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बुधवार, 15 जुलाई 2015

किसी भी प्रकाशन , प्रकाशक के लिए क्या जरूरी है ?

रश्मि प्रभा दी द्वारा आयोजित परिचर्चा " #किसी _भी_प्रकाशन_प्रकाशक_के_लिए_क्या-जरूरी_है ?" में मेरे विचार इस आलेख में पढ़ सकते हैं :


आज के दौर में जब चारों तरफ लेखकों और प्रकाशनों की बाढ़ सी आ रही हो उसमे ये प्रश्न उठाना भी लाजिमी है कि किसी भी प्रकाशन और प्रकाशक के लिए क्या जरूरी है अर्थात कौन सा पहलू ऐसा है जो सबसे जरूरी है तो इस सन्दर्भ में केवल एक मोड़ पर रुके रहना संभव ही नहीं है . आज गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में सबसे पहले तो अपनी एक पहचान बनाना जरूरी है और पहचान बनाने के लिए कुछ नियम कायदे बनाने जरूरी हैं जिनका सख्ती से पालन किया जाए .

एक प्रकाशक के लिए जरूरी है सबसे पहले वो उस लेखक को ढूंढें या उस लेखन को पकडे जिसमे उसे लगे हाँ , इसमें है समाज को बदलने की कूवत और साथ ही बन सकेगा हर आँख का तारा अर्थात जो सहज संप्रेषणीय होने के साथ सर्वग्राह्य हो न कि चलता नाम देखकर उसे ही छापे जाए बल्कि थोडा जोखिम उठाने की भी हिम्मत रख सके . आज बड़े बड़े प्रकाशन ऐसे ही बड़े नहीं बने उन्होंने भी अपने वक्त पर जोखिम उठाये नयों में से ऐसे मोती ढूंढें जो साहित्य का आकाश पर अपना परचम लहरा सकें और वो उसमे सफल भी हुए तो क्यों नहीं आज का प्रकाशक ये जोखिम उठाये और अपनी राह खुद बुने .

दूसरी जरूरी बात है सिर्फ पैसे के पीछे न भागे जैसा कि आजकल हो रहा है पैसे लो और जिस किसी को भी छाप दो फिर चाहे लेखक कहीं न पहुँच अपनी जेब तो गरम हो ही गयी न तो उससे प्रकाशक की साख पर ही बट्टा लगेगा तो जरूरी है पहले पाण्डुलिपि मंगवाई जाए , कुछ सिद्धहस्तों से पढवाई जाए और फिर लगे ये छापने योग्य है तो जरूर छापी जाए और लेखक से कीमत न लेकर उसके लेखन का प्रचार और प्रसार प्रकाशक करे ताकि वो जन जन तक पहुँच सके . आज तो वैसे भी इन्टरनेट के माध्यम से कहीं भी किताब पहुंचाई जा सकती है तो जरूरत है तो सिर्फ प्रचार और प्रसार की फिर तो पाठक खुद ही मंगवाने का जुगाड़ कर लेगा मगर उसे पता तो चले कि आखिर उस किताब को वो क्यों पढ़े ? प्रचार प्रसार ऐसा हो जो पाठक के मन को झकझोरे और वो उसे पढने को लालायित हो उठे तो प्रकाशन को स्वयमेव फायदा होगा . जितनी प्रतियाँ बिकेंगी प्रकाशक को ही मुनाफा होगा .

एक जरूरी चीज और है लेखक और प्रकाशक में आईने की तरफ साफ़ रिश्ता हो जो कि आज कहीं नहीं दिखता बल्कि लेखक प्रकाशक पर और प्रकाशक लेखक पर दोषारोपण करते रहते हैं जो रिश्ते को कटु बनाते हैं क्योंकि पारदर्शिता नहीं होती तो लेखक को पता नहीं चलता कितनी प्रतियाँ बिक गयी हैं और उस हिसाब से कितनी रॉयल्टी बनी . रॉयल्टी मिलना तो आज दूर की ही बात हो चुकी है बल्कि प्रकाशक यही रोते हैं कि बिकी ही नहीं तो आखिर कहाँ गयीं ? जबकि सरकारी खजाने में भी किताबें पहुंचाई जाति हैं जो लेखक भी जानता है मगर उसके पास कोई सबूत नहीं होता तो कुछ साबित नहीं कर सकता ऐसे में दोनों के बीच गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं जिनका सुखद भविष्य नहीं होता बल्कि जरूरी है एक ऐसा अग्रीमेंट जिसके तहत दोनों बंधे हों .

एक सच ये भी है कि कोई भी प्रकाशन बिना पैसों और धर्म हेतु नहीं चलाया जाता बल्कि प्रकाशक तभी काम करना चाहेगा जब उससे उसे कुछ लाभ हो तो इसके लिए जरूरी है आज के वक्त में तकनीक का सहारा लेना और उसके माध्यम से लेखकों और पाठकों से जुड़ना . पाठकों की समय समय पर राय लेना आखिर वो पढना क्या चाहते हैं अर्थात किस तरह का लेखन पाठक की पहली पसंद है ऐसी रायशुमारी समय समय पर की जाती रहे तो कोई ताकत नहीं जो प्रकाशक कभी घाटा उठाये बल्कि जब पाठक को उसके मतलब की सामग्री मिलेगी तो वो और कहीं नहीं भागेगा और लेखक भी ऐसे ही प्रकाशक की ओर आकर्षित होगा जो उसे पहचान दिलाये न कि उसका शोषण करे . इस तरह के प्रयोगों से दीर्घकाल में प्रकाशन को लाभ ही लाभ होगा मगर उसके लिए जरूरी है समझौता न करके सच्चाई और ईमानदारी से अपने प्रकाशन को आगे बढाए और अपनी एक मुकम्मल पहचान बनाए .

एक आखिरी बात और प्रकाशक को चाहिए प्रचार प्रसार के अलावा बड़े बड़े आलोचकों तक किताब पहुंचाए , उनकी समीक्षाएं करवाए फिर वो अच्छी हों या बुरी उससे प्रकाशक का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए क्योंकि यही सही और मुकम्मल तस्वीर होगी आंकने की ताकि उसी हिसाब से आगे निर्णय वो ले सके . केवल साहित्यकारों की निगाह में स्थान पाने के लिए जो लेखन किया जाता है वो आम पाठक की समझ से परे होता है इसलिए जरूरी है आम पाठक की सोच को आधार बनाकर लेखक और उसके लेखन को तवज्जो दी जाए और सही व् उचित मूल्यांकन करवाया जाए तो निसंदेह लेखक के साथ प्रकाशक और प्रकाशन दोनों अपना मुकाम पा लेंगे क्योंकि वहां मूल्यों से समझौता नहीं होगा और जब ये बात बाज़ार में होगी तो हर लेखक जुड़ने में गौरव महसूस करेगा साथ ही चाहेगा कि वो ऐसा लिखे तो उसी प्रकाशन से छपे .

लेखक और प्रकाशक का मजबूत रिश्ता किसी भी प्रकाशन की सफलता का एक आधार स्तम्भ होता है जिसे हर प्रकाशक के लिए समझना जरूरी है .

http://parikalpnaa.blogspot.in/2015/07/blog-post_15.html

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