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गुरुवार, 27 जून 2013

ओ मेरे !...........7

बारातें तो बहुत देखी होंगी ............सूरतें भी बहुत गुजरी होंगी निगाहों से ..........मगर क्या देख पाए वो पुरनम नमी चेहरे की खिलखिलाहट में , जुल्फों की कसमसाहट में , आँखों की शरारत में , लबों की हरारत में .............नहीं देख पाए होंगे ...........जानती हूँ .............क्योंकि आँखें तो कब से मेरी आँखों में बसी हैं , दिल एक मुद्दत हुयी मेरे दिल में धड़कता है ...........तुम्हारे पास बचा क्या है तुम्हारा बताओ तो ज़रा ............सिवाय मेरे ! फिर भी  क्यों कोशिश करते हो जीने की .........मेरे बगैर , समझ नहीं पायी आज तक तुम्हारी मुफलिसी का दंश .............और वो जो मुस्कराहट का लिबास ओढ़े तुम्हारी ज़र्द निगाहें जब भेदती हैं आकाश हो ............ना जाने कैसे हवाएं डाल देती हैं पर्दा रुखसारों पर और मैं खोजती हूँ फिर तुम्हारे ना होने में होने को ............उठाती हूँ मिटटी तुम्हारे दफनायें वजूद से ...........उसी वजूद से जो है मगर जिस पर तुमने रात की कालिख मल दी है ...........और करती हूँ उसका अन्वेषण .......मेरे खोजी कुत्ते दौड़ते हैं तुम्हारी रूह के कब्रिस्तान मे बेधड़क ...........जानने को तुम्हारी ज़मींदोज़ सभ्यताओं को ..........शायद कहीं मिल जाए कोई शहादत की निशानी और मैं बन जाऊं मुकम्मल ग़ज़ल तुम्हारी आँखों में ठहरी ख़ामोशी की ............जानां !!!

इश्क की बारातों के दूल्हे तो सदा अंगारों पर चला करते हैं ..........घोड़ी चढ़ना उनका नसीब नहीं हुआ करता ............और दुल्हनें सदा सुहागिन ही रहती हैं उम्र भर बिना सात फेरों की रस्मों को निभाए ..............और देख एक मुद्दत हुयी ..............मेरे इश्क की दुल्हन ने घूंघट नहीं खोला है सिर्फ और सिर्फ तेरे इंतज़ार में ............कि  तुम एक दिन खुद उठाओगे घूंघट ..........क्या करोगे मुझे मुकम्मल मेरी मज़ार पर आरती का दीप जलाकर .........मेरी तरह  क्योंकि एक मुद्दत हुयी मेरी आरती का दीप बुझा नहीं है अब तक ...........तुमसे एक सवाल है ये ...........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

सोमवार, 24 जून 2013

ओ मेरे !............6

साहेबा ! इश्क की डली मूंह में रखी है मैंने ............ और कुनैन से कुल्ला किया है ...........खालिस मोहब्बत यूं ही नहीं हुआ करती ...........एक डोरी सूरज की तपिश की लेनी पड़ती है और एक डोरी रूह की सुलगती लकड़ी की ...फिर गूंथती हूँ चोटी अपने बालों के साथ लपेटकर ...........लपटें रोम रोम से फूटा करती हैं और देख आज तक जली ही नहीं मेरी ख्वाहिशें , तुझे चाहते रहने की कोशिशें , तुझ पर जाँ निसार करने की चाहतें ..........एक एक मनका प्रीत का पिरोया है ना मैंने जो सूत काता था कच्चे तारों का और कंठी बना गले में बाँध लिया है ........... सुना है इस कंठी को देख फ़रिश्ते भी सजदे किया करते है , सजायाफ्ता  रूहें भी सुकून पाया करती हैं ...........जानते हो क्यों ? क्योंकि इसमें तेरा नाम लिखा है ..............जानां !!!

