भक्ति और ज्ञान यूँ तो एक दूसरे के पूरक हैं मगर सिर्फ ज्ञान हो और भक्ति नहीं तो अधूरापन रह ही जाता है मगर यदि भक्ति हो तो ज्ञान खुद आ जाता है सिर्फ इतना ही फर्क है लेकिन दोनों के अस्तित्व की जरूरत तो है ही . फिर सांसारिक व्यक्ति के लिए तो और भी जरूरी हो जाता है की इस भेद को समझे और फिर उसका अनुकरण करे मगर जो इस भेद को जाने बिना अनुकरण करते हैं उनकी दशा वैसी ही होती है जैसे कोई नाव में किनारे पर ही बैठा रहे और वहीँ पतवार चलाता रहे मगर उसे खुला ना छोड़े . ज्ञानी की दशा तो उस बालक की तरह होती है जो अब बड़ा हो चुका है और अपना ख्याल खुद रख सकता है मगर भक्त की दशा उस बच्चे जैसी होती है जो पूरी तरह अपनी माँ पर ही निर्भर होता है तो उसकी देखभाल का दायित्व माँ का होता है तो ऐसे भक्त की रक्षा स्वयं परमेश्वर करते हैं फिर चाहे उससे भक्ति में कोई गलती ही क्यों ना हो जाए मगर इसी जगह यदि ज्ञानी से गलती हो जाए तो उसके लिए वो खुद जिम्मेदार होता है . बस यही तो ज्ञान और भक्ति में फर्क होता है . ज्ञान में अहम् भाव प्रमुख होता है और भक्ति में सिर्फ और सिर्फ समर्पण होता है .
कोरा ज्ञान भी सफ़लता का परिचायक नही होता बिना भक्ति के ज्ञान भी अधूरा है और भक्ति का यदि रूप देखा जाये तो स्त्रीलिंग है और ज्ञान पुल्लिंग तो कहिये कैसे समायोजन हो सकता है जब तक दोनो का मिलन ना हो . देखिये गोपियाँ भक्तिस्वरूपा थीं मगर ज्ञान से भी ओत प्रोत थीं दूसरी तरफ़ उद्धव को केवल कोरा ज्ञान ही था तो क्यों कृष्ण ने चाहा कि ये भक्ति का स्वरूप भी जाने और भेज दिया गोपियों के पास ………ये सब इसी ओर इंगित करता है कि जैसे भक्ति और ज्ञान दोनो का होना जरूरी है पूर्ण बनने के लिये वैसे ही संसारिक व्यक्ति को भी इन दोनो से रु-ब-रु होना जरूरी है ये तो एक दृष्टांत है मगर इसकी गहराई सिर्फ़ यही कहती है कि दोनो के बिना अधूरापन ही रहेगा ………हाँ जिसने संसार देख लिया जान लिया और मान लिया कि ये मिथ्या है मगर हम आये है यहां तो कर्म किये बिना नही रह सकते और फिर जिसने निर्लिप्त भाव से कर्म किया वो ही यहाँ सफ़ल हुआ और पूर्ण हुआ। जरूरी नही कि सन्यास ही धारण किया जाये घर मे रहकर भी सन्यासी बना जा सकता है तभी तो कबीर जीने कहा है "सच्चा त्याग कबीर का जो मन से दिया उतार " उसके बाद निर्लिप्त भाव से किया गया कर्म भी पूजा बन जाता है फिर चाहे वो घर मे रहे या जंगल मे.मगर त्यागपूर्वक भोग करना भी आसान नहीं होता . सबसे बड़ी बात तो उसका सही अर्थ ही कोई समझ नहीं पाता और कर्म व् त्याग के झूले पर झूलने लगता है . मगर उसका मर्म नहीं समझ पाता . कैसे घर में रहकर भी त्यागी बना जा सकता है और कैसे त्यागी होकर भी भोग में संलिप्त हुआ जा सकता है ? क्योंकि जब तक भोग का त्याग करने की भावना बलवती नहीं होती कोई भी कर्म अकर्मण्य नहीं होगा और जब कर्म में लिप्सा रहेगी तो भक्ति कहाँ से आएगी तो उसके लिए सबसे पहले यही समझना होगा कि त्यागपूर्वक भोग क्या होता है ?
