"धुँधले अतीत की आहटें" गोपाल माथुर जी द्वारा लिखित उपन्यास बोधि प्रकाशन से छपा है जिसे गोपाल माथुर जी ने बहुत ही स्नेह के साथ मुझे भेजा . गोपाल माथुर जी की लेखनी को मैंने पहले भी पढ़ चुकी हूँ तो उनकी लेखनी की तो हमेशा से ही कायल हूँ .
जब इस उपन्यास को पढ़ा तो लगा लेखक खुद में एक पूरी यूनिवर्सिटी हैं .उपन्यास लेखन वैसे भी कोई आसान कार्य नहीं होता . एक लगन निष्ठा , एकाग्रता और निरंतरता की मांग करता है जिसका अहसास उपन्यास पढ़ते समय होता है . उपन्यास पढ़ते हुए लगता है जैसे इस उपन्यास के बारे में दो लफ़्ज़ों में नहीं कहा जा सकता। एक यात्रा है ये लेखक की जहाँ वो अनुपस्थित होते हुए भी उपस्थित है जो पाठक के मन से मानो संवाद कर रहा हो, उसे झकझोर रहा हो । पाठक मन चकित विस्मित सा कथा के प्रवाह में बहता जाता है। ये सच है उपन्यास लेखन एक यात्रा से कम नहीं और यहाँ भी पढ़कर ऐसा ही लगता है जैसे लेखक ने ये उपन्यास कोई साल छह महीने में नहीं लिखा हो बल्कि एक लम्बा अरसा उन लम्हों को जीया हो और फिर उन्हें एक सूत्र में पिरोया हो . मानो कोई रोज डायरी लिख रहा हो . रोज की दिनचर्या में पल प्रतिपल बदलते जीवन के पहलू और उनसे उपजी पीड़ा , हताशा तो इंसान सहता ही है मगर रिश्तों की तल्खियों से ऊबकर जब जीना पड़ता है तब अपने विगत से छूट नहीं पाता वो आज में भी साथ साथ चलता है . यूँ कहानी में मुख्य पात्र दो ही हैं सिंथिया और लेखक, जो इस कहानी को कह रहा है या कहिये सोच रहा है या फिर जी रहा है . मगर दो पात्र अनुपस्थित होते हुए भी हर पल उपस्थित हैं फिलिप और संजना. फिलिप सिंथिया का पति और संजना लेखक के साथ रहने वाली लिव इन पार्टनर . इस अनुपस्थिति में उपस्थिति को दर्शाना बेशक आसान हो मगर उस उपस्थिति का अहसास हर पल बनाए रखना आसान नहीं होता लेकिन लेखक ने ऐसा किया है . लेखक ने मानो एक जीवन को जीकर इस उपन्यास को लिखा है . पाठक उपन्यास जैसे जैसे पढता जाएगा पात्र उसके साथ साथ चलते जायेंगे और ऐसे उसके साथ शामिल हो जायेंगे कि वो पात्रों के नाम तक भूल जाएगा क्योंकि ऐसा ही मेरे साथ हुआ है अब जब इसके बारे में लिखने बैठी हूँ तो ख्याल आया कि स्त्री पात्र का तो नाम यहाँ वर्णित है मगर शायद पुरुष पात्र को कोई नाम नहीं दिया लेखक ने , जहाँ तक मुझे याद है . या हो सकता है उसका कोई नाम हो और एक आध जगह आया हो तो पात्र के नाम की जरूरत ही महसूस नहीं हुई शायद इसीलिए ध्यान से निकल गया हो . शायद यही होता है लेखन का कमाल जहाँ स्त्री और पुरुष भर दो पात्र रह जाएँ बाकी सब गौण हो जाए .
मूल बात इस उपन्यास को तीन हिस्सों में बाँटा है लेखक ने और हर हिस्से से पहले एक कविता वर्णित है जो उस भाग में क्या लिखा है मानो उसका दर्पण है . वहीं इस कहानी का मुख्या पात्र यानि पुरुष भी एक लेखक है जो खुद भी एक उपन्यास लिख रहा है यानि कहानी के साथ साथ उसके उपन्यास लेखन की यात्रा का भी लेखक ने बखूबी वर्णन किया है मानो कहना चाहता हो किन किन मोड़ों से गुजरते हुए एक उपन्यास आकार पाता है , किन जद्दोजहद से लेखक गुजरता है फिर वो आन्तरिक हों या मानसिक और पाठक एक क्षण में उसे स्वीकार या अस्वीकार कर देते हैं .
