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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

" एक थी माया " ...........मेरी नज़र से



विजय कुमार सपत्ति के कहानी संग्रह " एक थी माया " को उन्होंने सस्नेह मुझे भेजा तो ह्रदय गदगद हो गया।   संग्रह में कुल दस कहानियाँ हैं जिसमे ज़िन्दगी के रंगों का समावेश किया गया है फिर चाहे वो प्रेम हो , शक हो , मौत हो , भय हो , व्यंग्य हो , देशभक्ति हो या अध्यात्म सबको समेटने का लेखक का प्रयास सराहनीय है। पहला कहानी संग्रह के लिहाज से काफ़ी विचारपरक कहानियों को समेटा है लेखक ने जो जीवन के विभिन्न आयामों से परिचित कराता हुआ मानो एक यात्रा पर ले चलता हो । 

एक थी माया ,मुसाफिर , आभार ऐशो, आठवीं सीढ़ी ये चारों कहानियां प्रेम के विविध रंग समेटे हैं जिसमे एक थी माया के माध्यम से लेखक ने देहजनित प्रेम से परे आत्मिक प्रेम को तो दर्शाया ही है साथ ही प्रेम के विशुद्ध स्तर को भी प्रस्तुत किया है कि जरूरी नहीं होता प्रेम में मिलन , एक नया दृष्टिकोण देता लेखक प्रेम को ज़िंदा रखने की कवायद करता दीखता है साथ ही ज़िन्दगी की जिम्मेदारियों से मुँह ना मोड़ते हुए प्रेम को ज़िंदा रखना ही तो वास्तविक प्रेम है क्योंकि प्रेम में शारीरिक मिलन मायने नहीं रखता।  प्रेम शरीर से परे का वो आभास है जिसमे पूरी ज़िन्दगी भी गुजर जाये मगर क्षणिक मालूम दे और ऐसे ही प्रेम को माया के माध्यम से दर्शाया है लेखक ने जिसमे कहीं कोई प्रतीक्षा नहीं , कोई आदि नहीं , कोई अंत नहीं मगर प्रेम फिर भी है और रहेगा क्योंकि शाश्वत है।  जिसकी बानगी इन पंक्तियों में दृष्टिगोचर होती है :

"तुम मेरे साथ कभी खुश नही रह सकते थे । थोडी देर खुशी रहती और फिर ज़िन्दगी भर का चिडचिडापन । तुम्हारे लिये प्रेम सिर्फ़ बोझ बनकर रह जाता और हर बीतते वक्त के साथ तुम खत्म होते जाते और मै चाहती हूँ कि तुम ज़िन्दा रहो , न सिर्फ़ शरीर में बल्कि ज़िन्दगी के विचारों में भी "

" मुसाफिर " तो जैसे प्रेम की पराकाष्ठा ही है जहाँ इक उम्र बीती , युग बदला मगर प्रेम का दरिया अनवरत बहता ही रहा फिर क्या फर्क पड़ता है उम्र का कोई सिरा मिला या नहीं , न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन , जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन बस जैसे इन्ही पंक्तियों को चरितार्थ किया है लेखक ने जहाँ संतो और करतारे  के प्रेम की इंतेहा थी , जहाँ दो दिल कभी एक दूजे से जुदा थे ही नहीं एक की सांस पर ही दूसरे के जीवन की आस थी और जैसे ही दीया बुझा आस भी इक दूजे में ही समाहित हो गयी , शायद प्रेम के मुसाफिरों की यही मंज़िल हुआ करती है जो जीते जी नहीं मिलते मरने पर ही उनकी चिताओं पर मेले लगा करते हैं। 

"आठवीं सीढ़ी " सपना के जीवन का चमत्कारिक रोमांच है जहाँ प्रेम तो है मगर प्रेम के भी कई रूप हैं , जहाँ भटकन भी है , सम्मोहन भी है , और अतीत और वर्त्तमान में उलझी मनोदशा का भी चित्रण है कैसे किसी एक शख्स में अपने प्रेमी को पाना शादीशुदा होते हुए भी , एक ऐसी स्त्री की मनोदशा का चित्रण है जो अपने खोये प्रेम को एक जैसी शख्सियत होने के कारण उसमे पाना चाहती है और घर टूटने की हद तक जुड़ने को आतुर हो जाती है मगर शुभांकर द्वारा सही समय पर उसे सम्भालना और जीवन को दिशा देना कहानी को रोचक अंत पर ख़त्म करता है जो सन्देश देती है कि खुशियां चाहो तो तुम्हारे आस पास ही होती हैं बस देर होती है तो तुम्हारी सोच को बदलने और समझने की और यहाँ भी प्रेम सिर्फ देह तक सीमित नहीं रहा यही प्रेम की उच्चता है जिसका निर्वाह लेखक ने कहानी में सही तरीके से किया है।  

" आभार ऐशो " अनिमा के जीवन में आये पुरुषों के विभिन्न रूपो को तो चरितार्थ करती ही है साथ में अनिमा का अपनी शर्तों पर जीने के स्वाभिमान को भी उजागर करती है।  