भक्ति और ज्ञान की परिभाषा बहुत गहन है जितनी व्याख्या करो उतनी ही कम पड़ जाए . सबसे जरूरी बात सिर्फ यही होती है की ज्ञान भक्ति के बिना पंगु है मगर भक्ति जहाँ आती है वहाँ ज्ञान और वैराग्य स्वमेव आ जाते हैं उन्हें बुलाना नहीं पड़ता . क्योंकि निश्छल भक्ति ही तो प्रभु को प्रिय है और बिक जाते हैं वो बिन मोल के और जिसे वो मिल जाएँ तो वो क्या उनका भक्त अज्ञानी रह सकता है ? गोपियाँ क्या थीं गाँव की ग्वालिनें ही तो थीं जिन्होंने कभी ज्ञान कहीं से पाया ही नहीं सिर्फ एक प्रेम की भक्ति से प्रभु को वशीभूत कर लिया तो ज्ञान गंगा तो स्वयं उनके चरण प्रक्षालन करने लगी . यही तो प्रभु भक्त की महिमा होती है क्योंकि वो अपना सब कुछ उन्हें अर्पण कर चुका होता है . उसके बाद उसका जो कर्म होता है वो सिर्फ और सिर्फ अपने प्रभु के लिए होता है देखने में ऐसा लगता है जैसे वो गृहकार्य कर रहा है बाल बच्चों में संलिप्त है मगर वास्तव में वो जितने भी कर्म करता है अपने प्यारे प्रभु के लिए करता है तो उसका ये कर्म भी उसका भगवद धर्म बन जाता है और यही सबसे बड़ा पूजन होता है .त्यागपूर्वक भोग हो या भक्ति का निश्छल स्वरुप या कर्म की मीमांसा सब एक में ही समाहित है सिर्फ दृष्टि के भेद से ही अलग स्वरुप दीखते हैं और जो इनके पार पहुँच जाता है वहाँ अस्तित्व पृथक कब होते हैं और वो ही तो भक्ति की उच्च अवस्था होती है जो ज्ञान से परिपूर्ण होती है .भक्ति की गंगा में अवगाहन करता ज्ञान ही तो भक्ति की पराकाष्ठा होती है .
दोस्तों ये पोस्ट कल शाम ही नवभारत टाइम्स के ब्लोग(http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/zindagiekkhamoshsafar/entry/%E0%A4%AC_%E0%A4%A8_%E0%A4%AD%E0%A4%95_%E0%A4%A4_%E0%A4%9C_%E0%A4%9E_%E0%A4%A8_%E0%A4%85%E0%A4%A7_%E0%A4%B0) पर लगायी थी और देखिये आज पाबला जी की मेहरबानी से पता चला कि ये यहां छप भी गयी देखिये इस लिंक को
अब पाबला जी का शुक्रिया किन लफ़्ज़ों मे अदा करूँ? कहाँ कहाँ हम लोग छप जाते हैं और पाबला जी की वजह से पता चलता है वरना तो पता ही ना चले।
सटीक बात कहता लेख .... बधाई
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बात कही आपने वंदना जी ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर व्याख्या की है आपने.
जवाब देंहटाएंहमने यह सुना है कि गोपियाँ पूर्व जन्म में
ज्ञानी ध्यानि ऋषि थीं.
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार कर्म की समाप्ति ज्ञान में होती है.ज्ञान कर्म साधना का फूल
है तो भक्ति फल.
अनुपम ज्ञानवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार वंदना जी,
Vandna Ji Namaskar !
जवाब देंहटाएंApka Alekh pada accha laga..
Nishchit hi apka prayas sarahneeya hai...
Dhayavad..
Vandna Ji Namaskar !
जवाब देंहटाएंApka Alekh pada accha laga..
Nishchit hi apka prayas sarahneeya hai...
Dhayavad..
Vandna Ji Namaskar !
जवाब देंहटाएंApka Alekh pada accha laga..
Nishchit hi apka prayas sarahneeya hai...
Dhayavad..
@ rakesh kumar ji
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल सही सुना है और आप से ज्यादा ज्ञान तो हमे है भी नही ……बस जो भाव मन मे उभरे वो ही प्रकट किये हैं । ज्ञान कर्म साधना का फूल
है तो भक्ति फल.इसमे तो कोई शक ही नही है ………जिसने ये भक्ति रूपी फ़ल चख लिया हो उसके तो क्या कहने बस गोपियाँ उसी रस मे तो डूबी रहती थीं।
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ... ज्ञानवर्धक प्रस्तुति जिसके प्रकाशन के लिए भी बधाई ...आभार
जवाब देंहटाएंआपकी भक्ति,आपके ज्ञान के समक्ष नतमस्तक हूँ वंदना जी...
जवाब देंहटाएंआभार इस पोस्ट के लिए..
अनु
@ आप से ज्यादा ज्ञान तो हमे है भी नही ……
जवाब देंहटाएंप्लीज,ऐसा कहकर शर्मिंदा न कीजियेगा वन्दना जी.
आप की ज्ञान और भक्ति से तो हम सब अभिभूत हो रहे हैं.
आपके सुन्दर सत्संग ही का तो प्रभाव है सब
कि आपके लिखे पर कुछ प्रतिक्रिया कर देता हूँ.
भक्ति के सम्बन्ध में मीरा के भजन के ये बोल याद आ रहे हैं
'दूध की मथनिया बड़े प्रेम से बिलोई
माखन सब काढ लियो,छाछ पिए कोई'
'अंसुअन जल सींच सींच प्रेम बेल बोई
अब तो बेल फैल गई,आणद फल होई'
'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई'
हार्दिक आभार जी.
@rakesh kumar ji
जवाब देंहटाएंऐसा मत कहिये आप तो ज्ञान की गंगा बहाते हैं और हम उसमे डुबकी लगाते हैं तब जाकर कुछ आखर उतर आते हैं। मीरा के भजन के ये बोल पढवाने के लिये हार्दिक आभार ………मीरा जैसी ये लगन कहाँ लग पाती है मीरा तो सिर्फ़ एक ही हुयी है राकेश जी हमे तो उनकी चरण धूलि भी मिल जाये तो हम धन्य हो जायें।
KABHEE-KABHEE BHAKTI AUR GYAAN KEE
जवाब देंहटाएंCHARCHAA - PARICHARCHAA BHEE HONEE
CHAHIYE . AAPKE LEKHAN KAA YAH ROOP
BHEE ACHCHHA LAGAA HAI , VANDANA JI .
बधाई एक बेहतरीन रचना और उसके प्रकाशन के लिए।
जवाब देंहटाएंएक सार्थक लेख के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंभक्ति के लिए ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है। भक्त बिना ज्ञान के ही परमात्मा को उपलब्ध होता है। ज्ञानी ज्ञान छोड़े बिना भक्त नहीं हो सकता और बिना भक्त बने,परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं।
जवाब देंहटाएंये लेख बहुत अच्छा लिखा है आपने वन्दना जी| ज्ञानी तो धन्य हैं ही, भक्त और भी ज्यादा धन्य हैं|
जवाब देंहटाएंसटीक सुन्दर आलेख,,,,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
बधाई बधाई
जवाब देंहटाएंsachchi baat:)
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और ज्ञानवर्धक आलेख...आभार
जवाब देंहटाएंसत्य को अभिव्यक्त करता...
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेखन...
सादर.
जीवन के मर्म को उजागर करता भक्ति से भरा सदमार्ग को बतलाता पोस्ट .
जवाब देंहटाएंभाव भीनी रचना प्रणाम स्वीकार करें ......
भक्ति और ज्ञान का समग्र विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंसही है, भक्ति और ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।
Bahut dinon baad blogjagat me aayee hun....kaisi ho? Aapke lekhan ke bareme to mai kuchh kahne ke qabil hee nahee!
जवाब देंहटाएंपूर्णतया सहमत हूँ..
जवाब देंहटाएंआपकी व्याख्या सही है. इस ज्ञानवर्धन के लिये धन्यबाद.
जवाब देंहटाएंभक्ति में शक्ति है..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख..