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शनिवार, 31 मार्च 2018

नहीं, ये मैं नहीं

नहीं ये मैं नहीं
नहीं वो भी मैं नहीं
मैं कोई और थी
अब कोई और हो गयी


बेदखली के शहर का आखिरी मज़ार हूँ
जिस पर कोई दीया अब जलता नहीं
हाँ, मैं वो नहीं
मैं ये नहीं


मैं कोई और थी
जिसकी चौखट पर
आसमाँ का सज़दा था
पीर फ़क़ीर दरवेश का कहकहा था


सच, वो कोई और थी
ये कोई और है
पहचान के चिन्हों से परे
इक रूह आलाप भरती है
मगर सुकूँ की मिट्टी से
न रुत ख्वाब की बदलती है


जो बिखरी मिटटी से बुत बना दे और बुतपरस्ती कर ले
यकीं कर
मैं वो नहीं, वो नहीं, वो नहीं


अब दरका हुआ आईना हूँ मैं
पहचान के तमाम चिन्हों से परे
उम्र जब लिबास बदलती है
न खोजचिन्ह छोड़ती है
अब खोजती हूँ खुद को
मैं कौन? मैं कौन? मैं कौन?

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-04-2017) को "रचनाचोर मूर्खों बने रहो" (चर्चा अंक-2927) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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