पृष्ठ

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

यूँ ही नहीं नरक के दरोगा का तमगा खुद को दिया है उसने ..............

वो
मर्यादा की दहलीज पर
आस्था के बीज उगाती है
फिर 
रोज झाड़ू लगाती है 
कूड़ा कचरा साफ़ करती है
और 
रोज चौखट को लीपा करती है
रंगोलियाँ बनाया करती है
फिर 
उस पर पानी फेरा करती है
हर रंग मिटाया करती है
यूँ ही रोज वो 
एक नया जन्म दिया करती है
मगर किसे ?
खुद को या ज़िन्दगी को ?
शायद यूँ ही वो 
ज़िन्दगी से मुखातिब होती  है
और 
सिलसिला चलता रहता है
बनने मिटने का 
आस के दीप जलने बुझने का 
मौसम के बदलने का 
वक्त के कपडे बदलने का 
दिनचर्या 
चाहे कितनी बदली जाये 
वक्त की सीढियां चढ़ती 
अपनी ज़िन्दगी की पगडण्डी पर 
रौशन चिराग बुझाया करती है
वो यूँ इठलाया करती है 
और 
ज़िन्दगी से बतियाया करती है 
गर दे सकती है तू 
तो दे एक बार इम्तिहान
कसम है
पास नहीं होगी ........ए ज़िन्दगी 
तलवार की नोक पर नृत्य करना 
जो सीखा होता 
तुझे भी धारों पर चलना आया होता 

यूँ ही नहीं नरक के दरोगा का तमगा खुद को दिया है उसने ..............


2 टिप्‍पणियां:

आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं …………………अपने विचारों से हमें अवगत कराएं ………शुक्रिया