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शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

" दिन अपने लिए " .......एक नज़र



 हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित शोभा रस्तोगी का प्रथम लघुकथा संकलन " दिन अपने लिए " अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है।  लघुकथा का कलेवर गागर में सागर भरने वाला होता है।  थोड़े शब्दों में मारक बात कहना ही लेखक के कहन और उसकी दूरदृष्टि को गोचर करता है और इस कार्य में शोभा रस्तोगी सिद्धहस्त हैं।  ज़िन्दगी की आपाधापी में से आस पास घटित घटनाएं यूँ तो सभी को व्यथित करती रहती हैं मगर सब उन्हें शब्दों में इस तरह से नहीं बुन पाते कि उन्हें एक आकार मिल सके और जब लेखिका कहीं भी जीवन की किसी भी त्रासदी से अवगत हुयी तो उनकी लेखनी रुकी नहीं।  सूक्ष्मता से अवलोकन कराती लेखनी अपनी राह बनाती गयी और एक इतिहास रचती गयी।  

समकालीनों में यदि देखा जाए तो आज लघुकथा लिखने में कुछ गिने चुने नाम ही सामने आयेंगे और उन सबमे भी एक स्त्री का इस क्षेत्र में दखल बेहद सराहनीय और गर्व करने योग्य प्रयास है यूँ ही नहीं अकादमियाँ सहयोग किया करती हैं।  ये तभी सम्भव है जब आपमें प्रतिभा हो और शोभा रस्तोगी इस कसौटी पर खरी उतरती हैं जब आप उनकी लेखनी से परिचित होते हैं तो नतमस्तक होते जाते हैं।  

जैसे- जैसे पाठक लेखिका की लेखनी से गुजरता है वैसे -वैसे अभिभूत होता जाता है।  कहीं मन के कोने से ये आवाज़ आती है अरे ये सब तो मैं भी देखता हूँ , सुनता हूँ , जानता हूँ मगर कह नहीं पाता और जब इस रूप में देखता है तो खुद को गौरान्वित महसूस करता है कि इतना उत्तम संग्रह उसके हाथ में आया।  पहली लघुकथा से लेकर आखिरी लघुकथा तक सभी समाज , व्यवस्था , आस- पास घटित घटनाओं से लबरेज है और पढ़ते ही दाद देने को मन करता है , शायद यही एक लेखक के लेखन का परिचय होता है कि पहले पेज से आखिरी पेज तक पाठक को बाँधे रखे।  

कौन सा ऐसा विषय है जिस पर लेखिका की कलम नहीं चली या कोई विषय छूटा हो ऐसा भी नहीं हुआ।  अपने जीवन के संघर्ष और निष्कर्ष जैसे लेखिका ने एक माला में पिरो दिए और देवता को अर्पित कर दिए हों।  

