आहा !
बसंत बसंत बसंत ....... ओ बसंत !
रोम रोम में छाये
तुम्हारे नव पल्लव
आम्र मंजरी जो बौरायी
जब आयी उस पर तरुणाई
धरा की प्यास जो बुझाई
पीली सरसों भी इठलाई
ये कैसे खुमारी छायी
खिल उठी मन अंगनाई
आहा !
बसंत बसंत बसंत ....... ओ बसंत !
जीवन में खिल उठे
अब कुसुमित पल
पुष्प पुष्प पर कैसे
गुन गुन करते भ्रमर
प्यास के पंछियों की
कैसी प्यास बुझाई
हर मुख पर मानो
सरसों ही खिल आयी
आहा !
बसंत बसंत बसंत ....... ओ बसंत !
मालती चंपा चमेली
संग संग खिलें सहेली
हरसिंगार ने मानो
धरा पर बिछौना बनाया
मानो करे आह्वान प्रेमी युगल का
अभिसार रुत है आयी
मानो किसी इठलाई मचलायी तरुणी की
आँख गयी है शर्मायी
मानो सोमरस के पान को
व्याकुल धरा है अकुलाई
आहा !
बसंत बसंत बसंत ....... ओ बसंत !
तुम्हारा आगमन भला कैसे हो निर्रथक ……
बहुत सुंदर.....!! बसंती रंग से रंगा बसंत...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब,लाजबाब प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: पिता
सुंदर बासंती कविता.....!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया..बसंती रचना
जवाब देंहटाएंआहा !
जवाब देंहटाएंबसंत बसंत बसंत ....... ओ बसंत !
बहुत सुंदर वर्णन
vasant pr bhavpurn kavita
जवाब देंहटाएंrachana
सुंदर वासंती भाव
जवाब देंहटाएंसुंदर बासंती कविता.....!
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