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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

जिस्म की परछाईं भी लुप्त हो गयी

कुछ चली ऐसी बयार चिंगारियों की
जिस्म की परछाईं भी लुप्त हो गयी

अब परछाइयों की परछाइयाँ ढूँढती हूँ

पुराने मकाँ में इक आशियाना ढूँढती हूँ

देवदार शीशम चैल की लकडियों में गुम

वजूद के टूटे - बिखरे निशाँ ढूँढती हूँ

वो जो तल्खी से बंद किये थे किवाड

उन किवाडों के बीच इक दरार ढूँढती हूँ

झिर्रियों के पार रौशनी के दरीचों में

मैं उम्र की सफ़ेदी के चराग ढूँढती हूँ

इस अंधेरी शाम की सुर्खियों के बीच

होम हुये ख्वाबों के कलाम ढूँढती हूँ

जाने क्यूँ सुलगती नहीं सूखी हुई लकडी

जबकि रोज उसमें घी की आहूति बीजती हूँ

10 टिप्‍पणियां:

  1. इन चिंगारियों से क्या घबराना ...
    सुंदर शब्द !! बेहतरीन !!

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  2. बहुत खूब ... जीवन के सफर में कुछ उलझे हुए धागों से रूबरू होती नज़्म ...

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  3. बहुत ही बेहतरीन और प्रभावी , शब्द शिल्प खूबसूरत बन पडा है और भाव एकदम कमाल के निकले हैं । बहुत ही बढिया .....जारी रहिए , हम आते रहेंगे और पढते रहेंगे .....

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  4. बहुत ही सुंदर रचना गहरे भाव
    बार-बार पढ़ने का जी करता है

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  5. उम्र की सफेदी के चराग !
    बहुत सुन्दर है ये शब्दों की आहुति !

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