बन चुकी है गठरी सी
सिकुड़ चुके हैं अंग प्रत्यंग
बडबडाती रहती है जाने क्या क्या
सोते जागते, उठते बैठते
पूछो, तो कहती है - कुछ नहीं
सिर्फ देह का ही नहीं हो रहा विलोपन
अपितु अस्थि मांस मज्जा भी
शनैः शनैः छोड़ रही हैं स्थान रिक्त
और कर रही है वो पदार्पण
एक बार फिर से अपने शिशुत्व की ओर
शिशु
सोता है, रोता है, खाता है और सोता है
बस ऐसे ही तो बन चुकी है उसकी दिनचर्या
जहाँ स्वयं के शरीर का भार भी नहीं उठा पा रही
शिशु जो नहीं उठ बैठ पाता खुद से
नहीं नहा सकता खुद से
यहाँ तक कि चलने को भी जरूरत होती है सहारे की
नहीं ओढ़ पाता कम्बल या रजाई खुद से
सर्द गर्म से होता है जो परे
मानो समाधिस्थ हो कोई ऋषि मुनि किसी तपस्या में
इन्द्रियों पर नहीं होता जहाँ नियंत्रण
मल मूत्र विसर्जन स्वाभाविक प्रक्रिया सा
जहाँ होता है बिस्तर में ही संपन्न
यूँ शिशुवत हो गया उसका सब व्यवहार
लगता है जैसे उसने भी
ले लिया है जन्म दोबारा एक ही जन्म में
जन्म क्या है और मरण क्या?
जन्मने के बाद और मरने से पहले
हो जाती है दैहिक अवस्था जब समान
फिर शोक किसका और क्यों?
चक्र चलता है पुनः पुनः
लौटता है फिर फिर मौसम
यही तो है आवागमन
देह में देह का
आत्मा में आत्मा का
मृत्यु में जन्म का और जन्म में मृत्यु का
शायद यही कहलाता है पुनर्जन्म
प्रौढत्व से शिशुत्व की यात्रा में
मैं देख रही हूँ ... माँ को फिर से शिशु बनते हुए