलित
या संसार को आधार देने वाली स्त्री
सभी को हाशिया ही नसीब हुआ
जिन्हें नहीं गिना जाता किसी जनाधार में
जिनके नहीं होते कोई गणित
एक पूरी संकुचित श्रेणी में शामिल
एक ऐसा वर्ग जिसके होने पर ही
प्रश्नचिन्ह लगा होता है
आखिर ये है तो है क्यों ?
प्रश्न यहीं खड़ा हुआ
फिर कौन सा समाज
हाशिये के दूसरी तरफ खड़ा
बना रहा है नियम मर्यादाएं अपनी सुविधानुसार
जहाँ नहीं हैं स्त्रियों का अस्तित्व
जहाँ नहीं है कोई तबका या दलित
ये किस जंगल के क़ानून को
लागू करने की जद्दोजहद है
जहाँ सिर्फ बाघ , शेर और चीते ही
अपनी चिंघाड़ों , अपनी दहाड़ों से
दहला रहे हैं जंगल का सीना
और बन्दर , खरगोश , लोमड़ी ,भालू
अपनी मांद में दुबकने को मजबूर
क्या यही है लोकतंत्र ?
क्या यही है मानवीयता का उज्जवल पक्ष
जहाँ बाकी सब पक्ष हो जाते हैं विपक्ष
समानता सामाजिकता की बुनियादें
जहाँ चूल सहित उखड चुकी हैं
नहीं बचे अवशेष
किस खुरदुरी मानसिकता का पोषण
कर रहा है किस खुरदुरे समाज का निर्माण
जहाँ किसी मर्यादा का कोई औचित्य ही नहीं
जहाँ सब ओर सिर्फ शकुनि ही बिछाए हैं बिसात
और दांव पर लगा है हाशिया
जिसके चीर को बढ़ाने अब नहीं आता कोई कृष्ण
बस है तो सिर्फ एक सभा अंधों की
और दुश्शासन खींच रहा है मर्यादा के अंतर्वस्त्र
आखिर कब तक होता रहेगा चीरहरण
हाशिये पर खड़ी मर्यादाओं का
सभ्य समाज का निर्माण
क्या स्वप्न ही रहेगा ?
मर्यादा का हनन ही बस
जंगल का कानून रहेगा ?
प्रश्नों के जंगल कुलबुला रहे हैं
मगर शेर , चीते और बाघों की दहाड़ें
जज़्ब कर रही हैं सब कुलबुलाहटें
क्योंकि
हाशिया तो हाशिया है
उसे कब तवज्जो मिली है
उसके अस्तित्व को कब स्वीकारा गया है
कुचले मसले जाना ही उसकी नियति है
अधिकारों के लिए लड़ना उसे कहाँ आता है
आवाज़ ऊंची करना उसे कहाँ आता है
जानते हैं कर्णधार
इसलिए
चल रहा है सुशासन जंगल में
हा हा हा के शोर के नीचे दब जाती हैं सारी आवाज़ें
क्योंकि
पीड़ित सिर्फ पीड़ा भोगने को ही जन्मते हैं जानता है जंगल का कानून
इसलिये
पीडित को ही दण्डित करना है जंगल का कानून !!!
बहुत सटीक लिखा है..
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन विश्व तम्बाकू निषेध दिवस.... ब्लॉग बुलेटिन में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
जवाब देंहटाएंसादर आभार !
सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंकौन सा समाज
जवाब देंहटाएंहाशिये के दूसरी तरफ खड़ा
बना रहा है नियम मर्यादाएं अपनी सुविधानुसार
जहाँ नहीं हैं स्त्रियों का अस्तित्व
जहाँ नहीं है कोई तबका या दलित
यह समाज हमारे आप से ही तो बना है।
बहुत सशक्त प्रस्तुति।
AAPKEE LEKHNI SE PRABHAAVIT HUN MAIN .
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