राम
बधाई और शुभकामनाओं तक ही बची है तुम्हारी प्रासंगिकता
जानते हो
प्रयोग होते हो तुम अब एक अस्त्र की तरह
जिससे जीती जाती हैं जंग
तुम, तुम्हारी मर्यादा और तुम्हारा औचित्य
महज प्रायोगिक हथियार हैं
जिनसे काटी जाती हैं सभ्यताओं की नस्लें
इस मर्यादाविहीन समय में
मर्यादा महज वो खिलौना है
जिससे दूसरों को ही सिखाया जाता है
खुद पर अमल करना शर्म का विषय गिना जाता है
क्या सोचा था कभी तुमने
जो राह तुम दिखा रहे हो
वहां ऐसी नागफनियाँ उगेंगी ?
अब काटने को नहीं बचा कोई औजार
क्योंकि
यहाँ सभी औजारों में तब्दील हो चुके हैं
भय का कोलाहल मथ रहा है
पंगु है चेतना
हावी है वासना
तत्वचिंतन महज कोरा ज्ञान भर है
भुनाने का एकमात्र अवसर हो तुम
क्या वाकई खुश होते होंगे तुम देख कर
झूठी संवेदनाएं और प्रतिक्रियाएं
जबकि जानते हो आज तुम महज एक मुद्दा भर रह गए हो
बताओ तो जरा
ऐसे निसहाय समय में कैसे दूँ तुम्हारे जन्म पर तुम्हें शुभकामनाएं
जब शुभकामनाओं का कटोरा भरा है
समय की दुर्दान्तता से
असामाजिक तत्व सी हो गयी है समय रेखा
ह्रदय उमगे भी तो भला किस बिनाह पर ?
क्या नहीं लगता राम तुम्हें
आज तुम्हारे जन्म को बना दिया
इस स्वार्थी जगत ने एक अभिशाप तुम्हारे लिए ...ऐसा तो नहीं सोचा था न तुमने?
उन्होंने तुम्हें
न भगवान् रहने दिया न इंसान
विडंबना की दहलीज पर
कैसे चटखती होंगी तुम्हारी श्वासें तिल तिल
मापने को नहीं मेरे पास कोई यंत्र
बस इतना समझ लो .....काफी है
बदल चुके हैं अब रिवाज़
जन्मदिन मनाना महज दिखावा भर रह गया है
और
यहाँ जन्म लेना अब नियति है तुम्हारी... बार बार हर बार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'