सिन्दूर , पाजेब , बिंदिया , मंगलसूत्र कुछ नहीं चाहिए मुझे ..........ये ढकोसलों भरे रिवाज़ मेरी रूह की थाती नहीं ..........तुम जानते हो ............बस प्रेम की कंठी जो मैंने बाँधी है ...........क्या किसी जन्म में , किसी पनघट के नीचे , किसी पीपल की छाँव में , किसी चाहत की मुंडेर पर ...........आओगे तुम मुझमे से खुद को ढूँढने .........मेरी आवाज़ को , मेरी इबादत को मुकम्मल करने ...............ये एक सवाल है तुमसे ..........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

बुधवार, 19 जून 2013

पल पल सुलग रही है इक चिता सी मुझमें

पल पल सुलग रही है इक चिता सी मुझमें ………मगर किसकी ………खोज में हूँ 
पल पल बदल रहा है इक दृश्य सा मुझमें …………मगर कैसा …………खोज में हूँ 
पल पल बरस रहा है इक सावन सा मुझमें ………मगर कौन सा ………खोज में हूँ 

बुद्धिजीवी नहीं जो गणित के सूत्र लगाऊँ 
अन्वेषक नहीं जो अन्वेषण करूँ 
प्रेमी नहीं जो ह्रदय तरंगों पर भावों को प्रेषित करूँ 

और खोज लूं दिग्भ्रमित दिशाओं के पदचिन्ह 
इसलिए 
सुलग रही है इक चिता मुझमे जिसके 
हर दृश्य में बरसते सावन की झड़ी 
कहती है कुछ मुझसे ...........मगर क्या ..........खोज में हूँ 

और खोज के लिये नहीं मिल रहा द्वार 
जो प्रवेश कर जाऊँ अंत: पुर में और थाह पा जाऊँ 
सुलगती चिता की , बदलते दृश्य की , बरसते सावन की 

सोमवार, 17 जून 2013

" ज़िन्दगी के पन्ने " …………मेरी नज़र से



इस बार के पुस्तक मेले में इतने स्नेह और सम्मान से पवन अरोडा जी ने अपनी पुस्तक ना केवल भेंट की बल्कि उसके विमोचन का भी हमें हिस्सा बनाया और मैं अपनी मसरूफ़ियतों के चलते पढ नहीं पायी और जब पढ ली तो उसके बाद उस पर लिखे बिना कैसे रह सकती थी सो आज सब काम छोड कर सबसे पहला ये ही काम किया ।

ज्योतिपर्व प्रकाशन से प्रकाशित पवन अरोड़ा की " ज़िन्दगी के पन्ने " वास्तव में ज़िन्दगी की एक सीधी  सरल दास्ताँ है जिससे हम सब कहीं न कहीं गुजरते हैं .जहाँ कवि मन ज़िन्दगी को सूक्ष्म दृष्टि से विवेचित करता है और यही कवि  की दृष्टि होती है जो भेदों  को अभेद्ती है जो साधारण में से असाधारण को खोजती है और व्याख्यातित करती है फिर ज़िन्दगी तो है ही ऐसी शय जिसे जितना खोजो जितना चाहो जितना विश्लेषण करो अबूझी  ही लगती है .

"आस्था " कैसे जीवन के संग बढ़ी चलती है की हम सही गलत सोचते ही नहीं बस लकीर के फ़क़ीर बने दौड़ते हैं आँख पर अविवेक की पट्टी बांधे  . आस्था की डोर में बढे एक जिंदगी जी कर कब निकल जाते हैं और जान  ही नहीं पाते  आखिर जीवन है क्या और उसका मकसद क्या है . 

"नरक धाम " जीवन की वो सच्चाई है जो इंगित करती है कई  स्वर्ग और नरक की अवधारणा को जो हर इंसान चाहता ही की उसे स्वर्ग मिले जबकि ये एक सत्य है जिसे भी स्वर्ग मिला उसे फिर जन्म लेना पड़ा और दुनिया में आकर वो दुःख दर्द झेलना पड़ा जो किसी नरक से कम नहीं फिर क्या फायदा नरक धरती पर हो या आसमान में रहना तो नरक में ही है .
" धर्मयुद्ध " के माध्यम से इंसान की वृत्ति पर कटाक्ष किया है . 
धर्म के नाम पर आज खोली दूकान
जहाँ उगलता साँपों जैसी 
खुद को कहता 
भगवान या कैसा आज का इंसान 
एक ऐसी सच्चाई जिसमें फंसकर इंसान क्या कुछ नहीं गँवा देता और हाथ कुछ नहीं आता .

