सुनो
मत कुरेदो हमें
हम अवसाद में हैं
मत पूछना कैसा अवसाद
नकारात्मकता के ढोल जब
बेतहाशा बज रहे हों
कान के परदे जब फट रहे हों
बेचैनियों के समुन्दर जब ठाठें मार रहे हों
और सोच के कबूतर जब उड़न-छू हो गए हों
तल्खियों के पैरों में मोच आई हुई हो
तब
चुप के तहखाने में सिसकती है मानवता
अदृश्य बेड़ियों में जकड़ी
सिर्फ खुद से सवाल जवाब किये जाती है
नकारात्मकता के शोर में घायल देह पर
रक्तिम दस्तकारियां चिन्हित करती हैं
देश काल और समय
हम अट्टहास की प्रतिक्रियाएं सुना करते हैं
तुम नहीं समझ सकते हमारे अवसाद की वजहें
तुम सिर्फ शोर के पुजारी हो
चित्रकारियाँ करीने से की गयी हों जहाँ
कि पाँव पग पग पर घायल होता हो
और सिसकने को बचा न हो दिल
आँखों में उतरे मोतियाबिंद ने
कराहों से समझौता कर लिया हो
वहाँ दिन और रात महज वहम के सिवा कुछ भी तो नहीं
फिर 'जिंदा हो तुम' महज एक स्लोगन सा चस्पा रहता है
बेजारियों के मौसम हैं ये
जहाँ राजनीति की दुल्हन
अपने सम्पूर्ण श्रृंगार से लुभा रही है प्रेमियों को
और हम
मुँह बाए देखने को हैं कटिबद्ध
चहुँ तरफ फैली निर्ममता की खरपतवार को
अवसाद के ढोर
नहीं चरा करते सत्ता की हरी घास
स्याह रुबाइयों को लगाकर गले
बस अलापते हैं एक ही राग
बिक चुका है जहाँ जमीर कोयले की खानों में
वहाँ उम्मीद की चिलम कैसे भरें
इसलिए
मत कुरेदो हमें
हम अवसाद में हैं
©वन्दना गुप्ता vandana gupta
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
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