" चमनलाल की मौत " अकेलेपन की त्रासदी झेल रहे उन सभी वृद्धों के जीवन का लेखा जोखा है जिससे मुख नहीं मोड़ा जा सकता , देखते , जानते हुए भी असंवेदनशील होती आज की पीढ़ी द्वारा उनसे किनारा करना एक ऐसा कड़वा सच है जो होना तो सभी के साथ घटित है मगर हम सोचते कहाँ हैं इस बारे में और छोड़ देते हैं वक्त के जंगल में उन्हें अकेला , निसहाय और जब नहीं झेल पाते वो इस अकेलेपन की घुटन को तो एक दिन खुद ही कर लेते हैं जीवन का अंत क्योंकि अकेलेपन से बड़ी सजा कोई नहीं होती। 

" हम बूढों को पैसों से ज्यादा प्यार चाहिए । अपनों का अपनापन चाहिये । हमें ज़िन्दगी नहीं मारती , बल्कि एकांत ही मार देता है ।"


"अटेंशन " आज के समाज का चेहरा उजागर करती व्यंग्यात्मक कहानी है जहाँ एक इंसान सिर्फ समाज में खुद को साबित करने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता है और एक दिन खुद को साबित करके कैसे ठाठ से जीता है उसका प्रमाण है।  सिर्फ एक अटेंशन पाने की खातिर अच्छे  बुरे का सोचे बगैर ऐसी दलदल में जा गिरता है जहाँ से निकलना आसान नहीं होता और नेतागिरी किसी दलदल से कम कब हुयी है , कुर्सी का चस्का भला किसने छोड़ा है , ऐसे ही ख्याल का चित्रण है इस कहानी में।  

" द  परफेक्ट मर्डर " दांपत्य सम्बन्धो में उमड़े शक के कीड़े का वो दंश है जिससे न काटने वाला बचता है और न ही कटने वाला और जब अंत में शक के ताबूत से पर्दा उठता है तो सिवाय पछतावे के कुछ हाथ में नहीं बचता जिसे प्रस्तुत करने में लेखक पूरी तरह सक्षम रहा।  

" टिटलागढ़ की एक रात " भय और रोमांच की दुनिया की सैर कराती है जिसे बखूबी , पूरी शिद्दत से लेखक ने पेश किया है।  

" आसक्ति से विरक्ति की ओर " बुद्ध के उपदेशों का चित्रण है जहाँ विचित्रसेन के माध्यम से ये बताया गया है कि जिसने मन को जीत लिया उसने सारी इंद्रियों पर तो नियंत्रण कर ही लिया बल्कि साथ में उसके आचरण में ऐसी दिव्य शक्ति आ जाती है कि जो उसके संसर्ग में आता है फिर चाहे वो नगरवधू के रूप में देवयानी ही क्यों न हो , उसके भी जीवन को परिवर्तित किया जा सकता है , देखा जाए तो ये जैसे किसी प्रमेय को सिद्ध करना होता है उसी तरह का प्रयोग है जिसे बुद्ध ने विचित्रवीर्य के जरिये दिखाया उस समय के धर्मभीरुओं को , ढकोसलों पर विश्वास करने वालों को और एक जाग्रति का आह्वान किया।  

" मैन इन यूनिफार्म " देश के सैनिक के बलिदान का एक ऐसा कथानक है जो सोचने को तो विवश करता ही है साथ में लेखक द्वारा उठाया  प्रश्न दिलों को कचोटता है आखिर एक शहीद के बलिदान की कीमत क्या है ?

" दूसरी सुबह कोई बहुत ज्यादा बदलाव नज़र नहीं आया मुझे अपने देश में , जिसके लिये मैने जान दे दी ………"

ये लेखक का पहला कहानी संग्रह है इस दृष्टिकोण से बेहद सार्थक और सफल है जो पाठक को वो सब देता है जिसकी तलाश में एक पाठक निकलता है और पढ़कर जब संतुष्ट हो जाता है तो वहीँ लेखक का लेखन सफ़र हो जाता है।  

हिंदी साहित्य निकेतन , बिजनौर से प्रकाशित कहानी संग्रह " एक थी माया " उम्मीद है अपनी एक पहचान बनाएगा और अपना एक पाठक वर्ग भी इसी के साथ लेखक को उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं देती हूँ कि वो इसी तरह लेखन करते रहे और आगे बढ़ते रहे।  

२५ ० रूपये में उपलब्ध ये किताब प्राप्त करने के लिए आप यहाँ संपर्क कर सकते हैं : 

विजय सपत्ति 
M : 09849746500

EMAIL : vksappatti@gmail.com 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-02-2014) को "गाँडीव पड़ा लाचार " (चर्चा मंच-1521) पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. दिल से शुक्रिया वंदना .
    तुम्हारी लिखी समीक्षा पढ़कर जैसे मैं खुद अपनी सारी कहानियों को फिर से पढ़ रहा हूँ ऐसा ही कुछ अनोखा अनुभव हुआ .
    बहुत अच्छी समीक्षा जी
    आभार आपका !

    विजय

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