" कौन मैं " खुद को खोजता हर अस्तित्व जिसमें कोई साथ नहीं न दोस्त न माँ , , बाप भाई बहन कोई नहीं एक ऐसी सोच जिसने पा लिया उसे कुछ खोजना बाकी न रहा .

"सवाल उठते हैं मन मैं " हर मन की पीड़ा का अवलोकन है और कुछ प्रश्न हमेशा अनुत्तरित ही रहते हैं या वो कर्मों और भाग्य का लेख बन मूक रह जाते हैं . 
इंसानियत का हो रहा कत्लेआम 
ऐसे न लगवाओ इसके दाम 
कभी तूने भी 
सोचा क्या होगा उस माँ का हाल 
जिसने जिगर का टुकड़ा खो दिया अपना लाल 

"रिश्ते" में रिश्तों के सिमटते आकाश को बखूबी उकेरा है . आज के युग में जब एक दो बच्चे ही हो रहे हैं तो कैसे जान पायेगे वो कोई दूसरा रिश्ता भी होता है और फिर अकेले ही गिने चुने रिश्तों को सहेजना है और न सहेज पाने की स्थिति में गलत कदम उठाना कितना दुरूह होता है उसका आकलन किया है .

" आँखों की भाषा " में चंद  शब्दों में पूरा प्रेम का फलसफा गढ़ दिया .

" आओ कहीं आग लगायें " एक कटाक्ष है आज की राजनीती पर कैसे सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए जनता का दोहन किया जाता है .

 " आज फिर गूँज उठी आवाज़ " मौत एक शाश्वत सत्य है कि ओर  इंगित करती रचना बताती है चाहे कुछ कर लो मगर मौत ने तो आना ही आना है .

" एक इंतज़ार " में एक पिता की भावनायें कैसे बेटी के लिए उमगती हैं उसका खूबसूरत चित्रण है .

" माटी का यह " के माध्यम से ज़िन्दगी की हकीकत बताई है कि ये शरीर मिटटी है और एक दिन मिटटी में ही मिल जाना है बस इसे समझना जरूरी है .

" नेता रुपी नाग " के माध्यम से नेताओं की सोच को परिलक्षित किया है कि वो तुम्हें डँस ले उससे पहले जाग जाओ और सही कदम उठाओ .

ये तो सिर्फ कुछ रचनायें ही मैंने समेटी हैं बाकि पूरे काव्य संग्रह में हर कविता में ज़िन्दगी के हर पहलू को समेटने की कोशिश की है . सीधी सरल भाषा में हर पहलू को छूना और उसे व्यक्त करना ताकि मन की बात सब तक पहुँच सके यही पवन अरोड़ा की खासियत है. हर लम्हा लम्हा ज़िन्दगी को खोजने को प्रयासरत पवन अरोड़ा ने काफी रचनायें ज़िन्दगी पर ही लिखी हैं जैसे खोज रहे हों ज़िन्दगी के गर्भ में छुपी हकीकतें और वो मिलकर भी अधूरी हसरत सी तडपा रही हों .


पवन अरोड़ा से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं 
M: 09999677033

ज्योतिपर्व प्रकाशन  
99,ज्ञान खंड  --- 3 , इन्दिरपुरम
 गाज़ियाबाद -------- 201012

मोबाइल  : 9811721147

शनिवार, 15 जून 2013

हसरतों के लकड़बग्गे ..........

