एक विशुद्ध पाठक RN Sharma जी की नज़र से मेरे पहले उपन्यास 'अँधेरे का मध्य बिंदु ' पर प्रतिक्रिया न केवल अभिभूत कर गयी बल्कि सोचने को विवश
शायद जहाँ तक मेरी भी नज़र न गयी हो वहां तक एक पाठक देख लेता है और उसे जी
भी लेता है . शायद इससे बढ़कर और क्या उपलब्धि होगी एक लेखक के लिए जहाँ उसे
ऐसे पाठक मिलें जो न मुझे जानते हों न मेरे लेखन को ..........बस #rashmiravija
के माध्यम से मेरे उपन्यास की समीक्षा पढ़ी हो और पढने को लालायित हो उठे
और मँगवा लिया अमेज़न से फ़ौरन उपन्यास और उतनी ही जल्दी प्रतिक्रिया भी दे
दी .........मैं तो धन्य हो गयी RN Sharmaजी आप जैसा पाठक पाकर smile emoticon smile emoticon
यूँ पुस्तक का लोकार्पण एक महिना पहले १५ जनवरी को हुआ था लेकिन कल का दिन भी मेरे जीवन में ख़ास अहमियत रखता है तो उस नज़र से एक शानदार तोहफा १५ फरवरी की पूर्व संध्या पर इस लिंक पर .....वैसे उन्होंने जो कहा वो भी लगा रही हूँ :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10153424280523424&set=a.10150677555883424.399815.611073423&type=3&theater
RN Sharma with Rashmi Ravija and Vandana Gupta.
"अँधेरे का मध्य बिंदु"
"वंदना गुप्ता ने अपने इस पहले उपन्यास में जिस विषय के इर्द गिर्द कहानी का ताना बाना बुना है वो आज भी हमारे समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता पर वंदना जी को दाद तो देनी ही होगी की उन्होंने न सिर्फ इतने मुश्किल विषय को चुना बल्कि इसे एक अंजाम तक पहुचाया।
यूँ पुस्तक का लोकार्पण एक महिना पहले १५ जनवरी को हुआ था लेकिन कल का दिन भी मेरे जीवन में ख़ास अहमियत रखता है तो उस नज़र से एक शानदार तोहफा १५ फरवरी की पूर्व संध्या पर इस लिंक पर .....वैसे उन्होंने जो कहा वो भी लगा रही हूँ :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10153424280523424&set=a.10150677555883424.399815.611073423&type=3&theater
RN Sharma with Rashmi Ravija and Vandana Gupta.
"अँधेरे का मध्य बिंदु"
"वंदना गुप्ता ने अपने इस पहले उपन्यास में जिस विषय के इर्द गिर्द कहानी का ताना बाना बुना है वो आज भी हमारे समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता पर वंदना जी को दाद तो देनी ही होगी की उन्होंने न सिर्फ इतने मुश्किल विषय को चुना बल्कि इसे एक अंजाम तक पहुचाया।
अब न तो शरत चंद्र के "देवदास" का जमाना है न रविन्द्र नाथ टेगोर के "
नष्ट नीड" का। समय बदल गया है और पिछले दो दशक से तेज़ी से बदल रहा है।
स्त्री पुरुष के संबंधो की नयी परिभाषाएं लिखी जा रहीं है। सम्बन्ध इतने
गूढ़ और उलझे हुऐ हैं की उनको समझना दिन पे दिन मुश्किल होता जा रहा है।
इन स्त्री पुरुष के बदलते हुए संबंधो को और उनके अंतरंग पलों को अनीता देसाई ने अपने नोवेल्स में इतनी गहराई से छुआ है की देखते ही बनता है।
अनीता देसाई की ऐसी रचनाओ को पढ़ने के बाद भी मुझे वन्दना गुप्ता का ये उपन्यास पसंद आया इसे मैं उनकी इस विषय पर अच्छी पकड़ मानता हूँ।
