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गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

वही रजाई वही कम्बल

यहाँ तो वही रजाई वही कम्बल
गरीबी के उलाहने
भ्रष्टाचार के फरेब
जाति धर्म का लोच
वोट का मोच
लुभावने वादों का गुलदस्ता
प्यार मोहब्बत का वही किस्सा
कुछ नहीं बदला
कुछ नहीं बदलना

संवेदना संवेदनहीनता बहनों सी गलबहियाँ डाले कुहुकती
किसी मन में न पीली सरसों खिलती
ऐसे में
किस दौर से गुजरे कोई
जो सोच की आँख पर पर्दा डाल सके

और वो कहते हैं
कुछ नया कहो
क्या तोते हो तुम ?

तो आओ
कुछ अलग कुछ हट के
चलो तीसरी दुनिया की बात करें
कल्पना का सिरहाना बनाएं
ख्वाब के हुक्के को गुडगुडायें
हकीकत से नज़र चुराएं
फरमानों के ज़मीन पर फर्शी सलाम ठोकें
कि
अता हो जाए फ़र्ज़

अपने अपने मुल्क में
नमक का हक़ अदा करने का रिवाज़ मुख्तलिफ हुआ करता है 
 
सच कहने और मुस्कुराहटों के दौर किस देश में जिंदा हैं ... बताना तो ज़रा
बस खानाबदोशी पर जिंदा है रवायतें ...


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