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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

कुछ ख्याल

1)

ये कैसी विडम्बना है 
ये कैसी संस्कारों की धरोहर है 
जिसे ढो रहे हैं 
कौन से बीज गड गये हैं रक्तबीज से 
जो निकलते ही नहीं 
सब कुछ मिटने पर भी 
क्यों आस के मौसम बदलते नहीं 
करवा चौथ का जादू क्यूँ टूटता नहीं 
जब बेरहमी की शिला पर पीसी गयी 
उम्मीदों को नेस्तनाबूद करने की मेंहदी 
ये लाल रंग शरीर से बहने पर भी 
प्रीत का तिलिस्म क्यों टूटता नहीं 
उसी की उम्रदराज़ की क्यों करती है दुआ 
जिसकी हसरतों की माला में प्रीत का मनका ही नहीं 
दुत्कारी जाने पर भी क्यों करवाचौथ का तिलिस्म टूटता नहीं 
रगों में लहू संग बहते संस्कारों से क्यों पीछा छूटता नहीं……


2)



ये जो लगा लेती हूँ 
माँग मे सिंदूर और माथे पर बिन्दिया 
पहन लेती हूँ  पाँव मे बिछिया और हाथों में चूडियाँ 
और गले में मंगलसूत्र 
जाने क्यों जताने लगते हो तुम मालिकाना हक 
शौक हैं ये मेरे अस्तित्व के 
अंग प्रत्यंग हैं श्रृंगार के
पहचान हैं मुझमे मेरे होने के 
उनमें तुम कहाँ हो ? 
जाने कैसे समझने लगते हो तुम मुझे 
सिंदूर और बिछिया में बंधी जड़ खरीद गुलाम 
जबकि ……. इतना समझ लो 


हर हथकड़ी और बेडी पहचान नहीं होती बंधुआ मजदूरी की 

3

संभ्रांत परिवार हो या रूढ़िवादी या अनपढ़ समाज 
सबके लिए अलग अर्थ होते भी 
एक बिंदु पर अर्थ एक ही हो जाता है 
फिर चाहे वो सोलह श्रृंगार कर 
पति को रिझाने वाली प्रियतमा हो 
या रूढ़िवादी परिवार की घूंघट की ओट में 
दबी ढकी कोई परम्परावादी स्त्री 
या घर घर काम करके दो वक्त की रोटी का 
जुगाड़ करने वाली कोई कामगार स्त्री 
सुबह से भूखा प्यासा रहना 
कमरतोड़ मेहनत करना 
या अपने नाज नखरे उठवा खुद को 
भरम देने वाली हो कोई स्त्री 
अर्घ्य देने के बाद 
चाँद निकलने के बाद 
व्रत खोलने के बाद 
भी रह जाती है एक रस्म अधूरी 
वसूला जाता है उसी से उसके व्रत का कर 
फिर चाहे वो शक्तिहीन हो 
शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो 
क्योंकि जरूरी होती है रस्म अदायगी 
फिर चाहे मन के मोर तेजहीन हो गए हों 
क्योंकि 
सुना है 
जरूरी है आखिरी मोहर का लगना 
जैसे मांग भरे बिना कोई दुल्हन नहीं होती 
वैसे ही रस्मों की वेदी पर आखिरी कील जरूरी है 
वैसे ही देहों के अवगुंठन बिना करवाचौथ पूर्ण नहीं होती 
वसूली की दास्ताँ में जाने कौन किसे जीतता है 
मगर 
दोनों ही पक्षों के लिए महज अपने अपने ही नज़रिए होते हैं 
कोई धन के बल पर 
कोई छल के बल पर 
तो कोई बल के बल पर 
भावनाओं का बलात्कार कर रस्म अदायगी किया करता है 
और हो जाता है 
करवाचौथ का व्रत सम्पूर्ण 

12 टिप्‍पणियां:

  1. ये जो लगा लेती हूँ
    माँग मे सिंदूर और माथे पर बिन्दिया
    पहन लेती हूँ पाँव मे बिछिया और हाथों में चूडियाँ
    और गले में मंगलसूत्र
    जाने क्यों जताने लगते हो तुम मालिकाना हक

    यथार्थ ...आभार

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  2. बहुत प्रभावी और सटीक अभिव्यक्ति...

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-10-2013)   "जन्म-ज़िन्दग़ी भर रहे, सबका अटल सुहाग" (चर्चा मंचःअंक-1407)   पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. कविता में करवा चौथ का सच कहो या कड़वा सच प्रतिबिंबित हुआ है - प्रभावशाली अभिव्यक्ति |
    नई पोस्ट मैं

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  5. आस्था के आगे सब कुछ फीका हो जाता है ... ओर प्रेम ही प्रेम नज़र आता है ...
    इस नज़र से देखना करवाचौथ को भी एक दृष्टिकोण है ...

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  6. गहन ..उद्वेलित करती हुई रचना..

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