मेरी नीम बेहोशी में 
बडबडाती आवाज़ का 
शब्द बने तुम 
और उतर गए 
ग्लूकोज की बोतल में 
चेतना को जागृत करते हुये
बूँद बूँद शिराओं में 
गूंजता तुम्हारा संगीत 
आत्मा को जिला रहा था 
सांसों को ठहरा रहा था 
एक अदृश्य हाथ 
चमत्कृत सा 
माथे को सहला रहा था 
जीवन तंतु बिखराव से 
जुड़ाव की ओर जा रहा था 
सम्मोहन का 
विष बाण  तारी  था 
और एक ही झटके में 
सांस की माला बिखर गयी 
सम्मोहन टूट गया 
जब धारा  का प्रवाह उल्टा हो गया 
जब ग्लूकोज की खाली बोतल 
लहू के कतरे कतरे से भर गयी 
सिर्फ सूईं गड़ी रह गयी जिस्म में 
और मेरी बेहोशी टूट गयी 

अब जीने को या कहो हंसने को 
मजबूर हैं 
हसरतों के लकड़बग्गे ..........

बुधवार, 12 जून 2013

ओ मेरे !.............5

कभी कभी जरूरत होती है किसी अपने द्वारा सहलाये जाने की ............मगर हम, उसी वक्त ,ना जाने क्यूँ ,सबसे ज्यादा तन्हा होते है..........ज़िन्दगी के पडावों में एक पडाव ये भी हुआ करता है शायद 
या तन्हाइयों की चोटों में आवाज़ नहीं हुआ करती शायद ............कुछ मौसम कितना ही भीगें , हरे हुआ ही नहीं करते शायद ………जरूरी तो नहीं ना सावन बारहों माह बरसे और रीती गागर भरे ही …………जानाँ !!! 

इश्क के मट्ठे खट्टे ही हुआ करते हैं और मैने सिर्फ़ उसी को पीया है जन्मों से ………जानते हो ना जबसे बिछडे हम …………मैने स्वाद बदला ही नहीं ………फिर तुमने कैसे स्वाद बदल लिया ..........ये एक सवाल है तुमसे ..........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

शनिवार, 8 जून 2013

मैं नहीं जानती अपने अन्दर की उस लडकी को

आज के दिन अपने लिये शायद यही उपयुक्त है :

मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो आहटों के गुलाब उगाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो काफ़ी के कबाब बनाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो मोहब्बत के सीने पर जलता चाँद उगाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो तुम्हारे ना होने पर तुम्हारा होना दिखाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो कांच की पारदर्शिता पर सुनहरी धूप दिखाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो चटक खिले रंगों से विरह के गीत बनाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो सांझ के पाँव में भोर का तारा पहनाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो प्रेम में इंतिहायी डूबकर खुद प्रेमी हो जाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो खुद को मिटाकर रोज अलाव जलाया करती है

मैं नहीं जानती

अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो जलते सूरज की पीठ पर बासी रोटी बनाया करती है

नहीं जानती

नहीं जानती
नहीं जानती
सुना है तीन बार जो कह दिया जाये
वो अटल सत्य गिना जाता है ………क्या सच में नहीं जानती ?
मानोगे मेरी इस बात को सच?
हो सके तो बताना ………ओ मेरे अल्हड स्वप्न सलोने 

जो आज भी 
ख्वाबों में अंगडाइयाँ लिया करता है बिना किसी ज़ुम्बिश के !!!
तारों में सज के अपने प्रीतम से देखो धरती चली मिलने …………गुनगुनाने को जी चाहता है मेरे अन्दर की लडकी का
अब ये तुम पर है …………किसे सच मानते हो ?
जो पहले कहा या जो बाद में …………सोच और ख्याल तो अपने अपने होते हैं ना
और मैं ना सोच हूँ ना ख्याल
बस जानने को हूँ बेकरार
क्या जानती हूँ और क्या नहीं ?
ये प्रीत के मनके इतने टेढे मेढे क्यों होते हैं ………मेरी जिजीविषा की तरह, मेरी प्रतीक्षा की तरह , मेरी आतुरता की तरह
वक्त मिला तो कभी जप के हम भी देखेंगे
शायद सुमिरनी का मोती बन जायें ………
अल्हड लडकी की ख्वाहिशों में 

चाहतों की शराब की दो बूँद काफ़ी है नीट पीने के लिये
ज़िन्दगी के लिये… ज़िन्दगी रहने तक
ओ साकी ! क्या देगा मेरी मिट चुकी आरज़ुओं को जिलाने के लिये 

