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सुलगती आग
तुझे और दहकाऊँ कैसे
झुलस तो चुकी हूँ
और भडकाऊँ कैसे
और जो आँच
बिना आग के सुलगा करती हैं
वो उम्र भर न बुझा करती हैं
फिर जलने के भी अपने नियम हुआ करते हैं
मजबूरियों के पाँव भी सुलगा करते हैं
वो जो दहकते हैं मुझमें पलाश
वो न किसी सागर से बुझा करते हैं
जलने के भी अपने शऊर हुआ करते हैं
हर बार चूल्हे की आग से ही जलना जरूरी तो नहीं होता ना
सुलगती आग
तुझे और दहकाऊँ कैसे
झुलस तो चुकी हूँ
और भडकाऊँ कैसे
और जो आँच
बिना आग के सुलगा करती हैं
वो उम्र भर न बुझा करती हैं
फिर जलने के भी अपने नियम हुआ करते हैं
मजबूरियों के पाँव भी सुलगा करते हैं
वो जो दहकते हैं मुझमें पलाश
वो न किसी सागर से बुझा करते हैं
जलने के भी अपने शऊर हुआ करते हैं
हर बार चूल्हे की आग से ही जलना जरूरी तो नहीं होता ना
बहुत खूब ... बिना आग के भी जला जाता है ... लाजवाब अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.in/2014/03/blog-post_18.html
जवाब देंहटाएंवाह वंदनाजी ..यह जलन भी खूब रही ...सुंदर
जवाब देंहटाएंझुलसने के बाद भी यह कामना की सुलगती आग और दहके! ..वाह!!! यह कोई कवि ही कर सकता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया आदरणीय धन्यवाद व स्वागत हैं मेरे ब्लॉग पर
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }
बीता प्रकाशन -: होली गीत - { रंगों का महत्व }
जलने के भी अपने शऊर !
जवाब देंहटाएंखूब !
परवानोँ की अजीब फितरत है
जवाब देंहटाएंजल कर ही चैन पाते हैँ
BAHUT KHOOB !
जवाब देंहटाएंBahoot khub
जवाब देंहटाएंघूमा "कमल" डुंगर -जंगल तेरी तलाश में
जवाब देंहटाएंछुपी थी गोरी बन के भंवरी तू फूल पलाश में ...कमलेश रविशंकर रावल
घूमा "कमल" डुंगर -जंगल तेरी तलाश में
जवाब देंहटाएंछुपी थी गोरी बन के भंवरी तू फूल पलाश में ...कमलेश रविशंकर रावल