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रविवार, 12 जुलाई 2015

इस प्यार को अब क्या नाम दूँ

कभी कभी खुद को चाह लेना बुरी बात नहीं होती
 .... आज खुद से इश्क करने को जी चाहता है .....
मगर करूँ या नहीं .......उहापोह में हूँ
इश्क लफ्ज़ से ही जहाँ खिंच जाती हों म्यान से तलवारें
वहाँ खुद को किस जमीन किस आसमां का सितारा बनाऊँ
जो खुद से इश्क भी करूँ और जिंदा भी रहूँ ........

कहीं ये
फकत मौसम की दिल्लगी भर तो नहीं
जो इश्क के घोड़े पर सवार हो निकला हो महज फाकापरस्ती को .........

( गुम है किसी के प्यार में दिल सुबह शाम ..... इस प्यार को अब क्या नाम दूँ )

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