अपने अमृत घट से एक जाम
फिर कभी होश में ना आने के लिये
मेरे पाँव थिरकाने के लिये
मेरे मिट जाने के लिये
क्योंकि
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
कि आखिर उसका आखिरी विज़न क्या है…………



और अब अंत में जानिये ये भी 

दोस्तों आज आपको बताना चाहती हूँ कि कल रविवार को दिन में 12 : 05 से 1 : 05 के बीच मीडियम वेब 819 पर आल इंडिया रेडियो पर मेरा काव्य पाठ और बातचीत सुनियेगा अगर आपके यहाँ ट्रांजिस्टर या रेडियो है तो :) 

गुरुवार, 6 जून 2013

ओ मेरे !.............4

मेरी आँखों में ठहरे सूखे सावन की कसम है तुम्हें ............कभी मत कहना अब "मोहब्बत है तुमसे" ...........बरसों कहूं या युगों कहूं नहीं जानती मगर ये जो आँखों की ख़ामोशी में ठहरा दरिया है न कहीं बहा न ले जाए तुम्हें भी और इस बार सैलाब रोके नहीं रुकेगा चाहे जितने बाँध बना लेना ..............जानते हों क्यों ? क्योंकि मैंने दिल की मिटटी में खौलता  तेज़ाब उंडेल दिया था उसी दिन जब तुम मेरी आखिरी ख्वाहिश जानकर भी वो तीन लफ्ज़ ना कह सके , ना ही महसूस सके ...........और अब हाथों में मेहंदी लगाने की रुत नहीं रही जिसे देख सिहर सिहर उठूँ ..........बीती रुत , गिरे पत्ते और सिन्दूरी मोहब्बत वापस नहीं मुड़ा करती हैं ..........जानां !!!

इश्क और जूनून पर्याय हैं एक दूजे के और मैं उनका अर्थ ..........नागफनी सी उग आती हूँ  बंजर , रेतीली जमीनों पर भी या कभी डंस लेती हूँ स्वयं ही अपनी रूह की उड़ानों को ..........जज़्ब करने की रुतें नहीं हुआ करती ना ............क्या कर सकोगे कभी तुम मेरी दहकती , भभकती रूह को खुद में जज़्ब और जी सकोगे उसके बाद मुस्कुराकर .............मेरी तरह ? ..............तुमसे एक सवाल है ये ...........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

रविवार, 2 जून 2013

ओ मेरे !..............3

जरूरी होता है खेत को सींचा जाना भी ऋतु आने पर ............यूं ही नहीं फसलें लहलहाती हैं ............सभी जानते हैं मगर मानता कौन है , करता कौन है ...............चाहे नेह का समंदर ठाठें मार रहा हो , चाहे सुनामी आने को आतुर हो मगर अहम की पोषित तुम्हारी वंशबेल कभी चप्पू उठाने ही नहीं देती  ...........चाहे किनारे नेस्तनाबूद हो जाएँ या नैया भंवर में ही डूब क्यों  न जाए .............एक अहम की कस्सी से तुम खोद ही नहीं पाते बंजर जमीन की  मिटटी को और नहीं रोंप पाते अपनी मनचाही फसल के बीजों को ............वैसे भी यहाँ तो खलिशों के रेगिस्तान की इकलौती मलिका हूँ मैं ...........हाँ , मैं , तुम्हारी चाहतों की कब्रगाह का फूल नहीं जो तोडा , सूंघा और मसल डाला ............जीने के लिए कुछ  रौशनदान बनाए हैं मैंने भी .............तुम्हारी दी बेरुखी से , तुम्हारी बदमजगी से , तुम्हारी बेअदबी से ................हवाये झुलसाने का शऊर बखूबी निभा रही हैं तब से .........जानां !!!

इश्क की कतरनें भी कभी क्या सीं जाती हैं ? और देख मैंने तो पूरा लिहाफ बना डाला ...........चाहो तो ओढ़ लो चाहो बिछा लो चाहो तो इबादत कर लो ..........कहो , कर सकोगे  इबादत , कर सकोगे बुतपरस्ती .......मुझसी ? .............तुमसे एक सवाल है ये ...........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !