अब मुकेश दूबे जी की नज़र से देखिये और पढ़िए उपन्यास 'अँधेरे का मध्य बिंदु ' की समीक्षा :
एक तो कल हमारी मैरिज एनिवर्सरी और उस पर एक मित्र द्वारा इतना खूबसूरत तोहफा ..........मेरे पास तो शब्द ही नहीं बचे कि कुछ कह सकूँ
जब वन्दना जी ने अपनी पुस्तक का शीर्षक बतलाया था, मैं सोच रहा था कि आखिर क्या आशय है इस अँधेरे की नाप तौल और माप का ? हर वो जगह जहाँ प्रकाश नहीं तो अँधेरा होगा फिर क्या फर्क पड़ता है कि ये कितनी दूर है... लेकिन जब इस किताब को पढ़ा तब समझ सका कि सोच भी तो एक प्रकाशपुञ्ज ही है। जो समझ के परे है वो अन्धकार ही है। जब किसी अबूझ पहेली की गिरफ्त में मन छटपटाता है तो दूरी की नापी जा सकने वाली हर माप महत्वपूर्ण लगने लगती है। विशाल पर्वत की तलहटी से शिखर बहुत दूर प्रतीत होता है। चढ़ना शुरू कर दो तो आधी दूरी पर पहुँचने पर भी अपार हर्ष की अनुभूति होती है। क्योंकि वो धरती से शिखर की दूरी का मध्य बिंदु है। शुरू से अंत तक अनेकों बार मन घुप्प अँधेरों में भटकता है। हर बार हौसले की रश्मियों के साथ पथिक शनै:शनै:आगे बढ़ता है और जैसे ही मध्य बिंदु आता है उत्साह उस शेष आधे भाग पर विजय प्राप्त कर लेता है। शीर्षक जितना उलझनों से भरा हुआ है, कथानक तो उससे भी कई गुना ज्यादा चौंकाने वाला... शुद्ध कर्मकांडी सतनामी साधु से पूछना कि भोजन में आप मांसाहार लेते हैं क्या फिर भी कम दुष्कर है, किन्तु सीधे परोस देना... परिणाम गंभीर भी हो सकता है।
लेकिन जो दिया जलाने का हुनर जानते हैं वो हवाओं की परवाह कब करते हैं। वैसे भी मानव स्वभाव में बचपन से ही निषेध को करने की प्रवृत्ति होती है। जिसको करने के लिए मना किया जाता है उसे ही करने की उत्कंठा बलवती रहती है। शायद यही वजह है कि वन्दना जी ने स्वयं व समाज की सोच से असहमत विषय चुना। और सिर्फ चुना ही नहीं बल्कि बुना। वो भी सिद्धहस्त जुलाहे की चादर से भी महीन, कोमल व उससे भी चटक रंगो वाला। कहीं कोई रेशा उलझा नहीं, कोई सूत में गाँठ नहीं, शल नहीं बस एक समान बुनाई जिसे बार बार हाथ से छूने का मन करता है।
लिव-इन रिलेशनशिप पर बुना गया तानाबाना सिर्फ समस्या नहीं उठा रहा ! किसी एक पक्ष की पैरवी भी नहीं करता नज़र आता। हर पहलू पर शंका से समाधान तक बराबर नज़र रखी है वन्दना जी ने। जब कहीं ऐसा भान हुआ कि बात ऐन उस जगह तक न पहुँच सके जहाँ पहुँचनी थी तो बड़े प्यार से उसे और मुखरित कर समझाया जैसे परिपक्व गुरु शिष्य की दुविधा समझ किसी और भांति बात का संप्रेषण कर देता है।
हम जिस समाज में जन्म ले, पले बढ़े और जिसकी नियत लकीरों का उल्लंघन करना तो दूर, सोचना भी अपराध की श्रेणी में आता है, वहाँ शादी जैसी संस्था के विरुद्ध जाकर दो विदर्मियों का एक ही घर में रहकर पति-पत्नी सा आचरण !! नारायण ! नारायण....
लेकिन रवि और शीना तो उसके भी आगे गये। न सिर्फ अविवाहित रहकर साथ रहे बल्कि विवाहितों की भांति उनकी संतान भी हुई। जबकि दोनों की पृष्ठभूमि उनके अंतर्जातीय विवाह के अनुकूल थी। सिर्फ इसलिए कि एक दूसरे पर एक दूसरे का अतिक्रमण स्वीकार्य नहीं है एक मात्र वजह मानें तो एक मोड़ ऐसा भी आया जब दोनों को अपने ऊपर नियंत्रण रखना पड़ा क्योंकि वो दैहिक जरूरतों से ज्यादा जरूरी था। कोई फेरे, कोई मंत्र, कोई साक्षी और दबाव नहीं उस परिस्थिति में भी साथ रहने का लेकिन अलग नहीं हो सके या यह कहना ज्यादा उचित है कि अलग होना ही नहीं चाहा। किसी प्रेमकथा में भी इतनी गहराई बिरले ही मिलेगी।
मुख्य विषय के साथ लेखिका और भी समतुल्य सरोकारों को सहेज कर चली हैं। समाज की प्रतिक्रिया व दृष्टिकोण, बहिष्कार व सभ्य समाज में व्याप्त कमियाँ भी हैं और पूरी शिद्दत से अपनी बात को कहा गया है। आदिवासी अंचल की परम्परा व प्रथा को ऐसे जोड़ा है जैसे शोध प्रबंध के डिस्कशन में रिजल्ट को सपोर्ट के लिए रेफरेंस से साध दिया जाता है। एड्स जैसे विषय को कथानक में टांकने की विधि तो डिजाइनर द्वारा कफ कॉलर या गले में खूबसूरती के लिए उपयोग किये दूसरे कपड़े को खपाने से भी प्रभावी लगी।
भावनाओं, आवेग, संवेदना, दुख, भय, रूमानियत और रोमांस बिल्कुल किसी सुस्वादु व्यंजन की रेसिपी की तरह नपे तुले। अपने पहले ही प्रयास में वन्दना जी ने अपनी पहचान कुशल उपन्यासकार के रूप में करा दी है। पुस्तक का टंकण व मुद्रण, गुणवत्ता युक्त सामग्री व मनभावन आवरण के लिए APN प्रकाशन भी बधाई के हकदार हैं।
वन्दना जी को इस अद्भुत पुस्तक हेतु हृदयतल से बधाइयाँ व अनन्त शुभकामनाएँ।
ये ऊपर लिखी समीक्षा इस लिंक पर उपलब्ध है :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1743758729193049&set=a.1379869332248659.1073741828.100006768150236&type=3
जो पाठक ये उपन्यास पढना चाहते हैं वो अमेज़न से इस लिंक पर जाकर प्राप्त कर सकते हैं :
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एक तो कल हमारी मैरिज एनिवर्सरी और उस पर एक मित्र द्वारा इतना खूबसूरत तोहफा ..........मेरे पास तो शब्द ही नहीं बचे कि कुछ कह सकूँ
जब वन्दना जी ने अपनी पुस्तक का शीर्षक बतलाया था, मैं सोच रहा था कि आखिर क्या आशय है इस अँधेरे की नाप तौल और माप का ? हर वो जगह जहाँ प्रकाश नहीं तो अँधेरा होगा फिर क्या फर्क पड़ता है कि ये कितनी दूर है... लेकिन जब इस किताब को पढ़ा तब समझ सका कि सोच भी तो एक प्रकाशपुञ्ज ही है। जो समझ के परे है वो अन्धकार ही है। जब किसी अबूझ पहेली की गिरफ्त में मन छटपटाता है तो दूरी की नापी जा सकने वाली हर माप महत्वपूर्ण लगने लगती है। विशाल पर्वत की तलहटी से शिखर बहुत दूर प्रतीत होता है। चढ़ना शुरू कर दो तो आधी दूरी पर पहुँचने पर भी अपार हर्ष की अनुभूति होती है। क्योंकि वो धरती से शिखर की दूरी का मध्य बिंदु है। शुरू से अंत तक अनेकों बार मन घुप्प अँधेरों में भटकता है। हर बार हौसले की रश्मियों के साथ पथिक शनै:शनै:आगे बढ़ता है और जैसे ही मध्य बिंदु आता है उत्साह उस शेष आधे भाग पर विजय प्राप्त कर लेता है। शीर्षक जितना उलझनों से भरा हुआ है, कथानक तो उससे भी कई गुना ज्यादा चौंकाने वाला... शुद्ध कर्मकांडी सतनामी साधु से पूछना कि भोजन में आप मांसाहार लेते हैं क्या फिर भी कम दुष्कर है, किन्तु सीधे परोस देना... परिणाम गंभीर भी हो सकता है।
लेकिन जो दिया जलाने का हुनर जानते हैं वो हवाओं की परवाह कब करते हैं। वैसे भी मानव स्वभाव में बचपन से ही निषेध को करने की प्रवृत्ति होती है। जिसको करने के लिए मना किया जाता है उसे ही करने की उत्कंठा बलवती रहती है। शायद यही वजह है कि वन्दना जी ने स्वयं व समाज की सोच से असहमत विषय चुना। और सिर्फ चुना ही नहीं बल्कि बुना। वो भी सिद्धहस्त जुलाहे की चादर से भी महीन, कोमल व उससे भी चटक रंगो वाला। कहीं कोई रेशा उलझा नहीं, कोई सूत में गाँठ नहीं, शल नहीं बस एक समान बुनाई जिसे बार बार हाथ से छूने का मन करता है।
लिव-इन रिलेशनशिप पर बुना गया तानाबाना सिर्फ समस्या नहीं उठा रहा ! किसी एक पक्ष की पैरवी भी नहीं करता नज़र आता। हर पहलू पर शंका से समाधान तक बराबर नज़र रखी है वन्दना जी ने। जब कहीं ऐसा भान हुआ कि बात ऐन उस जगह तक न पहुँच सके जहाँ पहुँचनी थी तो बड़े प्यार से उसे और मुखरित कर समझाया जैसे परिपक्व गुरु शिष्य की दुविधा समझ किसी और भांति बात का संप्रेषण कर देता है।
हम जिस समाज में जन्म ले, पले बढ़े और जिसकी नियत लकीरों का उल्लंघन करना तो दूर, सोचना भी अपराध की श्रेणी में आता है, वहाँ शादी जैसी संस्था के विरुद्ध जाकर दो विदर्मियों का एक ही घर में रहकर पति-पत्नी सा आचरण !! नारायण ! नारायण....
लेकिन रवि और शीना तो उसके भी आगे गये। न सिर्फ अविवाहित रहकर साथ रहे बल्कि विवाहितों की भांति उनकी संतान भी हुई। जबकि दोनों की पृष्ठभूमि उनके अंतर्जातीय विवाह के अनुकूल थी। सिर्फ इसलिए कि एक दूसरे पर एक दूसरे का अतिक्रमण स्वीकार्य नहीं है एक मात्र वजह मानें तो एक मोड़ ऐसा भी आया जब दोनों को अपने ऊपर नियंत्रण रखना पड़ा क्योंकि वो दैहिक जरूरतों से ज्यादा जरूरी था। कोई फेरे, कोई मंत्र, कोई साक्षी और दबाव नहीं उस परिस्थिति में भी साथ रहने का लेकिन अलग नहीं हो सके या यह कहना ज्यादा उचित है कि अलग होना ही नहीं चाहा। किसी प्रेमकथा में भी इतनी गहराई बिरले ही मिलेगी।
मुख्य विषय के साथ लेखिका और भी समतुल्य सरोकारों को सहेज कर चली हैं। समाज की प्रतिक्रिया व दृष्टिकोण, बहिष्कार व सभ्य समाज में व्याप्त कमियाँ भी हैं और पूरी शिद्दत से अपनी बात को कहा गया है। आदिवासी अंचल की परम्परा व प्रथा को ऐसे जोड़ा है जैसे शोध प्रबंध के डिस्कशन में रिजल्ट को सपोर्ट के लिए रेफरेंस से साध दिया जाता है। एड्स जैसे विषय को कथानक में टांकने की विधि तो डिजाइनर द्वारा कफ कॉलर या गले में खूबसूरती के लिए उपयोग किये दूसरे कपड़े को खपाने से भी प्रभावी लगी।
भावनाओं, आवेग, संवेदना, दुख, भय, रूमानियत और रोमांस बिल्कुल किसी सुस्वादु व्यंजन की रेसिपी की तरह नपे तुले। अपने पहले ही प्रयास में वन्दना जी ने अपनी पहचान कुशल उपन्यासकार के रूप में करा दी है। पुस्तक का टंकण व मुद्रण, गुणवत्ता युक्त सामग्री व मनभावन आवरण के लिए APN प्रकाशन भी बधाई के हकदार हैं।
वन्दना जी को इस अद्भुत पुस्तक हेतु हृदयतल से बधाइयाँ व अनन्त शुभकामनाएँ।
ये ऊपर लिखी समीक्षा इस लिंक पर उपलब्ध है :
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