धुआँ घुटन का किस फूँक से उड़ायें
धंसे बेबसी के काँच अब किसे दिखायें
न हो सकी उन्हीं से मुलाकात औ गुजर गयी ज़िन्दगी
अब किस पनघट पे जाके प्यास अपनी बुझायें
मन पनघट पर जा के बुझा ले प्यास सखी
पिया आयेंगे की लगा ले आस सखी
वो भी तुझे देखे बिन रुक न पायेंगे
फिर क्यों विरह से किया सोलह श्रृंगार सखी
साँझ की बेला में ही जवाकुसुम खिलते हैं
मन के हरसिंगार तो मन में ही झरते हैं
कैसे प्रीत की रीत सिखाऊँ सखी
पिया मिलन बिन तो अश्रु बिंदु ही गिरते हैं
चंदा की चांदनी से कर श्रृंगार सखी
तारों की ओढ़नी से सर ढांप सखी
नयनों में डाल विभावरी का सुरमा
दे अपनी प्रतीक्षा को नया आयाम सखी
पल पल युगों सम बीतें जिसके
वो क्या अंतिम क्षणों को रोके
आस का करके स्वयं ही तर्पण
अब अंतिम प्रयाण का है आगाज़ सखी
उल्फत के गुलाब हर बार शरद में ही खिलें जरूरी तो नहीं .....
बहुत सुंदर पंक्तियाँ। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंiwillrocknow.com
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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