कहानी कोई कहे तो दो लफ़्ज़ों में कह दे लेकिन कहानी को ठहराव के साथ , महसूस करते और कराते हुए कहना हो तो लेखक से सीखे जहाँ दोनों पात्रों की अपनी अपनी ज़िन्दगी में एक अतीत है जिसे दोनों छोड़ चुके हैं मगर भुला नहीं पाते , गाहे बगाहे अतीत उनकी स्मृतियों में जिंदा रहता है , अपनी उपस्थिति का आभास कराता रहता है . वहीँ सिंथिया और उसका बेटा पिन्टो दोनों तक ही सिमटी है उनकी ज़िन्दगी लेकिन फिलिप की अनुपस्थिति में उपस्थिति से व्याप्त पीड़ा का दंश सिंथिया हर पल जीती है , जिसमे अन्दर आने की किसी को इजाज़त नहीं. उस दर्द को जीते हुए किन किन मोड़ों से एक स्त्री गुजरती है, कितनी अकेली वो होती है , कैसे कोई प्रतिकार उसके पास होता ही नहीं , एक एक लम्हे का जैसे आँखों देखा हाल किसी ने वर्णन किया हो , कुछ ऐसे लेखक ने पल पल को जीवंत किया है कि एक एक घटनाचक्र आँखों के आगे घटता हुआ दिखाई देता है . सिंथिया जैसी स्त्री जो कम बोलती है , उसकी अपनी एक दुनिया है जिसमे किसी का प्रवेश नहीं . वो साथ बैठी है मगर अपनी दुनिया में खो जाती है, एक उदासी हर पल उसे अपने घेरे में कैद करे रखती है जो लेखक को कचोटती है लेकिन वो उसके एकांत में दखल नहीं देता. उसे अपनी सीमा मालूम है. एक रहस्य मानो दस्तक देता हो और उधर के सब दरवाज़े तिलिस्मी हों जो खुलेंगे तो सिर्फ सिंथिया की इच्छा पर ही .
सबसे बड़ी बात उपन्यास जिस मद्धम गति से चलता है लगता है इतनी ही मद्धम गति से लिखा गया और पढ़ा भी वैसे ही जाता है मानो कोई स्वाद के चटखारे ले लेकर भोजन का आनंद ले रहा हो . इस उपन्यास के बारे में जितना लिखा जाएगा कम ही रहेगा और यदि किसी को एक यात्रा का आनंद लेना हो, पात्रों के संग उसे जीना हो तो ये उपन्यास खुद पढना होगा और पढ़ते हुए उसे जीना होगा . यूँ दो चार पात्र कहानी में आते जाते हैं मगर मुख्य दो पात्र ही इस उपन्यास का दिल धड़कन आत्मा और शरीर सब हैं . जहाँ कोई रिश्ता नहीं होकर भी दुःख का रिश्ता स्वतः बन जाता है . शायद इसीलिए कहा गया हो खगही जाने खगही की भाषा. फिर भी लगता है जैसे जब तक खुद उस हालात से न गुजरो आप नहीं समझ सकते दूसरे की तकलीफ दर्द और पीड़ा को . पीड़ा जो अपने रसायन से बाहर ही नहीं आने देती सिंथिया को और जो संभव ही नहीं था . सिंथिया एक रहस्यमयी पात्र के रूप में आती है लेकिन जब अंत पढो और उस रहस्य से पर्दा हटता है तो लगता है जैसे सब कुछ छिन गया हो और प्रश्न उठे आखिर ऐसा क्यों?