"माता का जागरण " पहली ही लघुकथा मनुष्य की सोच पर प्रहार करती है कि एक तरफ वो देवी बना पूजते हैं तो दूसरी तरफ उसी से मुख मोड़ते हैं तो "ब्रह्मभोज" सामाजिक व्यवस्था और संवेदनहीन होते रिश्तों का सजीव चित्रण है। वहीँ "मन्नत" भगवान से बड़ा इंसान और इंसानियत है के भाव को बड़ी खूबी से दर्शाती है साथ ही मुख पर एक मुस्कान बिखेर जाती है काश सब ऐसा ही सोच पाते तो आज अमीरी गरीबी की खाई कब की मिट गयी होती।  तो दूसरी तरफ "उजाला" के माध्यम से एक सन्देश दे रही हैं कि अब वक्त आ गया है हम अपनी सोच बदलें और बेटियों का भी बेटे सा स्वागत करें जिसे कुआँ पूजन से जोड़ एक नया अर्थ दिया है।  "खातिर" लघुकथा फिर एक बार रिश्तों की अवहेलना और मानव मन की संवेदनहीनता के नकाबों को खोलती सोचने पर विवश कर रही है।  वहीँ "नवरात्रे" इंसान के दोहरे चत्रित्र पर गहरा कटाक्ष है।  "क़त्ल किसका" राजनीति की रोटियाँ सेंकने वालों और उससे त्रस्त इंसान और इंसानियत का आकलन है वहीँ "पवित्रीकरण" फिर धर्म और जाति के झूठे फेरों में फंसे मानव के दोगले चरित्रों पर से  नकाब हटाती  है।  वहीँ "असलियत " भ्रष्टाचार से ग्रस्त व्यवस्था के काले चेहरे को उजागर करती है कि चाहे कितना जोर लगा लो भ्रष्टाचारी सुधरते नहीं जब तक कि सख्त कानून न बनें और उन पर अमल न हो वहाँ कार्य उनकी मर्ज़ी से ही होता है।  वहीँ "भलमनसाहत" दिल में एक कचोट उत्पन्न करती है कि कैसा हो गया है आज का इंसान यदि किसी का कोई भला भी करना चाहे तो खुद ही दोषारोपण का शिकार हो जाता है , भलमनसाहत का तो जैसे ज़माना ही ख़त्म हो चुका है।  वहीँ करप्ट सिस्टम के कारण होते गुनाह पर प्रहार करती लघुकथा "डोनेशन मनी" सोचने को विवश करती है कि आखिर कब तक सिर्फ दिखावे के कारण हम गलत राह पकड़ते रहेंगे।  "बाल  मजदूरी "फिर प्रहार करती है दोगली सोच और आचरण पर।  वहीँ "ऊपरी हवा" अन्धविश्वास पर प्रहार करती लघुकथा मन को छू जाती है।  "पत्नी मैनेजमेंट" तो जैसे मानवता की सारी हदों को पार करते चरित्र का चित्रण है सिर्फ अपने फायदे के लिए कैसे पत्नी का उपयोग किया गया और उसे इल्म भी नहीं हुआ।  "पराया दर्द" अन्धविश्वास से मुक्ति की ओर एक संकेत है वहीँ "चक्रव्यूह" जातिवाद के दंश की पीड़ा को उकेरती है।  "आदमी"  लघुकथा आदमियत पर गहरा कटाक्ष करती सोचने को विवश करती है कि आज आदमी किस हद तक पहुँच गया है कि शायद कहीं भी उसे सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता।  "बोये पेड़ बबूल के" आज के बच्चों और माता पिता के रिश्तों का एक ऐसा खाका है जो कहीं न कहीं आज की जीवन शैली की ही देन है जिसके लिए कहीं न कहीं खुद जिम्मेदार हैं। "उत्तरित प्रश्न" धर्म और अन्धविश्वास के साथ सत्य की आँख से पर्दा हटाती वो सच्चाई है जिसे धर्म की आड़ में भुनाया जाता है मगर हम देखकर भी अनदेखा किये जाते हैं।  वहीँ "साम्प्रदायिकता" वो चेहरा प्रस्तुत करती है जो वास्तव में सच है मगर जिसे हमेशा नफरत और दहशत के काँटों तले दबा दिया जाता है जिसके वास्तविक चेहरे को सामने आने ही नहीं दिया जाता वर्ना कुछ राजनीतिज्ञों की राजनीती की रोटियां शायद सिकें ही नहीं।  "बौना रिश्ता" मानवता के उज्जवल पक्ष का चित्रण करती है वहीँ "पाहन पूजा" धर्मान्धों पर करारा प्रहार है , "मधुशाला " एक बार फिर धर्म और राजनीति दोनों के चेहरों को बेनकाब करती लघुकथाएं हैं।  "कुत्ता जात" आदमी और पशु के अंतर को दर्शाती मारक लघुकथा है वहीँ "दाल" महंगाई के कारण होती दुर्दशा पर प्रहार है तो दूसरी तरफ "एकलव्य" अहसानफरामोशी की मिसाल।  भूख क्या न करवाये क्या न खिलवाये को दर्शाती "जर्म" लघुकथा मानो एक आईना बन खड़ी  हो जाती है।  "जांच नहीं" स्त्री की जागरूकता की और पहला कदम है वहीँ "पापा की बेटी" भी सोच के बदलाव को दर्शाती आदर्श लघुकथा है।  "डंक वाली मधुमक्खी" बलात्कार , असुरक्षा के कारण उत्पन्न भय के साम्राज्य का सजीव चित्रण है जो सोचने को विवश करता है कि कैसे समाज में रह रहे हैं हम , कैसा वक्त आ गया है कि सिर्फ डर का साया ही हर वक्त हावी रहता है।  "जात सुगंध की " एक बार फिर धर्म से परे सोचने को विवश करती है। "खतावार" ऐतिहासिक चरित्रों पर तो प्रहार करती ही है साथ ही सोचने को विवश कि आखिर कब तक हम लकीर के फ़क़ीर बने उन व्यवस्थाओं को ढोये  जायेंगे जिन्होंने समाज को सही राह नहीं दिखायी और आज जमाना बदलाव का है तो उसके लिए नयी पीढ़ी को ही कदम उठाना होगा। वहीँ "कैंडल मार्च" फिर इंसानियत के नैतिक पतन को दर्शाती मानसिकता की द्योतक है।  "नॉट फॉर सेल " इंसानियत , गरीबी के मुँह पर धब्बा है के भाव को उजागर करती है।  वहीँ "सौतेली" सोच के बदलाव की तरफ एक कदम है।  "बेटा  बेटी" एक बार फिर दोनों के फर्क को तो दर्शाती है साथ में एक स्वस्थ सन्देश भी देती है कि जितने उपदेश बेटी के लिए हैं उतने ही बेटे के लिए भी हों तो हर लड़की सुरक्षित हो।  ईमानदारी का सन्देश देती "साँस बाकी है ", वहीँ "मृगतृष्णा" विवाहेतर सम्बन्धों के बीहड़ों को खोलती साथ ही गलती का अहसास कराती एक सशक्त लघुकथा है। 
अंत में संग्रह की शीर्षक लघुकथा "दिन अपने लिए" एक स्त्री के जीवन और खुशियों के बीच का एक स्वाभाविक चित्रण है जो मन को छू जाता है। 

