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सोमवार, 19 मई 2014

जो हो इक रिश्ता ख्वाब सा


लिखती हूँ कलम से
दिल की किताब पर
एक नाम अनाम सा
शायद कहीं वो मिल जाये
जो हो इक रिश्ता ख्वाब सा
हाथो की चूडियों सा खनकता
पैरों की पैंजनिया सा छनकता
दुल्हन के जोडे मे सिमटा
इक हया की ओट मे दुबका
वो कल्पना की आब सा
शायद कहीं वो मिल जाये
इक रिश्ता गुलाब सा
अनाम मोहब्बत का पैगाम
अनाम मोहब्बत के नाम सा
शायद कहीं वो मिल जाये
जो हो इक रिश्ता ख्वाब सा

चलो जी लें इक ख्वाब को हकीकत सा शायद यूँ भी बन्दगी हो जाए ………

6 टिप्‍पणियां:

  1. इक रिश्ता गुलाब सा
    अनाम मोहब्बत का पैगाम
    अनाम मोहब्बत के नाम सा
    शायद कहीं वो मिल जाये
    जो हो इक रिश्ता ख्वाब सा
    ....हमेशा की तरह लाजवाब

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  2. रिश्ता एक ख्वाब सा.............
    बहुत सुन्दर कविता !!

    सस्नेह
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (20-05-2014) को "जिम्मेदारी निभाना होगा" (चर्चा मंच-1618) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    जवाब देंहटाएं
  4. चलो जी लें इक ख्वाब को हकीकत सा शायद यूँ भी बन्दगी हो जाए ………
    बहुत ही प्यारी कविता।

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