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सोमवार, 6 जनवरी 2014

बालार्क की नवीं किरण


प्रतिभा कटियार एक जाना पहचाना नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं।  रोने की कोई वजह नहीं होती सुना तो होगा न मगर जो आंसुओं का समंदर बहाकर रोया जाए तो वो रोना भी कोई रोना है क्या ? एक ऐसा प्रश्न उठाती कविता है "रोने के लिए आत्मा को निचोड़ना पड़ता है " कितना गहरे उतरी हैं कवयित्री ये तो इस कविता को पढ़कर ही समझा जा सकता है।  आँख से आंसू टपके और रो लिए रोना इसे नहीं कहते बल्कि जब रोने का तुम्हें सलीका आ जाये वो है असल रोना , वो है आत्मा का निचुड़ना जहाँ उदासियों की टंकारें तो गूंजती हों मगर देखने वाले को मुस्कराहट का नमक लगे……… एक सलीकेदार दुनिया का निर्माण करती कवयित्री जीने का ढंग सिखा जाती हैं।  


"रोना वो नहीं जो आँख से टपक जाता है /रोना वो है जो सांस सांस जज़्ब होता है "

"उम्र सोलह की " एक ऐसा पायदान जो आता है तो जाने कितने गुलाबी पंखों को समेटे आता है और उड़ान का पंछी बिना पंखों के परवाज़ भरने  लगता है मगर एक स्त्री जो सारे संसार की धुरी बन एक उम्र गुजार देती है वो भी उम्र के आखिरी पड़ाव तक भी सोलह की उम्र सी होती है , उसमे भी कुछ गुलज़ार उमंगें आसमान चढ़ती हैं जिन्हें उसने बेशक कुछ वक्त के लिए ताक पर रख दिया होता है मगर असल में तो सोलह की उम्र सा जज्बा तो उसमे ता - उम्र रहता है सांसों सा , धड़कन सा जिस पर कभी कोई राग गाया ही नहीं गया , कोई सरगम बनायीं ही नहीं गयी वर्ना एक स्त्री सिर्फ स्त्री ही नहीं होती , एक षोडशी की तरंगें उमंगें गीत बन उसके लहू में बहती हैं सिर्फ एक हसरत में कोई तो हो जो सोया है सावन उसे जगा दे जो खोया है सावन उसे वापस ला दे : 

एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए / वो भूल ही चुकी है कि / ज़िन्दगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले / ना जाने कितने बरस हुए / कौन लगा पायेगा पाँव की बिवाइयों की उम्र का अंदाजा / और बता पायेगा सही उम्र , उस स्त्री की ?

"बेसलीका ही रहे तुम " एक प्रेयसी के भावों का जीवंत चित्रण है जो प्रेमी को जाने कितने बहानों से याद भी कर रही है और उसके विरह में जल भी रही है।  प्रेमी का हवा के झोंके सा आना और अचानक चले जाना फिर वो चाहे किसी भी वजह से हो प्रेमिका ढूंढ ही लेती है वजहें उसके आने और जाने के बीच के संसार में जीने की।  उसकी छोटी छोटी चीजें हों या उसका होना हो सबमे प्रेमी का दर्शन ही प्रेमिका के प्रेम की पराकाष्ठा है तभी तो कितनी शिद्दत से कह उठती है :

"आज सफाई करते हुए पाया मैंने कि / तुम तो अपना होना भी यहीं भूल गए हो "

वैसे इस कविता का एक और पहलू हो सकता है जब कोई अपने जीवनसाथी को खो दे हमेशा के लिये जो उसे छोड दूसरी दुनिया में चला जाये तब भी ऐसे ही भावों का उद्धृत होना लाज़िमी है मगर नज़रिया चाहे जो हो मगर एक प्रेयसी/पत्नी के भाव तो इसी तरह उमडेंगे उससे इंकार नहीं किया जा सकता ।


आज स्त्री जान चुकी है खुद को शायद तभी नहीं पड़ती अब झूठे प्रलोभनों में तभी तो जरूरत नहीं उसे किसी साज श्रृंगार की , किसी प्रशंसा की क्योंकि अपने होने के औचित्य को  समझ चुकी है , जान चुकी है कि एक कर्मठ स्त्री का "सौदर्य "उसका रूप रंग नहीं उसका कर्म होता है , उसकी सांवली त्वचा नहीं बल्कि उसका स्वाभिमान होता है जिसे दर्प से उसका चेहरा दमकता है तभी तो प्रश्न करती है आज के पुरुष समाज से कि मैंने तोड़ दिए तुम्हारे बनाये सभी घेरे , बताओ , अब कौन से नए प्रलोभन दोगे  , कौन से नए षड्यंत्र रचोगे मुझे लुभाने के , अपना गुलाम बनाने के ।

"उनके लहू का रंग नीला है " जैसे एक सभ्यता खोज रही हो अपने निशान , जैसे सारे शोध यहाँ आकर भस्मीभूत हो गए हों। …… कुछ ऐसे भावों को संजोया है कवयित्री ने।  प्रेम मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता है जिसके बिना जीवन सम्भव ही नहीं और जब वो ही प्रेम लहूलुहान होता है , जब वो ही प्रेम सूली पर चढ़ता है , जब उसी प्रेम के होने पर बंदिशों के घेरे बंध जाते हैं तब दर्द की अंगड़ाइयां बहते लहू को मानो नीला कर देती हैं , मानो कहती हों आओ करो हम पर शोध , करो हमारा अन्वेषण , करो हमारे पर योगिक क्रियाएं और बताओ तो ज़रा क्या ज़िंदा है ……इंसान या प्रेम ? आज के साइंस ज़दा मानव को चुनौती देती कवयित्री प्रेम को एक ऐसा शोध का विषय बता रही हैं जो युगों से अकाट्य सत्य की तरह हमारे बीच है , जिससे सभी बीमार हैं मगर कोई कह नहीं सकता देखकर बीमार की शक्ल कि हाल अच्छा नहीं है यही है प्रेम का होना जो होने पर भी अदृश्यता के सभी प्रतिमानो को तोड़ देता है और एक अपना ही अलग व्यास का निर्माण करता है :

उदासियाँ किसी टेस्ट में नहीं आतीं / झूठी मुस्कुराहटें जीत जाती हैं हर बार / और रिपोर्ट सही ही आती है / जबकि सही कुछ बचा ही नहीं "

स्त्री के मनोभावों का चित्रण करने में कवयित्री पूर्णतः सक्षम है साथ ही सोच को नए आयाम देती हैं , वहाँ जहाँ कुछ नहीं है उसमे से भी कुछ को पकड़ लेती हैं और एक चित्र कायम करने में सक्षम होती हैं यही होती है एक कवि की दृष्टि, सोच और परिपक्वता जो उसे नहीं होने में से भी कुछ होने को ढूंढने में मदद करती है और उसको एक नया मुकाम देती है।  कवयित्री को सटीक और हृदयस्पर्शी लेखन के लिए बधाई देती हूँ।  

फिर मिलती हूँ अगले कवि  के साथ जल्दी ही : ………… 

8 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी समीक्षा ... एक और नगीने से मुलाक़ात भी अच्छी लगी ...

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  2. 'कवयित्री' और 'आप' दोनों को हार्दिक बधाई

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  3. आपके सार्थक श्रम की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।

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  4. बहुत बढ़िया समीक्षा...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...

    नयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-कुछ हमसे सुनो कुछ हमसे कहो

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  5. हार्दिक बधाई आपको वंदना जी ।

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