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सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

जाने कब गूंगे हुए

जाने कब गूंगे हुए 
एक अरसा हुआ 
अब चाहकर भी जुबाँ साथ नहीं देती 
अपनी आवाज़ सुने भी गुजर चुकी हैं 
जैसे सदियाँ 

ये बात 
न मुल्क की है 
न उसके बाशिंदों की 

लोकतंत्र लगा रहा है उठक बैठक 
उनके पायतानों पर 
और उनके अट्टहास से गुंजायमान हैं 
दसों दिशाएँ 

उधर 
निश्चिन्त हो 
आज भी 
राघव पकड़ रहा है 
बंसी डाले पोखर में मछलियाँ ........

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-10-2020) को   "जीवन है बस पाना-खोना "    (चर्चा अंक - 3847)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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