उपन्यास के अंत ने तो मानो इस यात्रा को यानि पाठक की यात्रा को जैसे डेड एन्ड पर लेजाकर खड़ा कर दिया और मानो खुद से पूछ रहा हो ऐसा आखिर क्यों। ब्रैस्ट कैंसर की भयावह त्रासदी को लेखक जिस तरह उकेरा है शायद ही कोई लिख पाया हो। एक सच का एक जीवन की जटिलता का कैसे सामना करना होता है बल्कि कहा जाये खुद का खुद से सामना करना क्या इतना आसान होता है खासतौर से तब जब एक स्त्री का न केवल बाह्य सौंदर्य बल्कि आंतरिक सौंदर्य भी प्रभावित हो रहा हो। उस जद्दोजहद उस कश्मकश को कहना आसान नहीं . एक स्त्री जो इस पीड़ा से गुजरती है उसके दर्द को , उसकी निराशा हताशा को , उसके जीवन की नीरसता को कैसे कलमबद्ध किया जाए शायद लेखक से बेहतर कोई वर्णित नहीं कर सकता . हर पल आप सिर्फ कयास लगाते रहेंगे उसकी उदासी का , उसके अकेलेपन का कि शायद कोई भी वो कारण हो जैसा अक्सर होता है लेकिन जैसे ही अंत आपके सामने आएगा आप न केवल चौंक उठेंगे बल्कि पूरी कहानी और सिंथिया की पीड़ा क्षण भर में एक चलचित्र की भांति आपके सामने होगी और आप भी उसके दर्द से कराह उठेंगे शायद तब समझ पायें एक कैंसर पीडिता का दर्द, उसकी विवशता जहाँ उसे जीना भी अभिशाप सा लगता है सिर्फ मातृत्व ही उसे जीने की वजह देता है . उस पर दोनों वक्षस्थल गँवा देना और उसकी वजह से फिलिप का उसे छोड़ दूसरी के साथ रहना , शायद काफी है एक जीवन को अभिशापित करने के लिए , उससे उसका वजूद छीनने के लिए , जीवन भर के लिए दुःख के गर्त में धकेलने के लिए और ऐसा ही सिंथिया के साथ यहाँ होता है बस जो एक पक्ष में बात होती है वो ये कि उसके पास उसका एक बच्चा है जो उसे जीने को वजह देता है वर्ना यदि वो भी न होता तो ? तब शायद वो कभी इस पीड़ा से बाहर ही नहीं आ पाती, जीने की कोई वजह ही नहीं ढूंढ पाती. बेशक बीमारी में उसका दोष नहीं लेकिन अंग भंग होने पर भी जीना ही पड़ता है बस जरूरी है एक वजह तभी नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू की जा सकती है . ब्रेस्ट कैंसर की भयावहता का दूसरा नाम है सिंथिया , जहाँ कैंसर के दर्द से भी गहरे दर्द में वो जी रही है या कहा जाए सिंथिया के माध्यम से लेखक ने ब्रैस्ट कैंसर की उस भयावहता का दर्शन कराया है जो उससे निजात पाने पर उपजती है . बेशक समय समय पर ब्रैस्ट कैंसर पर कभी अनामिका जी और पवन करण जी ने कवितायें लिखीं लेकिन शायद वो सिर्फ कविताओं तक ही सिमित रहे उसकी भयावहता को महसूस न कर सके यदि करते तो शायद कविता का रूप कुछ अलग ही होता . बेशक मैंने भी एक कविता लिखी थी कभी इसी पर "देखा है कभी राख को घुन लगते हुए" . वहां मैंने भी एक युवती जो अभी माँ भी नहीं बनी और ब्रैस्ट कैंसर की शिकार हो जाए और उसके दोनों वक्षस्थल यदि निकल जाएँ तो कैसा मह्सूसेगी जब जब अपने उस अंग को देखेगी , उसका दिग्दर्शन कराया है और यहाँ ये पढ़कर लगा जैसे मेरी उस कविता को , उस स्त्री के दर्द को लेखक ने समझा है और उपन्यास का रूप दिया है जहाँ एक जगह ऐसी आती है कि सिंथिया कहती है यदि पिन्टो न होता तो शायद वो अपना जीवन ही ख़त्म कर लेती और यही बात मैंने उस कविता में कही थी कि कैसा लगता होगा एक स्त्री को जब वो मातृत्व के सुख से वंचित हो जाती होगी शायद तब खुद को किन्ही कमजोर पलों में ख़त्म करने की भी सोच लेती होगी . वही मुझे यहाँ मिला . शायद यही इस बिमारी की भयावहता का सबसे दर्दनाक पहलू है जहाँ वो एक सफल जीवन नहीं जी पाती . ऐसे में जरूरी होता है एक पुरुष का साथ लेकिन हजारों में कुछ ही होंगे जो साथ देते होंगे नहीं तो जाने कितनी इस त्रासदी को भोगती होंगी . ये पढ़कर लगा जैसे मेरी कविता को आज सार्थकता मिल गयी या कहूँ इस संसार में कहीं न कहीं वो घटित होता है जो लिखा जाता है फिर पता चाहे बाद में चले ........ऐसा लगा जैसे उस कविता के पात्रों को लेखक ने जिवंत कर दिया हो और मेरा लिखना सफल हो गया हो . ये उपन्यास मानो उस कविता का आईना हो .
वहीँ एक ख्याल उभरता है कि स्त्री यदि शारीरिक रूप से अक्षम हो जाए तो पुरुष को पल नहीं लगता उसे छोड़ दूसरा जहान बसाने में लेकिन वहीँ ऐसा यदि पुरुष के साथ हो तो वो ताउम्र उसकी लाचारगी और विवशता के साथ जी लेती है . और यहाँ तो शारीरिक रूप से अक्षम भी नहीं है बल्कि बीमारी की त्रासदी से ग्रसित है लेकिन मानो स्त्री सिर्फ यौनांगों के कारण ही पूर्ण है अन्यथा पुरुष की नज़र में उसकी कोई कीमत नहीं . नहीं मिलता उसे पुरुष साथी का साथ . लगता है जैसे स्त्री सिर्फ यौनिकता को पूर्णता देने वाला पात्र भर है उससे इतर उसकी कोई पहचान नहीं और शायद यही दंश है जो सिंथिया को घुन की तरह खाता रहता है , अपनी अपूर्णता का हर पल अहसास कराये रखता है वहीँ फिलिप का इंतज़ार उसके प्रेम की पराकाष्ठा है . एक स्त्री किस हद तक किसी को चाह सकती है , किसी के लिए जी सकती है मानो एक एक पल को लेखक ने खुद देखा हो और कलमबद्ध किया हो, पाठक को ऐसा लगता है . इतनी बारीकी से स्त्री मन की पीड़ा को कह पाना आसान नहीं खासतौर से जब स्त्री पात्र की चुप्पी ने सब राहें बंद कर रखी हों. लेकिन उसकी चुप्पी भी मुखर है जरूरत है तो उसे देखने और समझने वाली नज़र की और ऐसा ही यहाँ हुआ जब उपन्यास का पुरुष किरदार उर्फ़ लेखक ने उसे देखा और समझना चाहा . यहाँ गोपाल माथुर जी ने लेखक मन कैसा सूक्ष्म होना चाहिए कि सामने वाले की आँखें , भाव भंगिमा देख ही जान ले उसके अन्दर की हलचल को , तूफ़ान को , निराशा को , का लेखक के माध्यम से वर्णन किया है .
वहीँ साथ साथ लेखक ने पुरुष पात्र और संजना के मध्य लिव इन रिलेशन से उपजे अलगाव को भी दृष्टिगोचर किया है जहाँ सम्बन्ध यथार्थ के धरातल पर बहुत खोखले होते हैं फिर उनका शिकार स्त्री हो या पुरुष क्योंकि ज्यादातर लिव इन संबंधों में स्त्रियाँ ही पुरुषों की बेवफाई या दुत्कार की शिकार होती हैं यहाँ पुरुष पात्र को शिकार दर्शाया गया है . वहीँ समुद्र , बारिश , मौसम का साथ साथ चलना मानो कहानी को और मुखर करता है और सच्चाई के करीब जैसे लेखक खुद उस माहौल में एक अरसा रहा हो और फिर एक एक दृश्य को जिवंत कर रहा हो . सम्बन्ध कोई हो आहत दोनों ही होते हैं या कहिये जो ज्यादा संवेदनशील होगा वो ज्यादा आहत होगा फिर वो पुरुष हो या स्त्री या जो ज्यादा जुड़ा होगा . यहाँ पुरुष पात्र की व्यथा को उकेरने में कोई कमी नहीं उसी शिद्दत से उकेरा है जैसे स्त्री पात्र की पीड़ा को .
