मेरी नीम बेहोशी में
बडबडाती आवाज़ का
शब्द बने तुम
और उतर गए
ग्लूकोज की बोतल में
चेतना को जागृत करते हुये
बूँद बूँद शिराओं में
गूंजता तुम्हारा संगीत
आत्मा को जिला रहा था
सांसों को ठहरा रहा था
एक अदृश्य हाथ
चमत्कृत सा
माथे को सहला रहा था
जीवन तंतु बिखराव से
जुड़ाव की ओर जा रहा था
सम्मोहन का
विष बाण तारी था
और एक ही झटके में
सांस की माला बिखर गयी
सम्मोहन टूट गया
जब धारा का प्रवाह उल्टा हो गया
जब ग्लूकोज की खाली बोतल
लहू के कतरे कतरे से भर गयी
सिर्फ सूईं गड़ी रह गयी जिस्म में
और मेरी बेहोशी टूट गयी
अब जीने को या कहो हंसने को
मजबूर हैं
हसरतों के लकड़बग्गे ..........
कैसे कह दूँ मुझे छोड़ दिया है उसने, बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की. बहुत दिनो के बाद आपके ब्लाग पर आया. हुकूमत के कामों ने सब कुढ छुडा़ दिया
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रभावशाली रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत ही बेहतरीन और सुन्दर प्रस्तुती ,धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंवाह.......अति सुन्दर ......
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-06-2013) के चर्चा मंच 1277 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन और सुन्दर प्रस्तुती
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन तार आया है... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएं.बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंlatest post पिता
LATEST POST जन्म ,मृत्यु और मोक्ष !
हसरतें तो मुँह फैलाए बैठी ही रहती है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और सुन्दर प्रस्तुति.
बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति वन्दना जी..
जवाब देंहटाएंआभार
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंये सब उल्टा पुलटा कैसे हुआ ??? हसरतों के लकड्बग्गे सोचने पर विवश कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंएकदम से यह क्या हो गया?नहीं, लकड़बग्घों को दूर ही रहने दीजिये,यह जगह उनके लिए नहीं!
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