प्रगति , कीलें , पंख , विडियो , सर्कार , उद्धार , रिश्ता ,कदम आदि जाने कितनी लघुकथाएं हैं जो मानवीय सरोकारों से जुडी होने के कारण पाठक का ध्यान आकर्षित करती हैं और साथ ही सोचने को विवश शायद यही किसी भी लेखन की सार्थकता है कि पाठक को अपने सम्मोहन में इस तरह जकड़े कि बाद में भी पाठक आसानी से उससे बाहर  न निकल सके और इस कार्य में लेखिका पूरी तरह से सक्षम रही है।मानव मन की कमजोरियों को पकडने और उन पर प्रहार करने में लेखनी सक्षम है तभी अन्याय , शोषण , राजनीति, अमानवीयता, स्त्री विमर्श , भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता , असमानता इत्यादि सभी विषयों का समावेश हो सका और ये सब कोई एक दिन या कुछ दिन की बात नहीं बल्कि लेखिका का वर्षों का अनुभव यहाँ बोला है जिसे उसने बहुत संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ सहेजा है ।   सौ लघुकथाओं से लबरेज ये संग्रह मन के तारों को झकझोरने के लिए काफी है।  एक बार पढ़ने बैठो तो हटने का दिल न करे ऐसी बांधने की क्षमता लेखिका के लेखन में है।  संग्रह पढ़ने के बाद पाठक खुद महसूस करेगा कि आज कुछ सार्थक पढ़ा जो पाठक और लेखक के बीच एक अच्छा रिश्ता बनाएगा ऐसी मुझे उम्मीद है।  संग्रह पाठक को कहीं भी निराश नहीं करता।  लेखिका का लेखन इसी तरह आगे बढ़ता रहे और वो प्रगति के नए मुकाम तय करती रहे , लेखिका के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए आज्ञा लेती हूँ। 

अयन प्रकाशन से संपर्क कर ये संग्रह मंगवाया जा सकता है जिसका लिंक यहाँ दे रही हूँ :

अयन प्रकाशन 

१/२० महरौली , नयी दिल्ली --११००३० 
फ़ोन : २६६४५८१२ / ९८१८९८८६१३ 

6 टिप्‍पणियां:

  1. vandana jee,aapne itni sunder sameekcha ki hai.....ab to padhni padegi......

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  2. इतनी बारीकी से अध्ययन करके उसपर इतनी विस्तृत समीक्षा करना वाकई काबिले तारीफ है ...और यह हुनर तुम्हारी शैली में बखूबी दिखाई देता है ......लेखक के मन में तृप्ति कि वह अपनी बात पाठक तक पहुंचा पाया ...और पाठकगण में एक उत्सुकता उसे पढ़ने की ....यह तुम्हारा ही कौशल है

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  3. Wah! Kamalkee sammeksha kee hai...is pustak ko to sangrahme lana hoga...maaf karo ki mai kharab sehatke karan niyamse netpe aa nahi pati.

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  4. बहुत ही सुन्दर समीक्षा..वंदना जी

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