वहीँ कहानी में वृद्ध पुरुष जो सिंथिया के ससुर हैं जिसने लेखक दरवाज़ा बनवाने जाता है उनकी कहानी भी साथ साथ चलती है . वहां के दृश्यों को , भाषा की अनभिज्ञता होने के बाद भी संवेदनाओं से संवाद कैसे किया जाता है मानो लेखक ने वो बता दिया , दिखा दिया , मानो कहना चाहता हो जब भाषा नहीं थी तब भी तो संवाद होता था तो अब कैसे संभव नहीं . वहीँ उनकी कहानी को भी उनकी मृत्यु पर लाकर अंतिम रूप तो दिया ही साथ ही उनकी मृत्यु होने पर उनके बेटे फिलिप का न आना मानो सिंथिया को अहसास करा गया जो पंछी एक बार उड़ जाते हैं वो डाल पर वापस नहीं लौटते और वो स्वयं के लिए निर्णय ले सकी . वहीँ पिन्टो जो शुरू में लेखक को पसंद नहीं करता , उसकी बीमारी के बाद धीरे धीरे पसंद करने लगता है , सबको साथ लेकर लेखक चलते हैं और हर कहानी को अंतिम रूप देते हैं जो उनके कहाँ का कौशल है जिसमे कहीं कोई विखंडन नहीं , समरसता बराबर बनी रहती है .
अब यदि लेखक के लेखन में प्रयुक्त भाषा बिम्ब और शैली की बात की जाए तो उसके लिए तो शब्द भी थोड़े पड़ जायेंगे. पाठक पल पल चकित होता जाएगा जैसे जैसे कहानी पढता जाएगा एक से बढ़कर एक शब्द संरचना जो हर पेज को नायाब बनाती है जैसे किसी जौहरी ने नगीने जड़े हों और हार की सुन्दरता को द्विगुणित कर दिया हो . कहते हैं निर्मल वर्मा ऐसा लेखन किया करते थे मैंने उनकी सिर्फ एक किताब में कुछ कहानियाँ पढ़ी थीं तो सच पूछा जाए मुझे उनके लेखन से भी आगे का लेखन लगता है गोपाल माथुर जी का लेखन जो अपने साथ पाठक को बहा ले चलता है . यदि उस सुन्दरता का दर्शन करना है तो ये कुछ टुकड़े लगा रही हूँ मगर सम्पूर्ण आनंद लेना है लेखन का तो किताब खुद पढनी पड़ेगी . एक ऐसा लेखन जहाँ पात्र यानि चेतन ही नहीं जड़ भी बोलने लगें अर्थात जड़ से भी संवाद कराने की कला में माहिर हैं लेखक फिर वो समुद्र हो , बारिश , सड़क, बैंच या लैंप ..........सब पात्र हैं कहानी के .
१) वे सावधानी से बैठी हुई थीं, की कहीं असावधानीवश कोई स्पर्श हमारे बीच मेहमान बन कर न चला आये . न तो मैं उन्हें देख सकता था और न ही सुन सकता था सिर्फ महसूस कर सकता था, उनके भार विहीन भार को...एक ऐसा भार, जिसके नीचे दब कर मेरे सारे अनुभव अनुभव हीन होकर रह गए थे .
२)हमारे दोनों और लगे नारियल और कटहल के घने वृक्ष हमें गुजरते हुए देख रहे थे. पता नहीं उन पेड़ों ने क्या सोचा होगा? शायद उन्होंने सोचा हो कि ये दोनों कौन हैं जो इस तरह एक दुसरे से अपरिचित उस पतली सी पगडण्डी पर पाँव रखते हुए चले जा रहे हैं . शायद यह भी सोचा हो कि इन दोनों से तो हम ही अच्छे हैं जो हवा पत्तों डालियों फलों चिड़ियाओं आकाश और तारों से बातें तो करते हैं और एक ये दोनों हैं जो भाषा होते हुए भी चुप हैं .
३)जब कभी हवा चलने लगती तो लगता जैसे कोई परिंदों के बच्चों को लोरी सुना रहा हो
४)न जाने कितना समय निकल गया है शामों के साथ वक्त बिताये..
५)शुरू शुरू में मुझे लगता था कि उपन्यास की सारी स्थितियां मेरी ही तो सृजित की हुई हैं उन्हें मैं कभी भी किसी भी तरह घुमा सकता हूँ पर अहिस्ता अहिस्ता मैंने जाना कि एक सीमा के बाद उपन्यास के पात्र इतना ग्रो कर जाते हैं की लेखक का साथ छोड़ देते हैं और अपनी राह खुद-ब-खुद चलने लगते हैं . एक दिन वे इतने सक्षम हो जाते हैं की लेखक को वह लिखना पड़ता है जो वे चाहते हैं .
५)हम उसी पगडण्डी की और बढ़ गए जो बारिशों में नहा नहा कर बीमार पड़ चुकी थी
६)कई बार जब कोई संदेह अपनी थोड़ी सी झलक दिखाकर छिप जाता है तब हम उस संदेह के इर गिर्द घुमते रहे हैं . संदेह की गांठें सुलझें न सुलझें हम जरूर उलझ जाते हैं .
७)अँधेरे और उजाले से बना एक धुंधलका सा था जिसमे यह अनुमान लगाना कठिन था कि उजाला अँधेरे को खिसका कर वहां आया था या अँधेरा उजाले को
८)किसी की आवाज़ सुनने के लिए किसी रौशनी का मोहताज नहीं होना पड़ता . वह अँधेरा हो या उजाला , अपने लिए कान ढूंढ ही लेती है
९)मुझे लगता था जैसे एक अकेला मैं ही नहीं हूँ जो अपने अतीत के किनारे सर पताका करता हूँ , यह समुद्र भी है ठीक मेरी तरह जो न जाने किस वेदना का मारा सदियों से ठीक मेरी तरह पछाड़ें खा रहा है .
१०)दिन चुपचाप कट रहे थे. घटनाएं अपना घटना भूलकर कैलेंडर की तारीखों के पीछे जा छिपी थीं .
११)मुझे लगा जैसे वह निगाह एक पूरी किताब हो, आद्योपांत पढ़ी हुई , आद्योपांत सुनी हुई, आद्योपांत महसूस की हुई . वह निगाह शब्दों से परे थी, वह रुक गयी थी जैसे कोई शाम हो , जो ठहर गयी थी पेड़ की सबसे ऊंची डालियों पर ... जैसे कोई सदा हो जो सिर्फ मेरे लिए थी, जैसे कोई स्मृति हो जो मेरी अमूल्य धरोहर थी .
१२)अपनेपन की भी एक गंध होती है जिसे सूंघने के लिए नासछिद्रों की आवश्यकता नहीं होती .
१३)हम मुख्य्हाल के बीचों बीच रुके हुए थे जैसे कोई किताब पढ़ते पढ़ते हम बीच में कहीं ठिठक जाते हैं जहाँ पिछले पन्ने हमारा हाथ पकडे रहते हैं और आने वाले पृष्ठ अपरिचित यात्रियों की तरह किसी ट्रेन से उतरने के लिए आतुर नजर आते हैं .......
एक से बढ़कर एक वाक्य संरचना ऐसे ही बनाने से नहीं बनती उसके लिए उन लम्हों को , उन पात्रों को आत्मसात करना पड़ता है तब जाकर अन्दर से वो बाहर आता है जो उन पात्रों का वास्तविक जीवन , सोच , डर , पीड़ा होता है . अब यदि लिखने बैठूँ तो ऐसा लेखन पूरे उपन्यास में है जो साथ साथ चलता है जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं है बल्कि उपन्यास का हिस्सा हैं , वो भी संवाद कर रहे हैं , इस तरह तो पूरा उपन्यास ही लिखना पड़े . लेखक के लेखन कौशल की जितनी तारीफ की जाए कम है .
खुद को बीतते बसंत की पदचापों कह मुझे भेंट किया गया उपन्यास लेकिन मैं कहती हूँ आपके लेखन पर हमेशा बसंत छाया रहे . आने वाले हर बसंत में हमें आपसे आपके लेखन के माध्यम से ऐसी ही कृतियाँ मिलती रहें जो हमारे पाठक मन को संतुष्ट कर सकें और सोचने पर विवश भी साथ ही सीखने को भी मिलता रहे . अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ ........
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-04-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2618 (http://charchamanch.blogspot.com/2017/04/2618.html) में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
अगर ये कहा जाए कि आजकल उपन्यास पढ़ने की आदत कम होती जा रही है तो ठीक ही होगा. वैसे उपन्यासों का अपना अलग ही आनंद होता है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया पोस्ट है.
प्रभावशाली प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई प्रस्तुति पर आपके विचारों का स्वागत।