पर फिर भी रवि और शीना जैसी समझदारी कुछ ही लोगों में होगी। अब तो दो दिन में मन भर गया लड़की अपने रास्ते और लड़का अपने घर गया ही चल रहा है। लिव इन रिलेशनशिप्स को निभाना इतना आसान नहीं है पर कुछ अड़चनों के बाबजूद रवि और शीना अंत तक डटे रहे। न सिर्फ डटे रहे बल्कि उन्होंने इतनी शिद्दत से अपने सम्बन्ध निभाए की देखते ही बनता है।
वंदना जी ने रवि और शीना की मुलाक़ात से लेकर अंत तक लगता है उन पलों को पास से देखा है। रियल लोकेशन्स और उनका ज़िक्र रवि और शीना की कहानी को असलियत की हद तक ले जाता है। पढ़ते समय मुझे कई बार ऐसा लगा की मैं बाराखंबा रोड से जनपथ कई बार गुज़रा हूँ और शीना की दुकान मुझे दिखाई दे रही है। इसी तरह वो दोनों ढलती हुई सुरमयी शाम के समय इंडिया गेट के लॉन में बेंच पे बैठे कई बार दिखाई दिए।
बीच बीच में कुछ Distractions हैं जो शायद कहानी को आगे बढातें हो पर मुझे ऐसा नहीं लगा। रवि और शीना का चरित्र चित्रण, उनका साथ बीता समय , आपसी नोक झोंक और अंतरंग पल इतने सुन्दर बन पड़ें है की पाठक का ध्यान वहीँ रहता है।
ऐसी रिलेशनशिप भी निभाई जा सकती है यही इस उपन्यास की खूबी है और इसके लिए वंदना गुप्ता बधाई की हक़दार है।
वंदना जी को बधाई।"
RN sharma
इन स्त्री पुरुष के बदलते हुए संबंधो को और उनके अंतरंग पलों को अनीता देसाई ने अपने नोवेल्स में इतनी गहराई से छुआ है की देखते ही बनता है।
अनीता देसाई की ऐसी रचनाओ को पढ़ने के बाद भी मुझे वन्दना गुप्ता का ये उपन्यास पसंद आया इसे मैं उनकी इस विषय पर अच्छी पकड़ मानता हूँ।
पर फिर भी रवि और शीना जैसी समझदारी कुछ ही लोगों में होगी। अब तो दो दिन में मन भर गया लड़की अपने रास्ते और लड़का अपने घर गया ही चल रहा है। लिव इन रिलेशनशिप्स को निभाना इतना आसान नहीं है पर कुछ अड़चनों के बाबजूद रवि और शीना अंत तक डटे रहे। न सिर्फ डटे रहे बल्कि उन्होंने इतनी शिद्दत से अपने सम्बन्ध निभाए की देखते ही बनता है।
वंदना जी ने रवि और शीना की मुलाक़ात से लेकर अंत तक लगता है उन पलों को पास से देखा है। रियल लोकेशन्स और उनका ज़िक्र रवि और शीना की कहानी को असलियत की हद तक ले जाता है। पढ़ते समय मुझे कई बार ऐसा लगा की मैं बाराखंबा रोड से जनपथ कई बार गुज़रा हूँ और शीना की दुकान मुझे दिखाई दे रही है। इसी तरह वो दोनों ढलती हुई सुरमयी शाम के समय इंडिया गेट के लॉन में बेंच पे बैठे कई बार दिखाई दिए।
बीच बीच में कुछ Distractions हैं जो शायद कहानी को आगे बढातें हो पर मुझे ऐसा नहीं लगा। रवि और शीना का चरित्र चित्रण, उनका साथ बीता समय , आपसी नोक झोंक और अंतरंग पल इतने सुन्दर बन पड़ें है की पाठक का ध्यान वहीँ रहता है।
ऐसी रिलेशनशिप भी निभाई जा सकती है यही इस उपन्यास की खूबी है और इसके लिए वंदना गुप्ता बधाई की हक़दार है।
वंदना जी को बधाई।"
RN sharma
nice posts you have posted in a series in different views of different people.thanks for great thoughts.
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