बारातें तो बहुत देखी होंगी ............सूरतें भी बहुत गुजरी होंगी निगाहों से ..........मगर क्या देख पाए वो पुरनम नमी चेहरे की खिलखिलाहट में , जुल्फों की कसमसाहट में , आँखों की शरारत में , लबों की हरारत में .............नहीं देख पाए होंगे ...........जानती हूँ .............क्योंकि आँखें तो कब से मेरी आँखों में बसी हैं , दिल एक मुद्दत हुयी मेरे दिल में धड़कता है ...........तुम्हारे पास बचा क्या है तुम्हारा बताओ तो ज़रा ............सिवाय मेरे ! फिर भी क्यों कोशिश करते हो जीने की .........मेरे बगैर , समझ नहीं पायी आज तक तुम्हारी मुफलिसी का दंश .............और वो जो मुस्कराहट का लिबास ओढ़े तुम्हारी ज़र्द निगाहें जब भेदती हैं आकाश हो ............ना जाने कैसे हवाएं डाल देती हैं पर्दा रुखसारों पर और मैं खोजती हूँ फिर तुम्हारे ना होने में होने को ............उठाती हूँ मिटटी तुम्हारे दफनायें वजूद से ...........उसी वजूद से जो है मगर जिस पर तुमने रात की कालिख मल दी है ...........और करती हूँ उसका अन्वेषण .......मेरे खोजी कुत्ते दौड़ते हैं तुम्हारी रूह के कब्रिस्तान मे बेधड़क ...........जानने को तुम्हारी ज़मींदोज़ सभ्यताओं को ..........शायद कहीं मिल जाए कोई शहादत की निशानी और मैं बन जाऊं मुकम्मल ग़ज़ल तुम्हारी आँखों में ठहरी ख़ामोशी की ............जानां !!!
इश्क की बारातों के दूल्हे तो सदा अंगारों पर चला करते हैं ..........घोड़ी चढ़ना उनका नसीब नहीं हुआ करता ............और दुल्हनें सदा सुहागिन ही रहती हैं उम्र भर बिना सात फेरों की रस्मों को निभाए ..............और देख एक मुद्दत हुयी ..............मेरे इश्क की दुल्हन ने घूंघट नहीं खोला है सिर्फ और सिर्फ तेरे इंतज़ार में ............कि तुम एक दिन खुद उठाओगे घूंघट ..........क्या करोगे मुझे मुकम्मल मेरी मज़ार पर आरती का दीप जलाकर .........मेरी तरह क्योंकि एक मुद्दत हुयी मेरी आरती का दीप बुझा नहीं है अब तक ...........तुमसे एक सवाल है ये ...........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !