शून्य पर खड़ा होता है जब एक कवि
आउट होने के डर से परे
खींचने लगता है एक हाशिया
उस तरफ की जमात के लिए
यूँ बेसबब नहीं है शून्य भी
जानता है वो शून्य का महत्त्व
बस तमाम वर्जनाओं से अवगुंठित हो
बनाने लगता है एक गुंथी हुई माला
ताकि सनद रहे
इस तरफ और उस तरफ के मध्य
खिंची खाइयों में भी
बचे होते हैं कविता के अवशेष
और अमर होने के लिए काफी है अवशेषों का होना ही
क्योंकि
शून्य निरर्थक नहीं .......
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-11-2015) को "पञ्च दिवसीय पर्व समूह दीपावली व उसका महत्त्व" (चर्चा अंक-2160) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बाल दिवस, आतंकी हमला और ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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