पृष्ठ

सोमवार, 2 नवंबर 2015

जब तक सत्ता निरंकुश है .......

आश्वस्त हूँ
अपने मानवाधिकार से
और मुझसे परे भी
क्या जरूरत होती है
किसी को किसी और अधिकार की .......जरा सोचिये !!!

मानवाधिकार
मेरा कवच
मेरी सुरक्षा का बीजमंत्र
तो क्या हुआ
कल कर दूं मैं तुम्हारे ही अधिकारों का हनन
ये है मेरा विकल्प .......

मानवाधिकार
एक शब्द भर
और शब्दों का अक्सर हो ही जाता है बलात्कार
तो क्या हुआ
जो इसकी आड़ में
हो जाए सम्पूर्ण सभ्यता बलात्कृत
ये है आज का सच

तब से सोच में हूँ
मानवाधिकार
ओढ़ा हुआ शब्द है
या बिछाया हुआ बिछौना
जो
बच्चे के गीले करने भर से हो जाता है निष्कासित
या फिर
किसी कुँवारी लड़की के सिर से
चुनरी ढलकने भर से
हो जाता है अपमानित
या फिर मैं हूँ
अपने ही हाथों अपना खून बेचता दलाल

न न , आम आदमी हूँ मैं
जिसके कोई नहीं होते मानवाधिकार
कम से कम तब तक
जब तक सत्ता निरंकुश है .......

5 टिप्‍पणियां:

  1. सत्ता हमेशा से निरंकुशता के आवरण में ही लिपटी रहती है ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सत्ता हमेशा से निरंकुशता के आवरण में ही लिपटी रहती है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. मंथन देती अभिव्यक्ति ।सामयिक सत्य शब्दों का स्वयं हित व सता का यथार्थ चरित्र प्रकट करती रचना ।बधाई ।

    जवाब देंहटाएं

आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं …………………अपने विचारों से हमें अवगत कराएं ………शुक्रिया